तब का ज़माना ये नहीं था कि द्वारे द्वारे सीटी बजे और घर से कूड़ेदान बाहर रखा जाये ..... तब हर घर के थोड़ी दुरी पर बड़ा गढ़ा खोद कर रखा जाता था और उसमें घर से निकलने वाले सारे कचरे , गाय बैल के गोबर , अनाज के डंठल , खर पतवार भरा जाता था ..... तब जमीन को बंजर बनाने वाली प्लास्टिक का भी पैदाइश नहीं हुई थी न
खढे को मैं हमेशा घूरा करती थी
मेरी माँ कहती थीं
सुनअ घूरा के दिनवा भी बारह बरिस में फिर जाला
मेरे समझ में ये आया कि सड़ गल कर खाद बन जाता होगा घूरा
खेतों में फसल को दिया जाता होगा
खेत सोना उगलती होगी
आत्म हत्या करने वालों को करीब से देखी हूँ निश्चित उनकी माँ मेरी माँ जैसी ज्ञानी नहीं थी
अगर होती तो 12 साल तक धैर्य रखने की सीख जरूर दी होती
12 साल में तो एक युग बदल जाता है
तो क्या हम अपनी स्थिति नहीं बदल सकते
ब्लॉग पर चर्चा होना सिद्द करता है कि "सबके दिन फिरते हैं"
ReplyDeleteब्रज मैं भी "घूरा" ही बोलते हैं