Thursday 8 October 2020

'प्रतिरोध्य'




वन, धारा, पहाड़
उबड़-खाबड़ मिलते हैं
जो हमें बेहद पसंद आते हैं।
जीवन समतल की
खोज करते हैं..,

चलो दुआ करें... ! मिट्टी को मिट्टी की समझ आये..।
मिट्टी मिट्टी में मिल जानी है.. ।
बाकी तो! शिकवा-गिला कहने-सुनने में ताउम्र गुजरी है..।


"हे पार्वत्य वासी! सुराधिप! आपने मेरा रास्ता बार-बार बदल कर मुझे मेरी सखी से विमुख कर दिया। पाक में रहते हुए मैं नापाक हो रही हूँ। हिन्द में ही मेरी संस्कृति अक्षुण्ण रह सकती है..! "

"ना कुछ मेरे समझ में आ रहा है और ना मुझे कुछ याद आ रहा है कि मुझे क्या करना है और मैंने किया क्या है..! मुझसे दूर हटो और शीघ्रता से जाने दो। मुझे मेघों को दिशा निर्देश देना है कि कहाँ सुखार करें और कहाँ धरा-गगन को एक कर दें।"

"अक्सर आप मद से मत्त हो जाते हैं और अपने अस्त्र के प्रयोग बल पर मेघों और बिजलियों को सही-सही दिशा निर्देश नहीं दे पाते हैं..।"

"मुझ पर मिथ्या आरोप ना लगाओ..!"

"मुझे यरलुंग त्संगपो व मेघना से मिलने जाना है। दो कारुण्य बाहु के मिलन का योग बना दें..!"

"पुनः सोच लो! अब ज़माना सती सुहिणी का नहीं रहा..।"

"जुनून की उद्यति मेरे वेग से भी सदैव बड़ी होती रही है सदा होती रहेगी।"

6 comments:


  1. चलो दुआ करें... ! मिट्टी को मिट्टी की समझ आये..।
    मिट्टी मिट्टी में मिल जानी है.. ।
    बहुत सुन्दर सार्थक एवं चिन्तनपरक सृजन।

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  2. कवा-गिला कहने-सुनने में ताउम्र गुजरी है.
    - सही कहा.

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