“ पहले सिर्फ झाड़ू-पोछा करती थी तो महीने में दो-चार दिन नागा कर लिया करती थी। अब अधिकतर घरों में खाना बनाने का भी हो गया है तो..” सहायिका ने कहा।
“दो-चार दिन कि छ-आठ दिन..!” रूमा ने व्यंग्य से कहा।
“इस बार एक मुश्त की छुट्टी छठ में चार-पाँच दिनों की…,” सहायिका दबे ज़ुबान में भी बात पूरी नहीं कर सकी।
“अरे तू छठ किसलिए करती है तुझे कौन सा बेटा है! एक बेटी ही तो..,” रूमा ने गुर्राते हुए कहा।
“जी मालकिन चाची! उसी बेटी के लिए छठ करती हूँ… बड़े जप-तप से माँगल बेटी है। बेटी को किसी चीज की कमी ना हो, अच्छी पढ़ाई कर सके, इसलिए आपलोगों के घरों में चाकरी-काम करती हूँ…!” सहायिका के स्वर में मान झलक रहा था।
“एक दिन मैं अपनी बेटी को लेकर काम पर आ गयी थी। मेरी बेटी के विद्यालय में अभिभावक-अध्यापक की गोष्ठी थी। मेरी बेटी विद्यालय की पोशाक में थी। मालकीन माँ ने उस दिन मुझसे काम नहीं लिया और समझाया, बेटी को अपने काम के घरों में लेकर मत आया करो…!” सहायिका ने पुनः कहा।
“बेटी दूसरे के घर चली जाएगी..,” रूमा की व्यंग्य भरी बातें सहायिका को नागफनी पर चढ़ा रही थी।
“तो क्या हो जाएगा.. वक्त पड़ने पर अपनी माँ की तरह काम आएगी। क्या आप जानती हैं हमारी सहायिका तीन बहन छ भाई है…! जब इसके पिता गंभीर बीमारी से जूझ रहे थे तो उन्हें यही अपने पास रख लाखों खर्च कर इलाज़ करवायी है। कितना भी पौ फट जाये हमारी ही आँखें नहीं खुलती है!” सहायिका को उबारते हुए पुष्पा ने रूमा को चेताया।
प्रकृति भी ख़ूब है। एक ही टहनी, एक ही परवरिश। फिर एक कोमल कली, दूसरा नुकीला काँटा! कलियों की महक सहायिका से होते हुए उसकी बेटी तक पसर रही है। पुष्पा ने चेता तो दिया। रुमा चेत जाए तो काँटों के गड़ने के दुःख की शायद तैयारी अब से ही कर ले!
ReplyDeleteबेटियाँ हैं तो बेटे हैं | सत्य यही है |
ReplyDeleteबेटी है तो बेटा ही है
ReplyDeleteसादर वंदे
सच यही है कि अब पढ़े लिखे और आधुनिक कहे जाने वाले लोगों की अपेक्षा, कम पढ़े लिखे लोगों में सकारात्मक बदलाव अधिक देखा जा रहा है।
ReplyDeleteसुन्दर
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