आखिर कहाँ से आया 'लिट्टी-चोखा' और कैसे बन गया बिहार की पहचान....
लिट्टी चोखा का इतिहास रामायण में वर्णित है। ये संतो का भोजन होता था। जब राम और लक्ष्मण मुनि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा हेतु गए थे तब भी उन्हें सुबह में सातु और रात्रि में लिट्टी चोखा मिलता था।
रही बात लिट्टी चोखा की तो ये विशुद्ध रूप से भोजपुरी भाषी भोजन है और भृगु क्षेत्र (बलिया) से लेकर व्याग्रहसर (बक्सर) तक प्रचलित थी। आज भी बक्सर में पंचकोशी मेला लगता है जिसमे 05 दिन लिट्टी ही बनती है। ये भगवान राम का अनुसरण है जो यज्ञ की रक्षा के समय किया गया था।
बूझलु, की ना..
हमारे देश के व्यजनों की खुशबू व चटकारे विश्व के हर कोने में प्रसिद्ध है। हजारों जायकेदार भारतीय व्यंजनों का मेन्यू दुनियाभर के हर महंगे होटल में बड़े शौक से पेश किए जाते हैं। ऐसे में लिट्टी-चोखा की लोकप्रियता से भला कौन किनारा कर सकता है। जी हाँ! चाहे वह कोई मजदूर हो या बड़े पोस्ट का अधिकारी, हर कोई लिट्टी-चोखा का लुत्फ उठाना चाहता है। वैसे तो लिट्टी-चोखा देश ही नहीं, बल्कि दुनिया विदेशों में भी पसंद किया जाता है। यह बिहार का लोकप्रिय व्यंजन है, लेकिन यह व्यंजन आपको दुनिया के हर हिस्से में मिल जाएगी। लिट्टी-चोखा एक ऐसा व्यंजन है, जो परंपरा, स्वाद और सांस्कृतिक विरासत की कहानी को दर्शाता है। इस व्यंजन को सफर का साथी भी कह सकते हैं। लोग लंबी यात्रा के दौरान लिट्टी जरूर ले जाते हैं, इसे पैक करना और खाना दोनों आसान रहता है। इसे चोखा के अलावा आचार या चटनी के साथ भी खा सकते हैं। कई लोग तो केवल लिट्टी खाना ही पसंद करते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं, आखिर लिट्टी-चोखा बनाने की शुरुआत कैसे हुई? तो चलिए जानते हैं इसकी रोचक कहानी।
मगध काल में हुई लिट्टी-चोखा की शुरुआत
माना जाता है कि लिट्टी-चोखा बनाने की शुरुआत मगध काल में हुई। मगध बहुत बड़ा साम्राज्य था, चंद्रगुप्त मौर्य यहाँ के राजा थे, इसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी । जिसे अब पटना के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि पुराने जमाने में सैनिक युद्ध के दौरान लिट्टी-चोखा खाते थे। यह जल्दी खराब नहीं होती थी। इसे बनाना और पैक करना काफी आसान था। इसलिए सैनिक भोजन के रूप में इसे अपने साथ ले जाते थे। 1857 के विद्रोह में भी लिट्टी-चोखा खाने का जिक्र मिलता है। कहा जाता है कि तात्या टोपे और रानी लक्ष्मी बाई के सैनिक भी लिट्टी चोखा खाना पसंद करते थे। यह व्यंजन अपनी बनावट के कारण युद्ध भूमि में प्रचलित हुआ। सैनिकों को इसे खाने के बाद लड़ने की ताकत मिलती थी।
मुगल काल से भी जुड़ा है लिट्टी-चोखा।
लिट्टी-चोखा का जिक्र मुगल काल में भी मिलता है। मुगल रसोइयों में नॉनवेज ज्यादा प्रचलित था। ऐसे में लिट्टी मांसाहारी व्यंजनों के साथ भी खाया जाता था। समय के साथ लिट्टी चोखा को लेकर नए-नए प्रयोग होते गए। आज लिट्टी चोखा के स्टॉल हर शहर में दिख जाते हैं। यह खाने में स्वादिष्ट तो होता ही है, साथ ही सेहत के लिए भी बहुत फायदेमंद है।
मुझे अपनी शादी के पहले लिट्टी बनने की जानकारी नहीं थी! हाँ! सत्तू भरी रोटी अक्सर मेरे घर में बनायी जाती थी। जब भी हल्की वर्षा होती, शाम में मेरे पापा सत्तू प्याज लेकर ही कार्यालय से घर वापिस आते। ताकि घर में सत्तू प्याज नहीं होने का कोई बहाना नहीं बनाया जा सके..।
शादी के बाद श्वसुर जी और बड़े देवर को लिट्टी लगाते देखा…!
