Wednesday 27 November 2019

सीख

साहित्यिक स्पंदन जुलाई-दिसम्बर अंक में रचनाकारों की तस्वीर लगाई जा रही थी.. रवि श्रीवास्तव की रचना में उनकी तस्वीर लगाते हुए नैयर जी बोले,-"इतना सीधा-साधा भोला-भला इंसान हैं कि देखिए इनकी तस्वीर भी आसानी से निर्धारित स्थान पर फिट हो गई।"
"ज्यादा गलतफहमी में मत रहिएगा शहाबुद्दीन के इलाके का है.. नटवरलाल भी उधर पाए जाते हैं।" संपादक की बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि रवि श्रीवास्तव का फोन आ गया,-"तुम्हारी आयु लम्बी हो अभी तुम्हारी ही बातें हो रही थी... तब तक तुम्हारा फोन आ गया!"
"अरे वाहः! मेरी क्या बात हो रही थी दी?" पूरी बातें सुनने के बाद बोला कि,-"दी! उस इलाके में राजेंद्र प्रसाद देश के प्रथम राष्ट्रपति भी थे... पहले तो हम उनका अनुसरण कर करबद्ध होते हैं... सामने वाला मजबूर ना करे तो कौन शहाबुद्दीन बनना चाहे?"
"सत्य कथन! हम दोनों हो सकते हैं... सामने वाला तय करे कि हम क्या रहें!"

लचकती डार नहीं
जो लपलपाने लगूँ
दीप की लौ नहीं
जो तेरे झोंके से
थरथराने लगूँ
लहरें उमंग में होती है
बावला व्याकुल होता है
तेरे सामने पवन
वो ज्योत्स्ना है
शीतल, पर...
सृजन बाला है
बला अरि पर
बैरी ज्वाला है
आगमन पर
अभिमान मत कर
हर शै वक्त का निवाला है

