Wednesday, 2 July 2025

अन्तर्कथा

अन्तर्कथा


“ख़ुद से ख़ुद को पुनः क़ैद कर लेना कैसा लग रहा है?”

“माँ! क्या आप भी जले पर नमक छिड़कने आई हैं?”

“तो और क्या करूँ? दोषी होते हुए भी दुराचारी ने माफी नहीं माँगी और तुम पीड़िता होकर भी एफ.आई.आर. करने से बच रही हो…! जब मामला विश्वव्यापी हो रहा हो तो एफ.आई.आर. नहीं करना, कहीं न कहीं तुम्हारी विश्वसनीयता पर ही  प्रश्नचिन्ह लगाता रहेगा!”

“कैसे करूँ एफ.आई.आर.?”

“तो आगे भी सैदव अँधेरे में रहने के लिए तैयार रहो- जाल में फँसी हजारों गौरैया-मैना की आजादी का फ़रमान जारी हो सकता था…! तुम उदाहरण बन सकती थी। लेकिन तुमने ही स्वतंत्रता और स्वच्छंदता की बारीक अन्तर को नहीं समझा।”

“माँ!”

“तुम क़ानून-अनुशासन समझती नहीं हो या तोड़ना स्वतंत्रता लगता है?”

“माँ!”

“जब तुम पंजाब अपने घर में नहीं थी। तुम पटना/बिहार में थी, जब बिहार में शराबबंदी है तो तुमने मस्ती के नाम पर उसका उपयोग क्यों की?”


किसी-किसी दुर्घटना में अपनी भी नासमझी रहती है- जिसके कारण अपनी ही आवाज धीमी पड़ जाती है—-


कंकड़ की फिरकी

 मुखबिरों को टाँके लगते हैं {स्निचेस गेट स्टिचेस} “कचरा का मीनार सज गया।” “सभी के घरों से इतना-इतना निकलता है, इसलिए तो सागर भरता जा रहा है!...