‘भागती जिंदगी’ : साँप-सीढ़ी का खेल
फरवरी २०१४
हमारा पटना से मुजफ्फरपुर जाना हुआ, भेंट होते ही मेरी देवरानी ने कहा, “दीदी! विभा जी लौट आई हैं और अपने घर में ही रह रही हैं ...!”
मुजफ्फरपुर के आम गोला में पड़ाव पोखर के पास श्री रामचंद्र सिंह के मकान में हमारा परिवार सन् 1982 से 1995 तक किरायेदार के रूप में रहा था। 1982 से 1988 तक मैं अपने सास-ससुर जी के साथ रक्सौल में रही लेकिन मेरे पति, मेरे दोनों देवर , मेरी ननद और एक देवरानी, (एक देवर और ननद की तब शादी नहीं हुई थी) का निवास था।हमारा वहाँ अक्सर आना -जाना लगा रहता था। जब अगर कभी जाड़े में आती वहाँ तो विभा जी से जरुर मुलाकात करती। लालच रहता, स्वेटर के लिएनए-नए नमूनों की, क्यों कि विभा जी स्वेटर बहुत अच्छा-अच्छा बनाती थीं और स्वेटर बनाकर बाज़ार में बेचने के लिए भेजा करती थीं।श्री रामचंद्र सिंह के एकलौते पुत्र दामोदर सिंह की पत्नी विभा सिंह, वृद्ध सास-ससुर की लाड़ली बहू थीं। पति की जान उनमें ही बसती, दामोदर भैया उन्हें बहुत प्यार करते थे और प्यारे-प्यारे तीन बेटों की माँ थी...
घर में पैसों की कोई कमी नहीं थी। गाँव में अच्छी खेती से मनी का पैसा आता था। ससुर का जमा किया बहुत पैसा था। पति की कमाई शराब की दुकान से होती थी, जो बहुत अच्छी आमदनी देती थी ( तब बिहार में दिखावे वाली शराब-बंदी नहीं थी)। उनके तीनों बच्चें हमें भाभी कहते। हम उन बच्चों की दादी को दादी कहते, लेकिन विभा जी को दीदी कहते थे...! विभा जी का बड़ा बेटा लगभग १६-१७ साल का रहा होगा। ना जाने कब से विभा जी के पास एक लड़का (२६-२८ साल का) आता होगा। उसके आने-जाने का निश्चित बिना नागा का समय होता था, शाम के ४ से ७ बजे तक, जब तीनों बच्चें घर से बाहर होते थे और पति शराब की दुकान पर।
शाम होते विभा का दुल्हन की तरह सजना-सँवरना और उस लड़के के आते ही पूरे वातावरण का सुगंधित हो जाना, हमारे लिए कौतुहल का विषय हो जाता था, “यह क्यूँ आता है, वह क्या करता है?”
1988 जून से मैं अपने पति के साथ उनके नौकरी वाले स्थान काँटी में रहने लगी…! कुछ महीनों के बाद सुनने में आया कि विभा जी घर छोड़कर उस लड़के के साथ भाग गयीं।वह लड़का उन्हें बंबई ले गया है, फिल्मों में काम दिलाने के लिए और कुछ वर्षो के बाद पता चला उन्हें सप्लाई करता है, कुछ वर्षो के बाद पता चला कि वही लड़का उन्हें पटना में ही रखा है ...! बहुत बुरी स्थिति में हैं…! दो बेटों की शादी हुई ,वे नहीं आयीं...! तीसरे बेटे की शादी में आयी थीं। शायद, बीच वाले बेटे को एक बेटी हुई और एक बार वह बहुत बीमार पड़ी तो
बेटा अपनी पत्नी के साथ अपनी बेटी को लेकर विभा जी के पास ही पटना में ठहरा .....। जब मैं अगस्त 1994 में पटना आयी तो मुझे विभा जी से मिलने की बेहद इच्छा होती रही लेकिन हिम्मत नहीं पड़ी। विभा के सास -ससुर गुजर गए।
विभा के पति की हत्या बड़े और छोटे बेटे ने मिलकर कर दी। मझले बेटे को भी होली के दिन भंग-शराब में जहर डाल कर मारने की कोशिश की गयी। लेकिन वह बच गया और घर छोड़ दिया। लेकिन कुछ ही वर्षों में विभा जी के तीनों बेटों की मृत्यु हो गयी। आज मैं ख़ुद ज़िन्दगी के अन्तिम पड़ाव पर हूँ तो विभा जी कहाँ हैं किन हालातों में जी रही हैं मुझे नहीं पता करना! वैसे भी उनका पता बताने वाले स्रोतों से मेरा सम्पर्क टूट गया है!
