“नभ की उदासी काले मेघ में झलकता है ताई जी! आपको मनु की सूरत देखकर उसके दर्द का पता नहीं चल रहा है?”
“तुम ऐसा कैसे कह सकते हो, मैं माँ होकर अपने बेटे का दर्द नहीं देख पा रही हूँ! हनुमान जी की तरह मेरा कलेजा फटे तब न तुमलोगों को विश्वास होगा…!”
“माँ! फिर आप रंगोत्सव की तैयारी क्यों नहीं करने दे रही हैं?”
“तुम्हारे दादा को गुजरे महीना नहीं लगा और तुम्हारे पिता का श्राद्धकर्म तीन दिन में कर दिया गया तब न, अभी पंद्रह दिन…,”
“दादा की अर्थी बारात की तरह श्मशान तक गयी। सभी चर्चाकर रहे थे कि ऐसी मौत ख़ुशियाँ देती हैं। और मेरे पिता की आत्महत्या पर भी चर्चा चल रही थी कि धरती का बोझ मिटा…! घर-परिवार से समाज तक सभी शराब के नशे में उनके अवगुणों के प्रदर्शन से त्रस्त थे।सरकारी शराबबन्दी बस कागज़ तक क़ैद है।”
“बेटा? लोक-लिहाज़…,”
“माँ! महान बनने के चक्कर में स्त्रियाँ स्वयं की बलि चढ़ाती रहती हैं!”
“अच्छा! अच्छा। जाओ चाची से कहना रात के भोजन में कढ़ी-बड़ी और चावल बनवा ले और बिना नमक वाली पाँच बड़ी बना लेगी होलिका-दहन में डलवाने के लिए।”
रंगों की झड़ी–
ReplyDeleteखिड़की से झलके या ड्योढ़ी के उस पार
टेसू झकोरा
सादर शुभकामनाएँ
होली शुभ हो सभी को सपरिवार
ReplyDeleteमाँ! महान बनने के चक्कर में स्त्रियाँ स्वयं की बलि चढ़ाती रहती हैं!”
ReplyDeleteसही बात...
बहुत सुंदर।