हमें क्या पसंद हमें क्या अच्छा लगता
इससे आगे हमारा दायरा कहाँ बढ़ता
रात रात क्यों है रोने का ढूंढ़ता बहाना
चक्रव्यूह अभेदक स्व गढ़कर रखता
मरु पै पड़ी रश्मि प्यासा माखौल रब कहता।
दूसरा दूसरे के दर्द का थाह ले नहीं सकता।
गुलशन के सजे सँवरे में भौंरा अटका रहे,
अंदर का बिखरा समेट लेने में समय लगता।
होड़ लगी है कितना का कितना हसोत लें।
छल-बल से मेढ़ खा सारा का सारा जोत लें।
जो संग जाता दुनिया को गठरी में बाँध लेते
परवरिश भुला संस्कार पर कालिख पोत लें।
लाजवाब सृजन दी !!
ReplyDeleteहार्दिक आभार बहना
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