Friday 19 January 2018

ठगी


यूँ तो लगभग सभी पर्यटन स्थलों पर श्वेत मोती , रंगीन मोती की माला , लकड़ी के समान , चाभी रिंग , मूर्ति पत्थरों पर , चावल पर नाम लिखने वालों की एक सी भीड़ होती है... कांचीपुरम का समुंद्री तट यहाँ बसा पुराना शिव मंदिर सैलानियों के लिए मनमोहक स्थल... पूरे देश से जुटी अभियंताओं (इंजीनियर'स) की पत्नियों को घेर रखी थी छोटी-छोटी बच्चियाँ... सभी बच्चियों के दोनों हाथों गले में दर्जनों तरह-तरह की मालाएँ... मोतियों की ... स्टोन की ... उसी तरह की उनकी बातें... मानों कुशल व्यापारी हों... उनके घेरे के शोर में चलना कठिन हो रखा था....
-दूसरे जगहों पर सौ-सवा सौ से कम में नहीं मिलेगी आँटी जी मैं नब्बे इच में दे रही हूँ...
-सुबे से घूम रही रात हो रही इक भी खरीद लो बहुत तेज़ भूख लगी है...
-दुआओं का असर होगा आपलोग आख़री उम्मीद हो...
दस मिनट के शोर में मोल तोल(बार्गेनिंग) के बाद 10-10₹ में पटा और श्रीमती की मंडली 10-10 माला खरीद कर गाड़ी में बैठीं
एक ने पूछा क्या करेंगी इतनी मालाएँ
-अरे सौ रुपये की ही तो ली है... किसी को देने लेने में काम आ जायेंगे
-दस रुपये की माला पहनेगा कौन
-कन्याओं को पूजन में देने के काम आ जाएंगी..
-काम वाली को देने से बाहर का तौहफा हो जाएगा
-हाँ! उन्हें दाम भी कहाँ पता होगा
-इतना सस्ता मिलता भी कहाँ
-अभी अंधेरा घिर जाने से और समय समाप्त होने से उनकी बिक्री कहाँ होने वाली थी
-लाचारी खरीदी गई?
-मुझे तो सन्तोष है कि मैंने बच्चियों के हौसले को बढ़ावा दिया... भीख तो नहीं मांग रही सब...
-फिर मोल तोल क्यों... यही मालाएँ मॉल में होती तो...
-आपने नहीं एक भी...
-कल शायद बची मालायें सौ में दो बेच लें बच्चियां... मेरे सामने तो मॉल में टँगी मालाओं पर टँगी स्लिप घूम रही थी...

क्षणिका


01.
मेरा है , मेरा है , सब मेरा है
इसको निकालो उसको बसाओ
धरा रहा सब धरा पै बंद हुई पलकें
अनेकानेक कहानियाँ इति हुई
लील जाती रश्मियाँ पत्तों पै बूँदें
तब भी न क्षणभंगुर संसार झलके
02.
माया लोभ मोह छोह लीला
उजड़ा बियावान में जा मिला
दम्भ आवरण सीरत के मूरत
अब खंडहर देख रोना आया
लीपते पोतते घर तो सँवरता
चमकाते रहे क्षणभंगुर सुरत

Tuesday 16 January 2018

मुक्तक


01.
हद की सीमांत ना करो सवाल उठ जाएगा
गिले शिकवे लाँछनों के अट्टाल उठ जाएगा
लहरों से औकात तौलती स्त्री सम्भाल पर को
मौकापरस्त शिकारियों में बवाल उठ जाएगा
02.
रंगरेज के डिब्बे लुढ़के बिखरे रह गए रंग
सतरंगी भुवन बने धनक सब रह गए दंग
नभ-गर्जन भूडोल उजड़े अनेकानेक नीड़
सपने टूटे प्रेमबंध छूटे बजने से रह गए चंग
03.
मनोरथ पार लगाती लिख डालो मेरे ढ़ंग को ऊर्ध्वा कहती
बवाली तो मैं कहलाती लिख डालो मेरे रंग को हवा कहती
अंतांत रार कर्णधार एकाधिकार का शोर घमासान रहा मचा
गोदी पड़ी जीत सिखाती लिख डालो मेरे खंग को दूर्वा कहती
(खंग=कमजोर शरीर)

Sunday 14 January 2018

समय की कोमलता


"पुराना कम्बल ही हमें देने लाती न बिटिया!"
"क्यों! ऐसा आप क्यों बोल रही हैं? दान भी दें और कुछ साल ढ़ंग का हो भी नहीं तो वैसे का क्या फायदा"
"ये हमारे पास कल रहेगा कि नहीं तुम क्या जानो!"
"क्क्क्या ?
"तुमलोगों के जाते हमसे छीन लिया जायेगा और बेच दिया जायेगा!..."
"कौन करता है ऐसा?"
"इसी आश्रम का केयर-टेकर"
"क्या आप मेरे मोबाइल के सामने इसी बात को दोहरा सकती हैं ?"
"कल से फिर... ?!"
वृद्धाश्रम में वृद्धाओं और संगठित महिला दल से वार्तालाप चल ही रही थी कि वृद्धाश्रम के केयर टेकर को कैद में लेकर युवाओं का दल अंदर आ गया... संगठित महिला दल की एक सदस्या मोबाईल से लाइव टेलीकास्ट कर रही थी... 

Monday 1 January 2018

"सुविधा सुमार"



“देखो भाया! आप बिहारी , मैं गुजराती ... उसपर से पक्का बनिया…। पड़ोसी हैं वो अलग बात है... , लेकिन लेना-देना हमारा व्यापार है… मैंने आपकी साल भर से बंद पड़ी स्कूटी ठीक करवा देने में मदद की… बरोबर… है न?”

“बिल्कुल ठीक कहा आपने । आप बड़ा काम करवा दिए…”

“अब हिसाब बराबर करने का है”

“ले आइये ढ़ेर सारा मिठाई… मिठाई से कर्जा थोड़ा उतर जाए…”

“अरे नहीं न । मिठाई तो अलग चीज है, वो तो पड़ोसी और अतिथि के नाते खाऊँगा ही…”

“अरे! फिर?”

“मुझे साहित्य का भूख है… अपनी आँखें इतनी खराब हो गई है कि खुद से पढ़ नहीं पाता कुछ और यहाँ दूसरे हैं नहीं जिनसे चर्चा कर सकूँ। आज विभा जी ने पढ़ कर सुनाई तो बहुत आनंद आया । अब तो आप जब तक यहाँ हैं , हमारी तो रोज यहाँ ही बैठक जमेगी ।”

“मुझे भी अच्छा लगेगा आदरणीय । गुजराती होते हुए भी आपको हिन्दी साहित्य में रुचि है । आप हाइकु जानते हैं । हाइकु सुनने वाले हिन्दी में ही कम मिलते हैं ।”

“एक बात कहूँ आप बुरा नहीं मानेगीं न?”

“बिल्कुल नहीं ! बोलिये…”

“आप अभी चार पृष्ठ पढ़ कर सुनाई हैं , उनमें से एक शब्द खटक गया “ईमानदारी”… ईमानदारी हिन्दी शब्द तो नहीं … “अब चलता है” मत बोल दीजियेगा… ”

“लोगों को मिक्सचर पसंद आने लगा है।”

दुर्वह

“पहले सिर्फ झाड़ू-पोछा करती थी तो महीने में दो-चार दिन नागा कर लिया करती थी। अब अधिकतर घरों में खाना बनाने का भी हो गया है तो..” सहायिका ने ...