Tuesday, 9 December 2025

हठीला भँवर

हठीला भँवर  


थप्पड़ का सन्नाटा

रंगमंच के पीछे बने छोटे-से ‘तैयारी कक्ष’ में  बैठे आदित्य ने उत्तेजनापूर्ण स्वर में कहा, “हद हो गई यह तो। अंतराल के दौरान कार्यक्रम ठहर-सा गया था और उसी ठहराव को तोड़ने के लिए इन हम लोगों ने आधे घंटे में इतना बढ़िया पौराणिक प्रसंग तैयार कर मंच पर प्रस्तुत कर दिया, लेकिन जैसी आशा थी, वैसा तो कुछ हुआ नहीं। न तालियों की गड़गड़ाहट और न दर्शकों का उत्साह!”

विक्रम ने निराश स्वर में कहा, “हमने तो जैसे सूने में प्राण फूँक दिए! इतनी मुश्किल से तैयारी की, और मजाल है कि कोई एक बार भी बोले कि अच्छा किया! और तो और, अध्यक्ष महोदया तो कुछ बोलतीं कम से कम।”

आदित्य ने होंठों पर हल्की व्यंग्य-रेखा खिंची, “आदरणीया नीरा वाजपेयी को तुम जानते ही हो। तुझे पता है न वजह? आदरणीया को देवी-देवता, धर्म-वर्म पर प्रस्तुति पसंद नहीं। एक तो करेला, उस पर नीम चढ़ा सा है!  हम इतने आधुनिक हो गए हैं तथा साथ में विदेशी भी हो गए हैं! बस! यहीं उनके समझ से गड़बड़ हो गई।”

तभी दरवाज़े की कुंडी खड़की। कमरे में नीरा बाजपेयी कदम रख चुकी थीं— चेहरा कठोर, आँखें तपती हुई, और चाल में अनुशासन की तीखी गूँज। विक्रम के भीतर कहीं आशा थी कि अब जाकर सराहना सुनने को मिलेगी। पर उनकी आवाज़ तो मानो बर्फ पर पड़ी चोट-सी थी।

“यह क्या किया तुम लोगों ने?” उनके शब्द धारदार थे,

“संस्था की मर्यादा भी कोई चीज़ होती है। मंच पर जो प्रस्तुत किया गया है, वह हमारी संस्था के नियमों के पूर्णतः विपरीत है। मुझे पूर्व सूचना होती, तो मैं कभी अनुमति नहीं देती!”

विक्रम हतप्रभ रह गया! “आदरणीया हमने तो बस खाली समय भरने के लिए- भक्ति-भाव से—”

“बस!” नीरा ने फाइल मेज पर पटक दी। वह आवाज़ कमरे की हवा को चीरती चली गई।

“यह मेरा व्यक्तिगत मत नहीं है,” वे बोलीं, “संस्था की नीति है—कला को निष्पक्ष रखना। यहाँ न धर्म चलेगा, न राजनीति। तुम लोगों ने अच्छी नीयत से किया होगा, पर नीयत कभी नियम से बड़ी नहीं होती। मंच एक पवित्र स्थान है, और उसकी शालीनता उसकी सबसे पहली शर्त।”

कमरा अचानक बहुत छोटा लगने लगा था। पसीने की गंध के बीच अब खामोशी और अपराधबोध की परतें भी घुल चुकी थीं। विक्रम बुदबुदा रहा था- “कला का काम केवल प्रस्तुति देना नहीं, बल्कि उसके सीमित दायरे को समझना भी है। मंच की गरिमा, उसके नियम, उसकी तटस्थता— अगर इनसे बाहर कदम उठा लिया जाए, तो प्रस्तुति कला नहीं, अराजकता बन जाती है।”

Saturday, 4 October 2025

कंकड़ की फिरकी/सड़ांध की सफ़ाई


“कचरे का मीनार सज गया।” सहायक ने गोदाम की सफ़ाई के बाद चारों ओर नज़र दौड़ाते हुए कहा।

“सबके घरों से थोड़ा-थोड़ा निकलता है,”महिला ने ठंडी साँस ली,

“इसी तरह तो सागर भरता चला जाता है।बरस भर पर तो आप सफ़ाई करवाती ही हैं,” वह बोला।
महिला अचानक चिड़चिड़ा उठी, “तुम हर महीने क्यों नहीं कर देते? साल भर में भी तुम्हें टोकना पड़ता है तब होती है यह सफ़ाई! मैं अकेली क्या-क्या करूँ? बेटी-बहू होती तो बीच-बीच में हाथ बँट जाता।”

