न बर्दाश्त दिनों-रात बुजुर्गों के खायें-खायें
कौवों को दान दिए श्रद्धा से आ आ किये
क्यों कि उसके कांव कांव को मनहूस मानते रहे ,
मुंडेर पे बैठा नहीं कि चल हट भाग हुड़के
गाय जैसी बहु खोजते रहे
दमन करना आसान मिले
घर में जकड़ ना सके तो
गली गली भटकने छोड़ ही सके
नदियों कौओं गायें को दान क्यूँ
जितने निरीह हैं उन्हें दान क्यों नहीं
अद्भुत साम्य को प्रस्तुत करते हुए एक अनकही व्यथा को उभारा है आपने दीदी!
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