"समय के चपेट में आकर ठूंठ बने वृक्ष के कोटर में रह रहा दृढ़ पक्षी हमारे सामने उदाहरण है मेरे दोस्त..।"
"हर ठूंठ हरा नहीं हो जाता...। अभी कलयुग चल रहा है! इंद्र नहीं मिलेंगे...।"
"कलयुग, द्वापरयुग, सतयुग मानव व्यवहार से ही निर्मित होता है..!"
"इसलिए तुम विदेशी अपनी नौकरी और वहाँ बसी-बसाई अपनी गृहस्थी उजाड़ रहे हो?"
"स्थान परिवर्तन को उजाड़ना कहते हैं? तब तो कोई उन्नति ही नहीं होगी...!"
"उन्नति के लिए ही तो विदेश गए थे न?"
"तब जा सकता था..। अब यहाँ मेरे रहने से ज्यादा उजास फैलेगा। मेरे वृद्ध माता-पिता को सहारा मिलेगा। और विदेशी मृगतृष्णा का क्या है...!"
"सुबह का भूला...!"
शाम होगी तो लौटेगा ना ?
ReplyDeleteजी
Deleteउम्मीद तो यही है
सुन्दर टिप्पणी
Deleteबहुत खूब!
ReplyDeleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार 10 नवंबर 2022 को 'फटते जब ज्वालामुखी, आते तब भूचाल' (चर्चा अंक 4608) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
हार्दिक आभार
Deleteबेहतरीन
ReplyDeleteसादर प्रणाम
वाह! जब जागो तभी सवेरा
ReplyDeleteसुंदर और सार्थक
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर और सार्थक लिखा आपने ।
ReplyDeleteप्रेरक!! प्रतिकात्मक शैली में सुंदर संदेश।
ReplyDeleteवाह!!!
ReplyDeleteस्थान परिवर्तन के साथ हृदयपरिवर्तन
सही है सुबह का भूला..
लाजवाब लघुकथा।