Sunday 28 September 2014

हाइकु


1
श्रद्धा व आस
प्रतिमा बने मूर्ति 
आन बसे माँ।

2
त्रिदेवी शक्ति 
विरिंच भी माने माँ 
जग निहाल।

3

4
साँझ सबेरे 
लोहित भू गगन
उबाल मारे




== गगन और भू  ==

स्त्री-पुरुष प्रतीक हैं 
जो रिश्ते के 
बचपन और बुढापे में 
बहुत गर्मजोशी में रहते हैं 
जैसे उबलते रहते हों .... 
इसलिए खून की तरह लाल हैं .... 
बीच अवस्था में तो 
सब बस नून तेल लकड़ी के 
जुगाड़ में ही रहते हैं ....
कूल कूल 
उबलने की फुर्सत कहाँ 
i am right or Wrong??

5
घर गमले 
स्त्री-वट हो बोंजाई
रिश्ते सम्भाले।

6
रफ्फु थे जख्म
यादें खुरच डाले
जलाये चैन।

7
हँस पड़ती
पथ दिखाती ज्योति 
सहमी निशा।

==


Saturday 27 September 2014

यादें




मेरे लिए तो हर दिन त्यौहार होता था ,जब तक मेरी माँ जीवित रहीं ..... छोटा - बडा कोई पर्व हो तो मेरे लिए नये कपडे बनते थे ..... 
और वो कपड़े मेरी माँ ही सिलती थीं .... 
मेरे नखरे दर्जी उठा ही नहीं सकता था .... 
कपड़ा खरीदने से लेकर सिलने तक 
युद्ध-स्तर का एक चुनौती होता था मेरी माँ के लिए ,
क्यूँकि कपडे के दुकान पर मुझे ना तो रंग-डिजाईन और ना कपड़े की क्वालिटी जल्दी पसंद आते थे ..... 
दो चार बार तो बाजार जाना ही जाना पड़ता था .... 
फिर सिलाई की बारी आती तो पोशाक का डिजाइन में भी 
माँ को बहुत तंग करती थी मैं .... 
एक बार दशहरा का ही अवसर था ..... 
मेरे लिए कपडे सिलने थे …… 
लेकिन मेरे स्वभाव के कारण मेरी माँ बहुत परेशान हो चुकीं थीं ..... 
उन्होंने बहुत मनाने की कोशिश की 
लेकिन मेरे नखरे कम ही नहीं हो रहे थे ..... 
समय रुका नहीं रहा और दशहरा शुरू भी हो गया 
तब मेरी जिद थोड़ी कम हुई तब तक माँ शायद कुछ निर्णय ले चुकी थीं उन्होंने सिलने से साफ इनकार कर दिया ...
अब पसीना छूटने की बारी मेरी थी ..... बहुत जिद के बाद भी वे सिलने के लिए तैयार नहीं हुईं .... उनका कहना था ,इतने नखरे हैं तो खुद सील कर देखो ..... 
मुझे नये कपड़े पहनने ही थे .... सहेलियों के बीच प्रतिष्ठा की बात थी .... 
तब स्लैक्स का जमाना था इसलिए केवल उपर के टॉप सिलने थे ..... पहली बार कैंची कपड़े और मशीन से वास्ता पडा मेरा और अब बारी मेरी माँ के चौकने की थी ..... 
लेकिन उस सिलाई के दौरान मेरे नखरे जाते रहे जिद के चीथड़े जो उड़े 
अब ना तो माँ रहीं और ना मेरी जिद। ....... 
==
अधीर बन
बेबाकी चुन्नी ओढे
अभिलाषा हँसती
देहरी लाँघे 
मचली पथ पाने
शासन डोर छोड़े
==
मंदिर की सीढियां चढ़ नहीं सकी
मन मैले हो रखे थे दीप जला नहीं सकी

== तो क्या हुआ कोशिश में रही 
किसी के आँखों की आँसू ना बनूँ 
==

Thursday 25 September 2014

जीवन


एक जीवन में
एक बार ही फलता है
कई दर्जन फल देता है
क्यूँ नहीं मनु सीखता है
जीवन एक बार ही मिलता है



सुखी अकेला
रह नहीं सकता 
केला हूँ मैं।


1

तम गहरी
उम्मीदें बढ़ा जाती
आ रहा भोर।

2

धैर्य ले साथ 
दुश्वारियों से भिड़े 
मंगल सधे।

3

छिटकी मिटटी
धारा की कद बढ़ी
सिसकी छूटी।

4

माया की खाद
हृष्ट पुष्ट हो जाता
आस फसल।

5

छीपी है राका
तारे चन्द्र के छींट
नभ छीबर।

छीबर = वो कपड़ा जिस पर छीट डाला गया
राका=पूर्णिमा की रात
छीपी = छींट डालने वाला कारीगर

