01.
हद की सीमांत ना करो सवाल उठ जाएगा
गिले शिकवे लाँछनों के अट्टाल उठ जाएगा
लहरों से औकात तौलती स्त्री सम्भाल पर को
मौकापरस्त शिकारियों में बवाल उठ जाएगा
02.
रंगरेज के डिब्बे लुढ़के बिखरे रह गए रंग
सतरंगी भुवन बने धनक सब रह गए दंग
नभ-गर्जन भूडोल उजड़े अनेकानेक नीड़
सपने टूटे प्रेमबंध छूटे बजने से रह गए चंग
03.मनोरथ पार लगाती लिख डालो मेरे ढ़ंग को ऊर्ध्वा कहती
बवाली तो मैं कहलाती लिख डालो मेरे रंग को हवा कहती
अंतांत रार कर्णधार एकाधिकार का शोर घमासान रहा मचा
गोदी पड़ी जीत सिखाती लिख डालो मेरे खंग को दूर्वा कहती
(खंग=कमजोर शरीर)
सुंदर लेखन
ReplyDeleteआभार आपका
Deleteबहुत खूब .....
ReplyDeleteआकर्षित करते शब्द .....!!
आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'शुक्रवार ' १९ जनवरी २०१८ को लिंक की गई है। आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
ReplyDeleteहम सदा आपके आभारी हैं
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार १३ अप्रैल २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत खूब आदरणीय दीदी | सुंदर आकर्षक पंक्तियाँ |
ReplyDeleteवाह ! लाजवाब !! बहुत खूब आदरणीया ।
ReplyDeleteप्रिंट निकल जायेगा
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