बड़े से कठवत में बहुत आटा साना गया। जब पहली बार बनते देखी तब दस लोग होंगे… लगभग अस्सी-पचासी लिट्टी बनाने योग्य सत्तू तैयार हुआ होगा। बारीक-बारीक प्याज, लहसुन, अदरक, हरी मिर्च काटी गयी, अजवाइन-मंगरैल, नीबू का रस, पुराने अचार का मसाला सत्तू में मिलाया गया। आटे का गोला पतला तैयार हुआ जिसमें सत्तू भरा गया…! सब चीज़ का अनुपात और चखकर सिसकारी भरते हुए श्वसुर जी के देखरेख में हुआ! जब तक सत्तू भरकर आटे का गोला तैयार हुआ तब तक देवर और श्वसुर जी चिपरी/गोइंठा का अलाव तैयार कर लिए और उसमें लिट्टी को सेंकना शुरू किए…!
सेंके लिट्टी को पतले कपड़े में चाला गया जिससे राख निकल गया। चाले हुए लिट्टी को घी में डुबाया गया। तरमाल खाने को मिला तो अद्धभूत स्वाद था! स्त्री सशक्तीकरण का नमूना था सन् ८२-८८ में जब बरसात के गर्मी में चौके में बैठकर बिना पंखे के रोटियाँ ना सेकने का मन करे, लिट्टी लगाने के लिए पुरुषों को तैयार कर लिया जाये। ऐसे पुरुष जिन्हें जूते का फीता बँधवाना //न! न जूता ही रानी के हाथों पहनना, गुसलखाना में पानी रखवाना, दिनभर पलंग तोड़ना रईसी मर्द लगना होता हो…। उनसे कभी-कभी ताश (गोस्त का व्यंजन) मँगवा लिया जाता तो कभी मुर्ग़ा बनवा लिया जाता! वेबकूफ़ को सराह लो सौ कोस दौड़ा लो…!
हमारे भी बच्चे हुए! वे जब सहयोग करने योग्य हुए तो उन्हें बेहद मज़ा आता था! एक बार मेरी ननद का पूरा परिवार हमारे घर रात्रि भोजन पर आमंत्रित थे। ननद बोली कि भाभी के बनाए लिट्टी में ज़्यादा स्वाद है क्योंकि वो मुलायम (मैं बड़े मुँह वाले बर्तन में पानी खौलाती थी और उसपर पतला कपड़ा बाँध देती थी। उस पर भाप से लिट्टी पकाती और घी में जीरा का तड़का लगाकर लिट्टी को तल लेती थी) बनाती हैं…! अच्छा बनाना आना नहीं चाहिए…! मेरी माँ शौक लिए मोक्ष पा गयीं कि उनकी बेटी कभी शौक़ से चौका में जाती…! वो अक्सर कहा करती थीं कि “ना नीमन गीत गैईबू त बबुनी दरबार ना बुला के जैईबू!”
उन्हें कहाँ पता था कि केवल सुर साध लेने से दरबार से बुलावा नहीं आ जाता है। जब तक दरबार से बुलाने की कीमत चुकानी ना आती हो। क़ीमत चुकाने में अनाड़ी रह गये तो फिसड्डी रह जाना तय हुआ!
सन् ९४ में पटना के पटेल नगर में बतौर किरायेदार रहने लगे। मकान मालिक दम्पति से पारिवारिक रिश्ता बन जाता था किराएदारों का! उस मंडली में हम भी शामिल हो गये! उनलोगों को भी लिट्टी बेहद पसंद था। उस मण्डली में एक बाबू मोशाय थे जिन्हें दाल में डूबाकर लिट्टी खाना पसंदीदा था! मकान मालिक के बेटे को मुर्ग चाहिए होता। अपने शौक़ अपने-अपने चौके से पूरे होते! जीभ दागने के लिए को सबको मिल जाता। पूरी मण्डली का लिट्टी-चोखा एक जगह बनता! बड़ा मज़ा आता, हम बाज़ार से आटा सत्तू, सत्तू में पड़ने वाला सारा सामान ख़रीद कर लाते, घर के बगल में गेंहूँ पीसने वाला चक्की था, भुजा वाला ताज़ा पीसा सत्तू देता। सब्जी वाला बाक़ी सामान घर में पहुँचा जाता। अरे! तब हमारी मण्डली पाव -आधा किलो -किलो से सामान नहीं ख़रीदती थी।मटर -साग -गोभी -सब्ज़ियों की टोकरी का मोल लगाते! उस्ताद मकान मालकीन थी तो हम शागिर्द पक्के वाले हो गये! जाड़े में काश्मीरी शाल वाले का रिक्शा हमारे घर से आगे बढ़ता ही नहीं। बासी लिट्टी नाश्ते के संग हमें उदारमना भी बना जाती! चोखा हमें धोखा करना नहीं सिखलाया!