6

थाती मौरुसी
पत्नी मौज करती
भिक्षा माँ मांगे।

7

फेरा में पड़ा
निशा-कारा में बंद
रवि बेचारा। 





Tuesday 16 September 2014

हाइकु - मुक्तक








1

पलट देखो .... नाइन और सिक्स .... जिन्दगी रूप
हर्ष विषाद … दो हो एक हो जाए .... बातें चिद्रूप
उलट सीखो ..... छत्तीस ,तिरसठ .... आत्मा जो चाहे
पिच्छिल मनु .... उल्टा सोच के संगी .... तम की कूप

भू स्वर्ग हारा
डल खो दिया बल
जल प्रलय। 

2

गृह बुजुर्ग / थके बोझ उठाये / हरि में ध्यान 
वय आहुति / पकी वंश फसल / गांठ में ज्ञान
कार्य में दक्ष / जीवन का आधार / सकल स्तंभ
जीवन संध्या /स्नेह की प्रतिमूर्ति / चाहे सम्मान 

चन्द्र के दाग
धोने दौड़े उर्मियाँ 
पूनो की रात। 




Friday 5 September 2014

त्रिवेणी






जापानी 'हाइकु' में जहां तीन पंक्तियों में क्रमानुसार 5+7+5 कुल मिलाकर केवल 17 वर्णों में विचार अंकित करने की बाध्यता है, वहीं त्रिवेणी विधा में ऐसी कोई बाघ्यता न होकर तीन लयवद्ध पंक्तियों में विचार व्यक्त करने होते हैं। इस प्रकार तीन पक्तियों की साम्यता के अतिरिक्त इन दोनों विधाओं में अन्य कोई साम्य नहीं है।
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वैसे गुलज़ार साहब ने इसके संबंध में अपनी त्रिवेणी संग्रह रचना त्रिवेणी के प्रकाशन के अवसर पर इसकी परिभाषा इस प्रकार दी थी-

........शुरू शुरू में तो जब यह फॉर्म बनाई थी, तो पता नहीं था यह किस संगम तक पहुँचेगी - त्रिवेणी नाम इसीलिए दिया था कि पहले दो मिसरे, गंगा-जमुना की तरह मिलते हैं और एक ख़्याल, एक शेर को मुकम्मल करते हैं लेकिन इन दो धाराओं के नीचे एक और नदी है - सरस्वती जो गुप्त है नज़र नहीं आती; त्रिवेणी का काम सरस्वती दिखाना है तीसरा मिसरा कहीं पहले दो मिसरों में गुप्त है, छुपा हुआ है । ----गुलज़ार


त्रिवेणी कैसे लिखें---
पहले दो मिसरे छल्ले जैसे हो। एक दूसरे से मिलते हुए। तीसरा मिसरा नग़ की तरह जो बिलकुल फिट बैठे छल्ले में।

शब्द का दुहराव ना हो तो बेहतर लगेगा।

काफिया रदीफ़ और बहर से मुक्त हो सकते हैं पहले दो मिसरे लेकिन मात्रा सटीक हों।2-4 मात्रा इधर उधर हों लेकिन शे'र की शक्ल में हो। तीसरा मिसरा स्वतंत्र रहेगा।

कुछ भी लिखें लेकिन भाव स्पष्ट हो।

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1

चातक-चकोर को मदमस्त होते भी सुना है !
ज्वार-भाटे को उसे देख उफनते भी देखा है !


यूँ ही नहीं होता माशूकों को चाँद होने का गुमाँ !!

2

रब एक पलड़े पर ढेर सारे गम रख देता है !
दूसरे पलड़े पर छोटी सी ख़ुशी रख देता है !


महिमा तुलसी के पत्ते के समान हुई !!

3

टोकने वाले बहुत मिले राहों के गलियारों में !
जिन्हें गुमान था कि वही सयाने हैं टोली में !


कामयाबी पर होड़ में खड़े दे रहे बधाई मुझे !!


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साथ हमारे
विध्वंस या निर्माण

गुरु के हाथ।

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Wednesday 3 September 2014

हाइकु - मुक्तक




निशा का घन
पल सब बदले
भोर भास से। 

क्षीण व पीन
चन्द्र तृप्त करता
मृत अमृत।

जाल जो डाला
पल के आंच फसे
स्मृति के सिंधु।

माया की कश्ती
इच्छा जाल उलझी 

मोह सिंधु में।

वैरागी होना 
माया जाल बिसरा

 स्वयं को पाना।




लोभ प्रबल / भ्रमति है मस्तके  / लब्धा का साया
ताने वितान / कष्टों का आवरण / नैराश्य लाया 
डरे वियोगी / ईर्ष्या में क्रोध संग / वितृप्त मनु
काया से माया / पीर से नीर बहे / बबाल छाया।



दुर्वह

“पहले सिर्फ झाड़ू-पोछा करती थी तो महीने में दो-चार दिन नागा कर लिया करती थी। अब अधिकतर घरों में खाना बनाने का भी हो गया है तो..” सहायिका ने ...