"मेरा तो समय ही नहीं बचता है..! बेटी यहीं डॉक्टर है, गाहे-बगाहे अक्सर आ जाती है.. उसके बच्चे हैं..! कभी बैंगलोर चली जाती हूँ..!आप सामाजिक कार्यों के लिए कैसे समय निकाल लेती हैं? ओह्ह अकेले रहती हैं न..! आप अपने बेटे बहू के पास कब जा रही हैं ?" पुरानी परिचित समाजिक मिलन समारोह में सबकी उपस्थिति का फायदा उठा रही थीं प्रचार-प्रसार कर सकें कि वो बहुत सुखी हैं।
"और आपका सामाजिक दायित्व वहन का क्या... मुझपर तरस नहीं खाइये... अकेले रहने के कारण नहीं, समाजिक ऋण उतारने के लिए, मनुष्य होने के कारण.. पशु तो हूँ नहीं..!"
खुद के बच्चों के परवरिश-नौकरी-शादी के बाद उनके बच्चों को संभालने का भी खुद का दायित्व समझ व्यस्त रहना कोई ना तो अनुचित है और ना यह अधिकार मिल जाता है कि किसी दूसरे को कमतर समझें...
किट्टी-पार्टी, भजन मंडली, आभूषणों को खरीद-बिक्री में, ब्यूटीपार्लरों में उमड़ती भीड़ क्या ख़लीहरों की नहीं होती....,
"आप तो घर में ही नहीं रहतीं, कब आपसे मिलने कोई आये..?" हँसते हुए व्यंग्यात्मक लहजा किसी तरफ से उछला।
"शादी से लेकर पैंतीस साल ड्योढ़ी के अंदर चौके से शयनकक्ष तक ही गुजरा है... कब किसने कितना खोज-खबर ली , दोहरा सकती हूँ किसी बच्ची के द्वारा दोहराई गई कविता की तरह..., मोबाइल सबके हाथों में है... आने की सूचना देकर जरूर आएं.. तब ना मिलूं तो जरूर सामाजिक स्थलों पर उलाहना दें...।"
नमस्कार !
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 23 जुलाई 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आप भी आइएगा....धन्यवाद!
हार्दिक आभार आपका
Deleteसॉरी विभा दी ! सूचना एक बार फिर से...
ReplyDeleteनमस्कार !
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" मंगलवार 23 जुलाई 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आप भी आइएगा....धन्यवाद!
सटीक प्रहार ।
ReplyDelete