Saturday 26 July 2014

बात है



मिट्टी की काया
ढूँढें संघर्ष-वर्षा 
ओक में ओज। 



मिट्टी का दीया
जग को ओज दिया
ओक  आग से। 




कल की बात है 
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आलता लगाती सांझ तरुणी निकली
झिर्री से झाँकती तारों की टोली निकली
सूर्य सूर्यमुखी अपनी दिशा बदलते रहे 
रात रानी नशीली खिलखिलाती निकली 

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Wednesday 23 July 2014

आ गया मॉनसून




तांका 

1

नूर की बूँदें
उदासी छीन रही
इक आसरा
तरुणी हुई धरा 
अनुर्वरा ना रही

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2

बूँदों की धुन
झींगुर सुर संग
कील निकाले
पेंगो संग सपने
ऊँची उड़ान चढ़े  


पेंगो की चाह 
वहशी करे पीछा
कदम खींचे।


Sunday 20 July 2014

हाइकु




गाये कजरी 
मेघ से ले कजरी
भू बाला झूमे। 

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भू को बिखेरे
अति व अनावृष्टि 
बिरुए रो ले। 

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भू मनुहार 
प्रवाह तो निर्वाह
घटा छकाये 






घन दे धोखा 
ना क्षति निवारण
है जीव भूखा। 

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ध्यान से सूंघो / सृष्टि नाशक / विध्वंसकारी 

बारूद गंध फैली 
श्याम घन से।




धरा संवरी
मेघों सी काली साड़ी
बूंदों के बूटे।

बूंदों के बूटे
भुट्टे की धानी साड़ी
भू सज बैठी।


Sunday 13 July 2014

सावन



कोई शब्द मेरे नहीं हैं ..... मुझे अच्छे लगते हैं ..... बस संजो लेती हूँ 
किसी को लगता है कि चोरी हो गई है ..... 
तो .... खर्च नहीं हुए हैं ...... सबके सामने है .... 
वो अपने शब्द यहाँ से ले जा सकते हैं .... 




वृक्ष हैं जीते
पत्ते से साँस लेते
वंश पत्ते भी।

खा के झकोरा 
साखें गुत्थम गुत्था
पत्ते छिटके।

मूक है बैन
रहस्य रही बातें
बोल ले नैन।

भय से पीला
सूर्य-तल्खी है झेले
है घास पीला।

सुख सम्बल
छोड़ मेघ कोठरी
बरस बूंदे।

हवा किलोल
बादल फुटबॉल
जन बेहाल।

पथ गुम है
छिपे रत्नों के पोत
मेघो के ओट।

सांसे किलोल
जीव है फुटबॉल
उठा पटक।

स्वप्न किलोल
मंजिल फुटबॉल
रास्ते अनन्त।

सावन आई
दिगंचल संवरा
बहार छाई।

जग है प्यासा
सावन आ मिटाए
नीर पिपासा।

पेड़ है नफ़ा/सफ़ा
बादलें करे जफा
इंसा से खफ़ा।

भू स्तन सूखा
स्रष्टा का है संताप
है जीव भूखा।

उग हर्षाते
मशरूम से स्वप्न
ऋतु बरसे



जिन्दगी जैसी 
आवा जाही रहती
है बूंदें रत्न
मेघ से भरे नदी {मेघ उडती नदी}
नदी से बने मेघ {नदी तैरता मेघ}


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Tuesday 8 July 2014

हाइकु



रोती दीवारे 
परित्यक्त है घर
छीजते रंग

या

रोती है भीति 
दीवट सूना पडा 
छीजते रंग।





हो ना दमन
स्वप्नों पे पोते मसि 
क्रोध अगन। 
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छिपा तरङ्गी 
अन्नत के अन्दर
शांत समुन्द्र। 





आस से भरे 
रौशनी का शहर
नभ व तारे। 
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पक के गढ़ा 
हिय शीतल करे 
धरा का कण। 




चट से फूटे
जीवन बुलबुला 
चुलबुला है। 


चुलबुला है
आत्मा कुलबुलाये
आवाजाही है। 



Sunday 6 July 2014

हाइकु


जिस दिन व्योम जी कोई हाइकु पास करते हैं …. लगता है सार्थक हुआ सीखना .....



हँसती बूंदें
बूढी छतरी देख
आस तोड़ती।

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वादों को ढोता
वक़्त कुली बना है
कर्म मजूरी। 

2

भू है उदास 
आस मेघ पालकी 
हवा कहार। 

3

दूर है छोर 
पर देते हैं पीड़ा 
पर क़तर। 

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दुर्वह

“पहले सिर्फ झाड़ू-पोछा करती थी तो महीने में दो-चार दिन नागा कर लिया करती थी। अब अधिकतर घरों में खाना बनाने का भी हो गया है तो..” सहायिका ने ...