Friday 1 November 2019

मुक्ति



यूँ तो भाईदूज के दिन बिहार के मिथिला में भी रंगोली बनाई जाती है.., परन्तु दक्षिण भारतीयों के घर के सामने, प्रतिदिन सुबह पौ फटने के पहले, दरवाजे पर रंगोली का बनना हमेशा चित्ताकर्षक होता है। दशहरे का समय और रविवार था कुछ दूरी पर महिला टोली डांडिया में मस्त थी... दोपहर में रंगोली बनाने के लिए जुटी रंगीन परिधानों में सजी युवतियों की टोली... लुभा रही थी.., बेहद दिलकश नज़ारा था..., बैंगलुरू के कब्बल पार्क में।दिलकश नजारे में पुष्पा भी भींगना डूबना चाह रही थी.. लेकिन वह थोड़ी झिझक में थी क्यों कि सभी उसके लिए अनजान थीं। असल में वह पोयट्री ऑन ट्री में शामिल होने के लिए कब्बन पार्क में आई थी। लगभग साठ-पैसठ रचनाकारों का जुटान हो चुका था.. दो-चार ही वरिष्ठ रचनाकार थे बाकी सभी उन्नीस साल से तीस साल के बीच के युवा रचनाकारों का जमावड़ा था। आह्ह! रचनाकारों के बीच से भागकर, डांडिया खेलती महिलाओं की टोली की हिस्सेदार बनने की इच्छा मचल रही थी.. सोच रही थी कि कब सब चाय-नाश्ते का आनन्द लें और वह.. "मैं ड्रग एडिक्ट था" सुनते ही स्तब्धता से जड़ हो गई... बाइस-तेईस साल का युवा इतनी बात से अपना परिचय देते हुए, अपनी हिन्दी कविता का पाठ कर रहा था.. उस युवा के हिन्दी में पाठ करने के बाद अनेक युवा रचनाकारों ने कन्नड़ उड़िया मलयालम व अंग्रेजी में गिटिर-पिटिर किया.. अन्य दिन होता तो शायद पुष्पा कुछ समझने-सीखने की कोशिश भी करती, आज अभी तो "मैं ड्रग एडिक्ट था" में ही पूरा ध्यानमग्न थी। अगर किसी चीज से घृणा पुष्पा को था तो वह है नशा.. किसी तरह का भी हो नशा। उसके जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं था जिसकी वह अभ्यस्त हो, जिसके बिना उसका पल काटना मुश्किल हो जाये..। वह तो चाय भी नहीं पीती थी.. वह कई लोगों को देखती थी कि अगर समय पर चाय नहीं मिला तो उन्हें सर दर्द की बैचेनी या व्याकुलता से तड़पते हुए। शादी के पहले पड़ोसन भाभी ने कहा,-"पुष्पा जी अभी हमलोगों के साथ चाय नहीं पी रही हैं , जब शादी हो जाएगी तो अपने वो के साथ चाय पियेंगी। उन्हें तो इंकार नहीं ही कर पायेंगीं।""देखते हैं..!" कंधे उचकाते हुए पुष्पा ने कहा । मानों उसे चुनौती दी गई हो और उसने स्वीकार किया। उस बात को गांठ बांध कर रख ली हो जैसे और रोज याद रखती है चुनौती को। आज तक इस नाती-पोते खेलाने वाले हुए उम्र के पड़ाव पर भी चाय के लिए इंकार कर देती है.. आज भी तो इंकार करती है जब एक युवती फ्लास्क और कप उसके सामने करती है... ट्री ब्रेक हो चुका था सभी अलग-अलग टोली बनाकर मन की बातें साझा कर रहे थे। पुष्पा की नजरें उस युवा को ढूँढ़ने में कामयाब रही जिससे उसे उसके वापसी का राज पता करना था वह युवा के समीप जाकर कहती है,-"क्या मैं आपसे कुछ बातें कर सकती हूँ?"
"जरूर मैंम! क्यों नहीं!" युवा अपने साथियों से इजाज़त लेकर पुष्पा के साथ एक जगह पर बैठ जाता है।
"पूछिये मैंम क्या जानना चाहती हैं?"
"आपने कहा 'मैं ड्रग एडिक्ट था'.. मुझे विश्वास नहीं हो रहा है कि क्या कोई ड्रग एडिक्ट होकर पुनः सामान्य जीवन जी सकता है ? आपको देखकर आपको बोलते देखकर कोई अंदाजा ही नहीं लगा सकता है कि आप कभी ड्रग एडिक्ट रहे भी होंगे!"
"आप मेरी बातों पर विश्वास कर सकती हैं आंटी.. आपसे या यहाँ किसी से झूठ बोलकर मुझे क्या फायदा हो सकता है..? ड्रग एडिक्ट कहलवाना कोई गौरव की बात , कोई शान की बात तो है नहीं!"
"ठीक है मैं आपकी बातों पर विश्वास कर आपकी पूरी कहानी जानना चाहती हूँ जिसे सत्यता की कसौटी पर कसी भी जा सकेगी। आपकी आपबीती से शायद दूसरे किसी को कोई फायदा हो जाये उसको रिकॉर्ड कर सोशल मीडिया पर प्रसारित भी करूँगी, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग जान सकें।"
"आंटी आप तो मुझे अपने पापा से फिर डाँट खिलवाएँगी।"खिलखिला उठा वह युवा।
"अरे! नहीं, बिलकुल नहीं। मैं ऐसा बिलकुल नहीं चाहूँगी। अगर आपको लगता है कि आपकी कहानी छुपाकर रखनी चाहिए तो आप बिलकुल नहीं बतायें। मेरी कोशिश समाज हित के लिए है। आज हर शहर में युवा बर्बाद हो रहे हैं। उनकी ड्रग पर इतनी निर्भरता हो गई है कि छोटी सी खुशी भी नशे की मोहताज है और छोटे गम भी!"
"आपके कथन से बिलकुल सहमत हूँ आंटी। अपने अनुभव में भी यही पाया। मैं तैयार हूँ आपके वालों के जबाब देने के लिये।"
"मुझे विस्तार से जानने की इच्छा है। आप ड्रग एडिक्ट कैसे बने यानी लत कैसे लगी, लत व्यसन में कैसे बदला, ड्रग में क्या-क्या लेते रहे, ड्रग लेने से कैसा अनुभव होता था, अनुभव से क्या परिवर्त्तन होता था, आपके अपने घर वाले, रिश्तेदार, माता-पिता, भाई-बहन के रोकने समझाने की कोशिश कितनी कामयाब रही ड्रग एडिक्ट की जिंदगी से सामान्य जीवन के लिए वापसी में?"