सहायक ने दिलासा देने वाले लहजे में कहा, “आप जैसी भी हैं, बहुत अच्छे से हैं। एक और घर में काम करता हूँ—वहाँ बहू की आँखों में ज़रा भी पानी नहीं है। सिर्फ़ अपने लिए खाना बनाती है। सास, पति और उसकी बेटी के लिए मैं बनाता हूँ। आपके यहाँ बेटी-बहू नहीं है, एक दुख तो है। पर जिन घरों में हैं—वहाँ भाँति-भाँति की समस्याएँ हैं!”

महिला कुछ देर चुप रही। फिर अचानक फुसफुसाई— “सुन… किसी दिन मौक़ा देखकर बहू को बता देना, उसका पति और सास मकान को ठिकाने लगाने वाले हैं…”
सहायक ठिठक गया। झाड़ू उसके हाथ से धीरे-से फिसल पड़ी। वह बुदबुदा उठा—यह सिर्फ़ कचरे की सफ़ाई नहीं थी, यहाँ घर के भीतर सड़ते रिश्तों का इलाज करने का अस्पताल है। और उससे अपेक्षा की जा रही थी, कि वह निदान बाहर भी पहुँचा दे। उसने बिना कुछ कहे झाड़ू उठाई, दरवाज़े की ओर बढ़ गया। साथ में वह बुदबुदा भी रहा था— मुखबिरों को भी टाँके लगते हैं, और कई बार सच बोलने की सज़ा चुप रहने से ज़्यादा गहरी होती है।”

—विभा रानी श्रीवास्तव, पटना

डॉ. सतीशराज पुष्करणा की ७९ वीं जयन्ती के महोत्सव में उन्हें शब्दांजलि




Wednesday, 2 July 2025

अन्तर्कथा

अन्तर्कथा


“ख़ुद से ख़ुद को पुनः क़ैद कर लेना कैसा लग रहा है?”

“माँ! क्या आप भी जले पर नमक छिड़कने आई हैं?”

“तो और क्या करूँ? दोषी होते हुए भी दुराचारी ने माफी नहीं माँगी और तुम पीड़िता होकर भी एफ.आई.आर. करने से बच रही हो…! जब मामला विश्वव्यापी हो रहा हो तो एफ.आई.आर. नहीं करना, कहीं न कहीं तुम्हारी विश्वसनीयता पर ही  प्रश्नचिन्ह लगाता रहेगा!”

“कैसे करूँ एफ.आई.आर.?”

“तो आगे भी सैदव अँधेरे में रहने के लिए तैयार रहो- जाल में फँसी हजारों गौरैया-मैना की आजादी का फ़रमान जारी हो सकता था…! तुम उदाहरण बन सकती थी। लेकिन तुमने ही स्वतंत्रता और स्वच्छंदता की बारीक अन्तर को नहीं समझा।”

“माँ!”

“तुम क़ानून-अनुशासन समझती नहीं हो या तोड़ना स्वतंत्रता लगता है?”

“माँ!”

“जब तुम पंजाब अपने घर में नहीं थी। तुम पटना/बिहार में थी, जब बिहार में शराबबंदी है तो तुमने मस्ती के नाम पर उसका उपयोग क्यों की?”


किसी-किसी दुर्घटना में अपनी भी नासमझी रहती है- जिसके कारण अपनी ही आवाज धीमी पड़ जाती है—-


Monday, 30 June 2025

आषाढ़ का एक दिन




“बुधौल लाने के लिए आपको हमारी ही टोली मिली थी, सब की सब गऊ, हमें बुद्धू बनाने की क्या आवश्यकता थी…?”

 “यहाँ आपको क्या पसन्द नहीं आया?”

 “अच्छा प्रश्न है…! दो दिनों पहले ब्याह-बहू भोज वाले स्थल पर हो रहे साहित्यिक कार्यक्रम में हम इसलिए शामिल नहीं हुए कि गरिमामयी अनुभूति नहीं हो पाएगी… और महाविद्यालय के सभागार को सपनों में बसाए हमने यात्रा की! सपनों के शीशमहल की किरचें लहूलुहान कर रही हैं…! यहाँ महाविद्यालय के सभागार के बाहर कैटरर के शामियाना, बन्द पंखे, ढुलमुलाती ये प्लास्टिक की कुर्सियाँ। सोने पर सुहागा ये ग्रामीण श्रोता! क्या इन्हें हमारी रचनाएँ समझ में भी आयेंगी?”

