Wednesday 9 November 2022

संजीवनी


"समय के चपेट में आकर ठूंठ बने वृक्ष के कोटर में रह रहा दृढ़ पक्षी हमारे सामने उदाहरण है मेरे दोस्त..।"

"हर ठूंठ हरा नहीं हो जाता...। अभी कलयुग चल रहा है! इंद्र नहीं मिलेंगे...।"

"कलयुग, द्वापरयुग, सतयुग मानव व्यवहार से ही निर्मित होता है..!"

"इसलिए तुम विदेशी अपनी नौकरी और वहाँ बसी-बसाई अपनी गृहस्थी उजाड़ रहे हो?"

"स्थान परिवर्तन को उजाड़ना कहते हैं? तब तो कोई उन्नति ही नहीं होगी...!"

"उन्नति के लिए ही तो विदेश गए थे न?"

"तब जा सकता था..। अब यहाँ मेरे रहने से ज्यादा उजास फैलेगा। मेरे वृद्ध माता-पिता को सहारा मिलेगा। और विदेशी मृगतृष्णा का क्या है...!"

"सुबह का भूला...!"


12 comments:

  1. शाम होगी तो लौटेगा ना ?

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  2. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार 10 नवंबर 2022 को 'फटते जब ज्वालामुखी, आते तब भूचाल' (चर्चा अंक 4608) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

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  3. बेहतरीन
    सादर प्रणाम

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  4. वाह! जब जागो तभी सवेरा

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  5. सुंदर और सार्थक

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  6. बहुत ही सुंदर और सार्थक लिखा आपने ।

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  7. प्रेरक!! प्रतिकात्मक शैली में सुंदर संदेश।

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  8. वाह!!!
    स्थान परिवर्तन के साथ हृदयपरिवर्तन
    सही है सुबह का भूला..
    लाजवाब लघुकथा।

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