Sunday, 16 December 2018

बदल जाना जाँ



शिशिर की सफेद धूप स्याह निशा में बदल चुकी थी... घर के किसी कोने में रौशनी करने से सब चूक रहे थे... अस्पताल में सबकी मुट्ठी गर्म कर घर तो आ गए थे... घर में फैले शीत-सन्नाटा को दूर कैसे किया जाए सभी उलझन में थे...
"इतनी मुर्दनी क्यों छाई है? चलो समीर अपनी माँ और अपनी चाची से बात करो और सबके लिए भोजन की व्यवस्था करो...।"
"पर दादी...?" समीर अपनी दादी की बातों पर आश्चर्य चकित होता है...
"पर क्या समीर...! तुमलोग नई सदी में जी रहे हो... दुनिया बिना शादी के संग रहने के रिश्ते को स्वीकार कर रही है... समलैंगिक संबंधों को स्वीकार कर रही है... तो हम अपने घर में हुए मानव जीव को स्वीकार नहीं कर सकते...?"
"दुनिया क्या कहेगी?और उनकी दुनिया में पता चला...," समीर के दादा जी की गरजती आवाज आज फुसफुसाहट में बदली हुई थी
"टी.वी. सीरियल और फिल्मों को बेचकर धन बटोरने के लिए झूठी कहानियाँ फैलाई गई है... अगर सच बात होती तो गौरी प्रसाद समाज के मुख्य धारा से कैसे जुड़ी रहती? उन्हें क्यों नहीं...,"
"तुमसे बहस में कौन जीत सकता है...!"
"प्राचीन तम को हमें दूर करना ही होगा... थर्ड जेंडर भी तभी मुख्य धारा में जुड़े रह सकते हैं... उनकी जिंदगी बदल सकती है..."
निशीथ काल मिट रहा था और नई सुबह का कलरव सबको उत्साहित कर रहा था...

9 comments:

  1. सही है..विचारों के साथ साथ व्यवहारिक विशालता ही बदलाव ला सकती है दी..आपकी लघु कथाएँ सदैव प्रेरक होतीं है।

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    1. सस्नेहाशीष संग शुक्रिया बहना

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  2. जय मां हाटेशवरी...
    अनेक रचनाएं पढ़ी...
    पर आप की रचना पसंद आयी...
    हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
    इस लिये आप की रचना...
    दिनांक 18/12/2018
    को
    पांच लिंकों का आनंद
    पर लिंक की गयी है...
    इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।

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  3. समय के साथ सोच बदल रही है... बहुत सटीक लघु कथा..

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  4. बहुत ही सुन्दर लघुकथा...

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  5. जमाने के साथ बदलना जरूरत बन गई है।

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  6. क्रांति तो ऐसे ही लानी होगी।
    साधुवाद सार्थक लेखन।

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