”आपको क्या लगता है भैंस के आगे…,”

थोड़ी देर के बाद कार्यक्रम की शुरुआत हुई और मंच पर बतौर विशिष्ट अतिथियों के रूप में शिकायतें दर्ज करती टोली को बुला लिया गया! भीषण उमस वाली गर्मी का एहसास कम हो चला जब दर्शक-दीर्घा से गम्भीर टिप्पणियाँ तालियों के गूँज के संग आने लगी।

  “तूझे तो इन ग्रामीण श्रोताओं पर शक़ था…? शहर की भीड़ तो सिर्फ अपनी रचना सुनाने आती है। जब मंच से दूसरे रचना पाठ कर रहे हों, तो बग़लगीर की गप्पें सुनती है…!”

वरिष्ठ साहित्यकार के पुण्य स्मृति पर्व पर आयोजित साहित्यिक समारोह की समाप्ति पर विदाई के समय सगुन के लिफ़ाफ़े थामते शिकायती गऊ टोली की आँखें जय/पराजय से परे सावन-भादो सी झर रही थीं…!

Tuesday, 10 June 2025

स्फुरदीप्ति

 क्या शीर्षक : ‘पूत का पाँव पालने में’ या ‘भंवर’

ज़्यादा सटीक होता?



“ज्येष्ठ में शादी के लिए मैं इसलिए तैयार हुआ था कि ‘एक पंथ -दो लक्ष्य’ बेधने का मौक़ा मिल रहा था! हनीमून के लिए रोहतांग पास-स्पीति वैली जाना और पर्यावरण दिवस के लिए होने वाली प्रतियोगिता में तुम्हारा सहयोगी होना चाहता था…!”

“तुमने ख़ूब याद दिलायी! मुझे तुमसे अपनी उत्सुकता के निदान भी जानने थे…।”

“ये हसीन वादियाँ, ये खुला आसमाँ

इन बहारों में दिल की कली खिल गई

मुझको तुम जो मिले, हर ख़ुशी मिल गई 

ऐसे में तुम अभी भी पर्यावरण दिवस में ही उलझी हुई हो? पूछ ही लो -अपनी उलझन दूर कर लोगी तो आनन्द से आगे का पल गुजर सकेगा…!”

“ग्रीष्म शिविर में पर्यावरण दिवस के विषय पर चित्र बनाकर रंग भरने वाली प्रतिभागिता में तुमने सभी को सहभागिता प्रमाण पत्र क्यों नहीं दिया? बहुत ही छोटे-छोटे अबोध विद्यार्थियों को प्रथम-द्वितीय में बाँट कर प्रतियोगिता में बढ़ने वाले द्वेष को बढ़ाने की ओर क्यों प्रेरित करना!”

“तुमने गौर से देखा, एक अबोध बच्चे ने कुँआ के अन्दर के अँधेरे को कितनी बारीकी से उकेरा और श्वेत-श्याम में ही चित्रकारी की थी…! द्वेष नहीं स्पर्धा की ओर प्रेरित करना। होड़ नहीं होगा तो समाज कैसे बदलेगा…!”


स्फुरदीप्ति

Wednesday, 7 May 2025

सहानुभूति के ओट में राजनीति

“दीदी अगर डाँटो नहीं तो एक बात कहूँ…” रात के ग्यारह बजे राजू ने कहा।

“डाँटने वाली बात होगी तो नहीं डाँटने की बात कैसे कह दूँ? तुमसे डरने लगूँ क्या…!”

“आप किसी से कहाँ डरती हैं? सभी को डाँटती हैं। डाँटने में तो आप सबके सामने भी नहीं चूकतीं।”

“सबके सामने डाँटने लायक बात होती ही क्यों है? क्या डरूँ कि कहीं हिन्द-पाक की लड़ाई आज से ही शुरू न हो जाए. . डाँटते समय मैं यह थोड़े देखती हूँ कि तुम बहू के ससुर हो, पोता के दादा हो, सेवानिवृत हो गए हो, उम्र हो गई है. ..। डाँट खाने वाले का ख़ेमा भी तो बन जाता है…! बहुत हमदर्द पैदा हो जाते हैं. . .! वैसे डाँट के प्रतिशत का अधिक-से-अधिक अंक अख़्तर⁩ के खाते में है : अगर किसी को दरार डालने का इरादा हो तो एक बार कोशिश ज़रूर करना चाहिए. . .! पेट्रोल डालना ही है तो अचूक वाण चलाएँ : अभी देश भी हिन्दू-मुस्लिम खेमे में बाँटा गया हुआ है-। हद है! ड्योढ़ी के बाहर साफ़ करूँ कि आस्तीनों को-!”