"आपको अपनी कहानी विस्तार से ही बताउँगा। उच्च स्तरीय के बच्चे जिस विद्यालय में पढ़ते थे उसी विद्यालय में मेरा नामांकन हुआ। जैसा आपने कहा आंटी कि आजकल के बच्चों के लिए छोटी सी खुशी भी नशे की मोहताज है और छोटे गम भी! उच्च स्तरीय बच्चों के जीवन में शायद ही कोई गम का मौका होता हो और खुशी का मौका ढूँढ़ने की उन्हें जरूरत नहीं होती.. उनके पास इतना पैसा और इतनी आज़ादी होती है कि हर पल ही खुशियों भरा लगता है और नशा उनकी जरूरतों में शामिल होता है, उनको विरासत में मिलता है। उन बच्चों का साथ व दोस्ती पाने की आकांक्षा में उनके साथ सामंजस्य बैठाने के चक्कर में उनके दिए प्रस्ताव को अपनाने में लत लगा बैठा और लत कब व्यसनी बना देगा यह पता ही नहीं चल पाता है। ड्रग के रूप में सब वो चीज लिया जिससे नशा हो सकता है, शक्कर, शराब, सिगरेट, कोकीन, कफ सिरप, अफीम, आयोडेक्स इत्यादि। किसी चीज का नशा दिमाग के एक हिस्से 'रिवॉर्ड सेंटर' पर असर करता है जिससे शांति का अनुभव होता है। लेकिन उससे सोचने-समझने-भूख लगने की शक्ति छीन जाता है। अपने ही घर में चोर, झूठा बना देता है। मैं एकल बच्चा हूँ, अपने-अपने जिंदगी में व्यस्त माता-पिता का। दोनों महत्वाकांक्षी दोनों नौकरी पेशा में जंग लड़ते हुए घर को भी युद्धस्थल बनाये हुए। ऐसे घरों में आस-पास के समाज और रिश्तेदारों का प्रवेश निषेध होता है। मेरे ड्रग एडिक्ट होने की खबर जब तक उनतक पहुँचाई गयी तब तक शायद बहुत देर हो गई थी। मेरी माँ बहुत रोती समझाती अपने को गुनहगार ठहराती रही। पिता सब कोशिश किये डॉक्टर को दिखलाया, समझाया, डाँटा-पीटा भी। नशा मुक्ति केंद्र में रखा गया। ड्रग निर्भरता खत्म नहीं होना था सो नहीं हुआ। वर्षों से रोते-गाते, उलझनों में घिरी अंधकारमय जिंदगी घिसटती गुजर रही थी। एक दिन मुझे 104° बुखार था। घर के हर कोने को छान मारा कहीं कोई दवा और ड्रग नहीं दिखा। ओह्ह! बीते कल रातभर में ही तो ड्रग खत्म हो गया था। माता-पिता शहर से बाहर गए हुए थे। इतने वर्षों में कोई साथी नहीं रह गया था। अपनों का साथ तो ना जाने कबसे छूट गया था। बुखार के लिए भी दवा लानी थी। किसी तरह हिम्मत कर के घर से बाहर आया। शरीर बुखार के ताप और ड्रग की मांग से व्यथित.. व्याकुलता व उस तड़प को शब्दों में आपको नहीं बता सकता अभी। जिंदगी छीजती जाने का एहसास लिए बेहोश होकर गिर पड़ा... घर के हाते में बहुत देर बेहोश रहा। कुदरत का करिश्मा कहिए या मेरी माँ आशीष, मुझे होश आया तब बुखार भी कम था... उठने के लिए बहुत श्रम करना पड़ा..। उठकर घर में आया तो तब मैं पूरी तरह होश में था ड्रग का अंश नहीं था मेरे शरीर में, ठीक सामने दीवाल में लगे शीशे में मेरा अक्स दिखा.. मैं खुद को पहचान नहीं रहा था..। मेरा पहिले का फोटो दीवाल पर टँगा दिखा.. मोबाइल में से निकाल कर फ़ोटो देखा.. घर में पड़े एलबम को निकाल कर बहुत देर तक सब तस्वीरों को देखता रहा। फिर माता-पिता का चेहरा मेरे सामने घूमता रहा..। उनके दुख को मैं उस पल महसूस किया। यह बातें आपको फिल्मी लग रह होगी आंटी! लेकिन यह सौ फी सदी सच बातें हैं। उसी दिन मैंने तय किया कि आज और अभी से ड्रग लेना बंद। उसके बाद से और आज का दिन मैं ड्रग को हाथ नहीं लगाया। अपने शरीर में उसका प्रवेश पूरी तरह निषेध किया। मेरे शरीर को बहुत-बहुत कष्ट हुआ। मन से बहुत बार कमजोर पड़ा। असहनीय पीड़ा होती थी लेकिन दिमागी मजबूती मुझे सम्भलने में मदद किया। आज आप मेरा उदाहरण देकर समाज को चेता सकती हैं अगर आप मुझ पर विश्वास कर पाएं।"
"पूरा विश्वास कर रही हूँ आपकी बातों पर। रब करे आप सदा यूँ ही मजबूत इरादों के साथ अपनी जिंदगी गुजार पाएं।"
"आंटी मुझे भी आपसे एक सवाल करनी है, क्या कर सकता हूँ ?"
"हाँ! हाँ! बिलकुल सवाल कर सकते हैं!"
"अभी आपने जो क्षोभ शीर्षक से कविता का पाठ किया उसका सारांश था कि वो बेटियाँ बुरी होती हैं जो शादी के तुरन्त बाद अलग अकेले जिंदगी गुजारना चाहती हैं। वो बेटियाँ कहाँ होती हैं वो तो बहुएं हो जाती हैं न?"
"शादी के बाद कहलाती तो बहू है लेकिन संस्कार-परवरिश तो वे लाती हैं संग और रहती बेटियाँ ही हैं। अगर अपने को बहू मान लें तो सास-ससुर को अपना ही लें।"
"क्या यह आपका अपना अनुभव है क्या ऐसी बेटियाँ आज भी पाई जा रही हैं?"
"यह बिलकुल जरूरी नहीं कि लेखन में स्वयं का अनुभव हो । समाज से भी अनुभव मिलता है और लेखन में अनुभव और कल्पना का मिश्रण भी होता है।"
"आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा आंटी।"
"मुझे भी बहुत अच्छा लगा और यहाँ आना सार्थक भी हुआ। अब मैं आआपलोगों से विदा लेती हूँ पुनः मिलने का आस लिए।"

दुर्वह

“पहले सिर्फ झाड़ू-पोछा करती थी तो महीने में दो-चार दिन नागा कर लिया करती थी। अब अधिकतर घरों में खाना बनाने का भी हो गया है तो..” सहायिका ने ...