Sunday, 20 July 2014

हाइकु




गाये कजरी 
मेघ से ले कजरी
भू बाला झूमे। 

===

भू को बिखेरे
अति व अनावृष्टि 
बिरुए रो ले। 

===

भू मनुहार 
प्रवाह तो निर्वाह
घटा छकाये 






घन दे धोखा 
ना क्षति निवारण
है जीव भूखा। 

===

ध्यान से सूंघो / सृष्टि नाशक / विध्वंसकारी 

बारूद गंध फैली 
श्याम घन से।




धरा संवरी
मेघों सी काली साड़ी
बूंदों के बूटे।

बूंदों के बूटे
भुट्टे की धानी साड़ी
भू सज बैठी।


13 comments:

  1. लाजवाब हैं दोनों हाइकू ...

    ReplyDelete
  2. सुंदर प्रस्तुति , आप की ये रचना चर्चामंच के लिए चुनी गई है , सोमवार दिनांक - 21 . 7 . 2014 को आपकी रचना का लिंक चर्चामंच पर होगा , कृपया पधारें धन्यवाद !

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुभ संध्या
      स्नेहाशीष .... शुक्रिया .... आभारी हूँ आपकी

      Delete
  3. स्नेहाशीष ..... आभारी हूँ ..... बहुत बहुत धन्यवाद आपका
    शुभ संध्या

    ReplyDelete
  4. सुंदर हाइकू

    ReplyDelete
  5. सुंदर प्रस्तुति...लाजवाब हाइकू ! :)

    ReplyDelete
  6. बढ़िया हाइकु |

    ReplyDelete
  7. क्या बात है..बहुत खूब....लाजवाब हाइकू ! :)

    ReplyDelete
  8. अभी हाल में ही लौट कर आये हैं मानसून में बरसो बाद भींग के. और फिर आपके हाइकु का यह झोका अच्छा लगा.

    ReplyDelete

आपको कैसा लगा ... यह तो आप ही बताएगें .... !!
आपके आलोचना की बेहद जरुरत है.... ! निसंकोच लिखिए.... !!

पुनर्योग

“भाभी घर में राम का विरोध करती हैं और बाहर के कार्यक्रम में राम भक्ति पर कविता सुनाती हैं !” अट्टाहास करते हुए देवर ने कहा।  “ना तो मैं घर म...