“सत्य कथन, डाँटने और डाँट खाने वाले के बीच जब तक कोई तीसरा माचिस पेट्रोल का प्रयोग नहीं करता है तबतक मामला उलझता नहीं है।” 

“वरवो की काकी -कनियावो की काकी की भूमिका प्रबल कभी-कभी सफल हो जाती है। चलो डाँट ही लेना, बात बता ही देता हूँ! आप जो तीन तस्वीर दी थीं, उस पर मुझे भी कहानी लिखनी है, शानदार कथानक सूझा है।”

“तुमने तो कहा था कि, “एक तस्वीर पर तो कहानी लिखी नहीं जाती है, तीन-तीन तस्वीरों पर कोई कैसे कहानी लिखेगा. . .!” चलो अच्छा है! लिख लो। कम से कम आगे से यह तो नहीं कहोगे कि खलिहर खुराफात करती है. . .! ख़ुद तो लिखना नहीं होता है, बच्चे की जान साँसत में डालती हैं. . .!”

“मूर्खों की ज़मात से आगे ग़लती नहीं होने की प्रत्याभूति /गारन्टी (Guarantee) का वारन्टी (warranty) या जमानत (सेक्योरिटी) कौन लेगा।

Wednesday, 23 April 2025

टाइम कैप्सूल

“बड़े मामा! बड़े मामा! बुआ नानी बता रही थीं कि मझले नाना कुँआ में घुसकर नहाते थे! इस कुँआ को देखकर तो ऐसा नहीं लगता इसमें कभी पानी भी रहा होगा…!”

“तुम्हारी बुआ नानी बिलकुल सही कह रही थीं। उनके पास बढ़ते उम्र के खजाने में वर्षों का अनुभव संजोया हुआ है…। पापा और मझले चाचा का कुँआ के अन्दर जाकर नहाने-झगड़ा करने का किस्सा प्रसिद्ध है। जब तक चापाकल नहीं आया था तब तक कुँआ का ही पानी भोजन बनाने और पीने में प्रयोग होता था।”

“चापाकल की तस्वीर माँ ने दिखलायी! नहाने के दौरान मझले नाना की मौत जिस नहर में डूब कर हुई उसे देखकर अब कोई विश्वास ही नहीं करेगा कि उसमें कभी पानी रहा होगा. . .!”

“मेरी नानी की माँ एक बोली की ज्ञाता थीं! उस बोली को संरक्षित नहीं किए जाने से उनके साथ उनकी बोली लुप्त हो गई…! एक दिन ऐसा न हो कि धरती से पानी भी लुप्त हो जाये. . .! और जलरोधक पात्र में जल भरकर जमीन में दबाना पड़ जाए. . .!”

“नहीं! नहीं! ऐसा नहीं होगा बड़े मामा. . .! आप ही तो अक्सर कहते हैं, ‘जब जागो तभी सवेरा’! कोशिश करते हैं अभी से जागने-जगाने हेतु. . .!”

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पुनः वे जागे

दोपहरी की रात

पूर्ण ग्रहण

Wednesday, 2 April 2025


“नगर के कोलाहल से दूर-बहुत दूर आकर, आपको कैसा लग रहा है?”

“उन्नत पहाड़, चहुँओर फैली हरियाली, स्वच्छ हवा, उदासी, ऊब को छीजने के प्रयास में है। अच्छा लगना स्वाभाविक है!”

“यहाँ होने वाले, दो दिवसीय विधा-विशेष पर आधारित आयोजन में क्या आप भी सम्मानित होने के होड़ में हैं?”

“साहित्य की अध्येता हूँ…! मेरे लिए विधा विशेष पर लेखन भी कठिन है! यह बात आयोजक को भी पता है। इसलिए मुझे क्यों सम्मान मिलेगा. . .! मेरे आने का उद्देश्य सिर्फ सीखना है और मुख्य बात जो सीख मिली साहित्य साथ खड़ा होना सिखलाता है!”