एक ज़िन्दगी जब पूरी होती है तब पता चलता है ज़िन्दगी की भागने में क्या रफ़्तार थी! जीवन जीने वाले का आकलन भागती ज़िन्दगी से करने का जी करता है…
-विभा जी वैसी नहीं होती तो क्या ऐसा होता?
-परिणाम ही तय करता है, कब क्या करना चाहिए, क्या होना चाहिए। - इसका निर्णय आसान नहीं तो क्या विभा वक़्त के अधीन थी, इसलिए सही थी? अगर वक़्त उसकी हाथों में होता तो क्या वह गलत होती?
-मेरे नज़रिए से देखने में विभा की जिंदगी में कहीं कोई कमी नहीं थी।एक औरत को पति के अलावे पराये मर्द प्यार की इजाजत हमारा समाज कभी नहीं देता है ,परन्तु कहते हैं ना प्यार कभी भी किसी से हो जाता है (कितना अंधा होता है) तो क्या उस प्यार का हश्र वैसा ही होता है?
-अगर प्यार नहीं था तो विभा जी की महत्त्वाकांक्षा ही होगी तो क्या महत्वाकांक्षा के लिए ज़िंदगी ने कोई उम्र नहीं तय की और बता ना भागती ज़िन्दगी क्या दहलीज पार करने का यही हश्र तो होना था?
-थोड़ा तो थम, थोड़ा ठहर जा। सही जवाब तो देती जा, ये भागती ज़िन्दगी :-“साँप-सीढ़ी के खेल में क्यों जकड़ती है तू मानव को?”
><
म ग स म /सदस्य संख्या
१७९९९-२०२१
होती हैं कुछ कहानियां ऐसी भी..
ReplyDeleteयह परिणाम ही होता है, कब क्या करना चाहिए, क्या होना चाहिए - इसका निर्णय आसान नहीं . विभा वक़्त के अधीन थी, इसलिए सही थी . अगर वक़्त उसकी हाथों में होता तो वह गलत होती
ReplyDeleteजीवन अपने ही हिसाब चलता है ..... कितना कुछ यूँ ही घटता जाता है ....
ReplyDeleteघटनाओं पर किसी का वश नहीं..
ReplyDeleteशुक्रिया और आभार मेरे लिखे को मान देने के लिए .....
ReplyDeleteदिमाग में एक झटका सा लगा और अचानक याद आई मेरे प्रिय उपन्यासकार शंकर के उपन्यास और उसपर बनी सत्यजीत राय की फ़िल्म "जन अरण्य"... परिस्थितियाँ भिन्न हों पर दिल पर असर एक सा है!!
ReplyDeleteदीदी, अब तो यह भी नहीं कह सकते हैं कि पढकर बहुत अच्छा लगा... लेकिन यही सफलता है इस प्रस्तुति की!!
भाई पहले तो ढेर सारा आशीष ..... आपके आने से ही मेरी लेखनी धन्य हो गई
ReplyDeleteबहुत बातें लिखना नहीं चाहते हुये भी लिख जाते हैं ना ..... 10 दिन उलझन मेन रही लिखूँ या ना लिखूँ ..... फिर सोची ,आज भी कई विभा उस विभा की स्थिति में हो सकती हैं ना .......
दर्दनाक
ReplyDeleteचाची जी प्रणाम ,आदरणीय ऋता शेखर जी ने जो कहा वही सत्य है कि घटनाओं पर किसी का वश नहीं होता |
ReplyDeleteबहुत कुछ अनसुलझा रहता है हमेशा के लिये !
ReplyDeletehaan sach me vibha ke kadam sambhle rahte to aisa naa hota ....marm ko chhu lene wali kahani
ReplyDeleteshayad man ko sanyat rakhti...par sach mey kabhi kabhi hoti hain kuch ghatnayein aisi bhi.....dosh kiska hai tay kar pana mushkil hai
ReplyDeleteअच्छे भले इन्सान की कब मति फिर जाये और कब वह मोह के दल दल में फँस जाये.......
ReplyDeleteनासमझी और जोश में किये कुछ फैसले उम्र भर सालते हैं |
ReplyDeleteभावनाओं का उफान इंसान को कहीं का नही छोड़ता
ReplyDeleteमन की सीमा रेखा....लाघने से रास्तो मे दिक्कते तो आयेंगी ही.....
ReplyDelete