प्रेम का धागा नहीं टूटता .....
जब तक उसमें शक का दीमक
या
अविश्वास का घुन ना जुड़ता .....
खोखला होगा तभी तो टूटेगा .....
मैं जब कढ़ाई या बुनाई करती हूँ ...... तो जब गाँठ डालना होता है .....
जब तक उसमें शक का दीमक
या
अविश्वास का घुन ना जुड़ता .....
खोखला होगा तभी तो टूटेगा .....
मैं जब कढ़ाई या बुनाई करती हूँ ...... तो जब गाँठ डालना होता है .....
गाँठ डालना होगा न ... क्योंकि लम्बे धागे उलझते हैं
और उलझाव से धुनते धुनते कमजोर भी होने लगते हैं .......
और ऊन का 25 या 50 ग्राम का गोला होता है .....
---- जहाँ खत्म हुआ सिरा और शुरू होने वाला सिरा के पास
थोड़ा थोड़ा उधेड़ती हूँ फिर दोनों के दो दो छोर हो चार छोर हो जाते हैं ....
दो दो छोर सामने से मिला बाट लेती हूँ ......
फिर गाँठ का पता नहीं चलता है ......
क्या रिश्ते के गाँठ को यूँ नहीं छुपाया जा सकता है .....
कुछ कुछ छोर तक उधेड़ डालो न मन को .....
हर गाँठ को सुलझाया जा सकता है
रफ़ू से चलती है जिंदगी
आभारी हूँ छोटी बहना .... आपको पसंद आने का मतलब सही लिखा गया है .... बहुत बहुत धन्यवाद आपका
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14 - 03 - 2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2312 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
आभारी हूँ _/\_
Deleteअपने लिखे को चर्चा के लिए चयनित देख संतोष होता है
बहुत बहुत धन्यवाद आपका
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना है
ReplyDeleteअति सुंदर रचना आदरणीया गहरा मर्म छुपा है आपकी रचना में
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