तभी मंच संचालक उत्तर देने वाली का नाम पुकारती है और उसे सम्मानित करने के लिए मंचासीन अतिथियों से सादर अनुरोध करती है! संयोजक बेहद भावुक होकर सम्मानित करते हैं। मंच से अलग हटते ही पुनः अपनी उत्सुकता प्रकट करती है पत्रकार 

“वैसे तो आपको सम्मानित करने वाले भी गौरवान्वित होंगे। जो सम्मान भाभी माँ(माँमीरा) के हाथों मिलना था : वही माँमीरा सम्मान पाना : कैसी अनुभूति रही?

“कैसे कोई शब्दों में व्यक्त करे—!”

साहित्य साथ खड़ा होना सिखलाता है— लेकिन शायद कुछ लोगों को आपका सम्मान होना समयोचित नहीं लगा हो : आपका क्या विचार है?”

“मुख्य आयोजक की यह इच्छा सन् 2018 से थी : अनेक कार्यक्रमों में मेरी अनुपस्थिति होने के कारण यह अभी तक 2025 में हो सका। वक्त जब समय तय कर दे-। बुरा लगना -अच्छा लगना अपने मन के भाव है।”

“क्या आपको भी ऐसा लगता है कि यह संस्था महिलाओं के लिए है?”

“जैसे हमारी संस्था को आगन्तुक अतिथि कहते हैं, ‘महिलाओं की संस्था है?’ कोई भी संस्था सृजकों की, रचनाकारों की, साहित्यकारों, इन्सानों, मनुष्यों की होती है. . .! कुंठित मानसिकता लिंग भेद पर विचार व्यक्त करते हैं. . .!

: क्षणभंगुर जीवन : बुलबुले सा : मोह में फँसें मानव. . .! बस! पाने की चाहत है : देने की होड़ हो तो कुछ कमाया जा सके, जिसे छोड़ कर जाने में आनन्द आए. . .!” 







Tuesday, 18 February 2025

कूल्हा का फोड़ा


कपोल की अधिकांश चेष्टाओं {विशेष— चार प्रकार की —(१) कूंचित (लज्जा के समय) (२) रोमांचित (भय के समय), (३) कंपित (क्रोध के समय), (४) क्षाम (कष्ट के समय)} का क्रमानुसार बारी-बारी से आवागमन जारी रहता है!

“यहाँ के कठोर तानाशाही या यूँ कहो गुलामी से हम आज़ाद होंगे। तुम्हारा अपना स्टार्टअप होगा। बाद में मुझे सहयोगी रख लेना। हमदोनों राज करेंगे, राज। हम बादशाह होंगे!” शान के दिखाए सब्ज़बाग में फँसकर शालिनी त्यागपत्र देने का विचार कर अपने तत्कालीन मालिक से मिलने उनके केबिन में जाती है! शालिनी के पति उच्चस्थ सरकारी पदाधिकारी थे और कार्यालय में ईमानदार अधिकारी, सहयोगियों के साथ मित्रवत व्यवहार रहता था तो सभी उन्हें अपना समझते थे। अचानक एक दिन उनकी मौत हो जाती है। अनुकम्पा के आधार पर शालिनी की नौकरी उसी कार्यालय में लग जाती है। शान उसका सहयोगी होता। शालिनी के बैंक के खाते में बहुत राशि है इसकी जानकारी उसे हो जाती। कुछ महीने के बाद वह शालिनी के करीब आने में सफल हो जाता है। 

शालिनी जब अपना त्यागपत्र पदाधिकारी को सौंपती है तो पदाधिकारी के सुझाव पर त्यागपत्र नहीं देकर अवैतनिक छुट्टी पर जाने का विचार मान लेती है। पदाधिकारी उसके मन में शक का बीज रोपने में सफल रहते हैं और उसे चौकन्ना रहने की सलाह भी देते हैं। शालिनी अपने अवैतनिक छुट्टी पर जाने की बात शान से छुपा लेती है और शान की मदद से अपना स्टार्टअप शुरू करती है। उसकी दिन-रात की मेहनत और शान के साथ से उसे लगता है कि उसका जीवन सहज रूप में गुजर रहा है तो वह शान से शादी का प्रस्ताव रखती है। शान उसे कुछ दिन और प्रतीक्षा करने की बात करता है। 

