“कचरे का मीनार सज गया।” सहायक ने गोदाम की सफ़ाई के बाद चारों ओर नज़र दौड़ाते हुए कहा।
“सबके घरों से थोड़ा-थोड़ा निकलता है,”महिला ने ठंडी साँस ली,
“इसी तरह तो सागर भरता चला जाता है।बरस भर पर तो आप सफ़ाई करवाती ही हैं,” वह बोला।
महिला अचानक चिड़चिड़ा उठी, “तुम हर महीने क्यों नहीं कर देते? साल भर में भी तुम्हें टोकना पड़ता है तब होती है यह सफ़ाई! मैं अकेली क्या-क्या करूँ? बेटी-बहू होती तो बीच-बीच में हाथ बँट जाता।”
सहायक ने दिलासा देने वाले लहजे में कहा, “आप जैसी भी हैं, बहुत अच्छे से हैं। एक और घर में काम करता हूँ—वहाँ बहू की आँखों में ज़रा भी पानी नहीं है। सिर्फ़ अपने लिए खाना बनाती है। सास, पति और उसकी बेटी के लिए मैं बनाता हूँ। आपके यहाँ बेटी-बहू नहीं है, एक दुख तो है। पर जिन घरों में हैं—वहाँ भाँति-भाँति की समस्याएँ हैं!”
महिला कुछ देर चुप रही। फिर अचानक फुसफुसाई— “सुन… किसी दिन मौक़ा देखकर बहू को बता देना, उसका पति और सास मकान को ठिकाने लगाने वाले हैं…”
सहायक ठिठक गया। झाड़ू उसके हाथ से धीरे-से फिसल पड़ी। वह बुदबुदा उठा—यह सिर्फ़ कचरे की सफ़ाई नहीं थी, यहाँ घर के भीतर सड़ते रिश्तों का इलाज करने का अस्पताल है। और उससे अपेक्षा की जा रही थी, कि वह निदान बाहर भी पहुँचा दे। उसने बिना कुछ कहे झाड़ू उठाई, दरवाज़े की ओर बढ़ गया। साथ में वह बुदबुदा भी रहा था— मुखबिरों को भी टाँके लगते हैं, और कई बार सच बोलने की सज़ा चुप रहने से ज़्यादा गहरी होती है।”
—विभा रानी श्रीवास्तव, पटना
डॉ. सतीशराज पुष्करणा की ७९ वीं जयन्ती के महोत्सव में उन्हें शब्दांजलि




आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में सोमवार, 6 अक्टूबर , 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
ReplyDeleteशुभकामनाओं के संग आत्मीय आभार आपका
Deleteहा हा | बहू को हिंट ?
ReplyDeleteबढ़िया 😊😊😊
ReplyDeletevyangya ka sundar aabhas - shubhkamnayein!
ReplyDeleteआज लोगों को संतान मोह से निकलने की जरुरत है, कृतघन को आईना दिखाना बेहतर! अधिकार केसाथ कर्तव्य भी मिलते हैं! लेकिन बहुयें या फिर कई जगह बेटे -बेटियां भी लालच कर्तव्य विमुख सिर्फ लेने पर मन रखते हैं देने के नाम पर कुछ नहीं! कम शब्दों में बडा धमाका! बधाई और शुभकामनायें दीदी 🙏
ReplyDeleteघर की सफ़ाई तो बस बहाना है, असली सफाई रिश्तों और उम्मीदों की है। मैंने भी ऐसे ही घर देखे हैं जहाँ लोग दूसरे के हिस्से को अपनी जिम्मेदारी मान लेते हैं और फिर उसी में उलझनें पनपती रहती हैं। सहायक की बात दिल को चुभती है, क्योंकि सच में हर घर के दुख अलग हैं। कोई बेटी-बहू न होने का दुख उठाता है, तो किसी को उनके होने के बाद भी चैन नहीं मिलता।
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