समय बदला , बदले समय के साथ बहुत कुछ बदल गया... बदलते समय के साथ, नहीं बदला है तो कुछ लोगों की ओछी मानसिकता... पर्व-त्योहार के समय कुछ ना कुछ बकवास सुनने के लिए मिल ही जाता है...
अतित की बातें हैं, घर की कोई #एक बुजुर्ग महिला छठ करती थी, जब तक उनका शरीर चलता रहता था। जब वे पूरी तरह से निर्बल हो जाती थी तो उनके बाद उस घर की जो बड़ी महिला होती थी, वह व्रत करना शुरू करती थी...
"बुजुर्ग महिला इसलिए छठ करती होगी कि वह सूर्य से गर्भवती हो जाये... ? सनकी को सवालों से घेर लेती... लेकिन... समय के साथ मैं बदल गई हूँ..."
हाँ। तब व्रती महिला सिला कपड़ा नहीं पहनती थी... गांठ लगा कर पेटीकोट का कपड़ा(लूंगी की तरह) और ब्लाउज का कपड़ा भी गांठ(कंचुकी) लगाकर...
हो सकता है , दो कारण होता होगा (मेरी सोच) रूढ़िवादी और अशुद्ध होने की भावना...
#रूढ़िवादी:- एक उम्र होने के बाद महिलाएँ सिला हुआ ब्लाउज पेटीकोट नहीं पहनती थी... तर्क के आगे उनकी सोच तब नहीं थी...
सिले कपड़े को अशुद्ध मानते थे। कारण बस यह है कि पहले के समय में सिले कपड़े नहीं होते थे...।
"तलवार उतना ही भाँजो ,जितना से दूसरे की नाक ना कटे"
वाह आस्था के ये आयाम भी ,अद्भुत।
ReplyDeleteआदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' १९ नवंबर २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
ReplyDeleteटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
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हार्दिक आभार
Deleteसही बात।
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Deleteहार्दिक आभार छोटी बहना
ReplyDeleteअगर हम भारत के इतिहास का अध्ययन करेंगे तो हमको ज्ञात होगा कि वस्त्र-उद्योग में समस्त विश्व में शीर्षस्थ भारत में दर्ज़ी विदेशी जातियों के साथ आए थे. पहले कपड़ों में गाँठ लगाकर उन्हें जोड़ने का काम लिया जाता था. हमारी संस्कृति पर कितना-कितना और कहाँ-कहाँ विदेशी प्रभाव पड़ा है, इसका हिसाब करने में सदियाँ बीत जाएँगी.
ReplyDeleteसमय के साथ मान्यताएं, आस्थाएँ, रीति-रिवाज, खान-पान, रहन-सहन, भाषा, साहित्य आदि में परिवर्तन न आए तो वह संस्कृति तालाब के ठहरे हुए पानी की तरह सड़ने लगती है.
अपनी हर परंपरा का खोकला स्पष्टीकरण और उसकी हास्यास्पद व्याख्या करना ज़रूरी नहीं है.
जब युग बदलता है तो हम खुद को क्यों न बदलें?
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बेहतरीन रचना आदरणीया
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