Sunday 13 August 2017

जिन्दगी के विभिन्न रंग (शेड)


"इतनी सब्जियाँ ! क्या सिंह साहब की पत्नी बाहर से लौट आईं ? प्रात: के सैर और योगासन के बाद पार्क में बैठे वर्मा जी अचम्भित थे... सिंह साहब भांति-भांति के सब्जियाँ खरीद कर झोला भर उठा रहे थे... सुबह के समय पार्क के बाहर सब्जी-जूस बेचने वालों की भीड़ जमा होती थी...
"अरे वर्मा जी, सिंह साहब की पत्नी को गुजरे वर्षों हो गए!" शर्मा जी बोले
"तो क्या सिंह साहब खुद से खाना पकाते हैं?"
"नहीं न! दाई(मेड) रखते हैं ।"
"ओह अच्छा!"
"दाई को २० हज़ार रुपया देता हूँ वर्मा जी! इस उम्र में दूसरी शादी करता तो दस तरह की किच-किच होता... पत्नी होती भी तो उसके साथ भी कई समस्याएँ होती...! मन का पकाने के लिए बोलता तो दस बहाने होते...
मेड रखता हूँ आज़ाद पक्षी की तरह जीवन जी रहा हूँ...!" सिंह साहब की ख़ुशी छिपाए नहीं छिप रही थी...
"भाभी जी नमस्कार... घर आए कई लोग बोल जाते हैं...!" शर्मा जी फुसफुसाए...


Wednesday 9 August 2017

दूत मिलता है... तलाश हमें करनी होगी...


1994 के 29 अगस्त को हमलोग पटना शिफ्ट कर गये थे... हमारे घर से थोड़ी दूरी पर परिचित बे-औलाद वृद्ध दम्पत्ति रहते थे... वे लोग बहुत खुश हुए हमारे पटना आने से... यूँ तो उनके साथ पति-पत्नी दोनों के भतीजे का परिवार रहता था... दोनों के भतीजे के परिवार में ये सोच था , मैं क्यूँ किसी तरह की मदद करूँ वो करे... एक दाई रही सदा... लेकिन पैसों के मामले में मेरे पति पर ही विश्वास रहा... वृद्ध की मौत सन् 1994 में और वृद्धा की जिन्दगी सन् 2003 तक ही रही... नौ साल प्रतिदिन का बाहर से ख्याल हमलोग रखे... बैंक से पैसा निकाल कर ला देना... जब जरूरत पड़े डॉक्टर लाना... अस्पताल ले जाना... पेस मेकर लगवाना...
       लगभग पंद्रह दिनों पहले... दोपहर का समय था... मेरे पति ऑफिस में थे... मैं घर में अकेली थी... मुझे बुखार 102 था... पड़ोसन मिलने आईं... हम बात कर रहे थे लेकिन मेरा बुखार बढ़ रहा था... दवा लेने के बाद भी 105 हो गया... घबरा कर मेरी पड़ोसन की बेटी मेरे पति को फोन कर दी... आस-पास की तीन-चार पड़ोसन आ गईं... मेरे पति को ऑफिस से घर पहुँचने में समय लगता वे मेरे बड़े भाई को फोन कर दिए... बड़े भाई-बड़ी भाभी पहुँच गये... पानी की पट्टी और सर धोने से बुखार थोड़ी देर में उतर गया...

हमारा हश्र कैसा हो... ये तो विधाता रचता ही होगा लेकिन कुछ सहायता तो हमारी सोच... हमारे कर्म भी करते हैं...
आशा साहनी की स्थिति को समझने की कोशिश में हूँ क्यूँ कि कल मेरी स्थिति शायद... *शायद* वही हो
ना हो इसलिए पूरे शहर में होने वाली साहित्यिक गोष्ठियों में जाती हूँ... रोज़ दो-चार से फ़ोन पर बात करती हूँ... फ़ेसबूक पर सक्रिय रहती हूँ... अकेलापन या भीड़ हम तो चुन ही सकते हैं...
जबसे ख़बर मिली है तभी से सोच रही हूँ...
मान लेते हैं पूत कपूत है
पहले पति के मौत के बाद दूसरी शादी... तब तो पुत्र पर निर्भरता ख़त्म... दूसरे पति की भी मौत तीन-चार साल पहले... तो अकेले क्यूँ रही...

                                             ये बताने की जरूरत इसलिए पड़ी कि आशा साहनी अकेले यूँ क्यूँ मरी... समझ नहीं पा रही हूँ ...
-विश्वास की कमी उनमें थी ?
-कोई क्यूँ नहीं रहा(बेटा ही क्यूँ) दो-दो मकान होते हुए...


दुर्वह

“पहले सिर्फ झाड़ू-पोछा करती थी तो महीने में दो-चार दिन नागा कर लिया करती थी। अब अधिकतर घरों में खाना बनाने का भी हो गया है तो..” सहायिका ने ...