Saturday, 24 September 2016

दान



न बर्दाश्त दिनों-रात बुजुर्गों के खायें-खायें
कौवों को दान दिए श्रद्धा से आ आ किये
क्यों कि उसके कांव कांव को मनहूस मानते रहे , 
मुंडेर पे बैठा नहीं कि चल हट भाग हुड़के
गाय जैसी बहु खोजते रहे
दमन करना आसान मिले
घर में जकड़ ना सके तो
गली गली भटकने छोड़ ही सके

नदियों कौओं गायें को दान क्यूँ
जितने निरीह हैं उन्हें दान क्यों नहीं

तुरुप का इक्का

“नेताओं के लिए ऐसे वादे करना आम बात है दीदी। रिकॉर्डेड वादे पूरे न होना भी उनके लिए बेशर्मी की बात नहीं रह गई है। मुकरना और थूक कर चाटना राज...