एक दिन वह किसी ग्राहक से मिलने उसके बुलाए स्थान पर जाती है तो कुछ दूरी पर शान को किसी अन्य महिला के साथ देखती है! वह जबतक उनके करीब पहुँचती है तब तक वे दोनों वहाँ से दूर जा चुके होते हैं। वह अपने ग्राहक से मिलकर वापस आ जाती है। कुछ दिनों के बाद उसके स्टार्टअप का उद्घाटन समारोह हो रहा होता है। प्रेस-मीडिया वाले भी उपस्थित होते हैं। सभी से शान ख़ुद को बेहतर साबित करने में लगा हुआ था। उसी व्यस्तता में एक कर्मचारी शिवानी से हस्ताक्षर लेने के लिए एक फ़ाइल प्रस्तुत करता है। शिवानी फोन पर किसी से बात करने में ख़ुद को व्यस्त दिखलाती है और कर्मचारी को किसी काम के बहाने से दूर भेज देती है तथा फ़ाइल को गौर से पढ़ने लगती है तो स्टार्टअप शान के नाम से हो जाए का दस्तावेज़ दिखलाई पड़ता है। कपोल की अधिकांश चेष्टाओं को नियंत्रित करते हुए पूरा स्टार्टअप अपने अकेले नियंत्रण में रखने का दृढ़ निश्चय करती है!

Monday, 3 February 2025

तुरुप का इक्का


“नेताओं के लिए ऐसे वादे करना आम बात है दीदी। रिकॉर्डेड वादे पूरे न होना भी उनके लिए बेशर्मी की बात नहीं रह गई है। मुकरना और थूक कर चाटना राजनीति का पहला सिद्धांत बनता जा रहा है।”

“राजनीतिक और मतदान पर कागज काला करना ही समय की बर्बादी है : और मतदान करने जाना तो उससे भी बड़ी मूर्खता : बिहार में रहने के कारण मतदान के परिणाम  को बहुत करीब से देखने का मौक़ा मिला है : जंगलराज और साँपनाथ-नागनाथ से वास्ता पड़ता रहा है— फ़िर भी”

“नमस्कार दास बाबू!”

ठण्ड अपना  बोरिया-बिस्तर बाँधने में जुटी थी क्योंकि अरुणाई को तरुणाई मिलने वाली थी! धूप और हार-जीत का आनन्द लेने के लिए दास बाबू अपने मित्र शम्भु के संग बिसात बिछाए अहाते में जमे हुए थे, नमस्कार की आवाज की ओर मुड़े और प्रत्युत्तर में दोनों हाथ जोड़े चिहुँक पड़े! दल-बल के संग आए खद्दरधारी नेताजी को अन्दर आने देने के लिए दरबान को इशारा किया।

“इस इलाक़े के शहंशाह हमारे घर पर कैसे पधारे?” व्यंग्यात्मक मुस्कान दास बाबू के चेहरे पर अपना सिक्का जमाए हुए थी।

“वरदायनी का दिवस था! शुभकामना माँगने चला आया। कुछ दिनों के बाद आपकी उँगली पर लगी स्याही हमारे भाग्य को चमका देगी जैसे आजकल धरा पीताम्बर ओढ़े दमक रही है!” दोनों हाथ जोड़े बोलने वाले के मुख से शहद मिश्रित वाणी निकल रही थी।

“बदले में हमें क्या चाहिए वह बताने के पहले आपको एक उदाहरण देता हूँ- मैं कुछ दिनों पहले विदेश गया था। वहाँ मेरे एक परिचित ने मुझे एक चर्च में में घुमाया। चर्च में मुफ़्त में संस्कारशाला चलाने की अनुमति मिली हुई थी। अधिकांश बच्चे विदेशों में पल रहे हैं। दादा-दादी, नाना-नानी की भी मजबूरी हो गई है विदेशों में रहना। वे लोग अपनी अगली पीढ़ियों को अपनी संस्कृति से जोड़े रखने के लिए एकत्रित होते हैं।”

“आपको सरकार से क्या उम्मीद है वह स्पष्ट रूप से कहें।” नेताजी  ने पूछा।

“सरकार साहित्यकारों को मुफ्त में एक मंडप दे।” दास बाबू ने माँग रखी।

“विद्यालयों में आठ घंटे की जगह चार-चार घण्टे की कक्षा लगे।” शम्भु ने दूसरी माँग रखी।

“घोषणा पत्र में संकल्‍पना एवं सुसंगतता से दर्ज किया जाएगा!” दल-बल वाली भीड़ से समवेत आवाज गूँजीं।

“मैंने वीडियो बना लिया मालिक!” दरबान की वाणी ने सबको भौचक्का कर दिया।

हठीला भँवर

हठीला भँवर