Thursday 4 April 2013

जीत ही जाते हैं हम




 
जब भी मैं सोची कि ज़िन्दगी में भला अब क्या बदलाव होगा ....
तो ज़िन्दगी ने अपना अंदाज ही बदल डाला ....
थमी-ठहरी है जिंदगी
गृहस्वामी ने रखा ,अपने जिम्मे दहलीज़ के बाहर के काज
आदत का लेकिन कहाँ होता है कोई इलाज़
Eleventh Our पर सही नहीं रहता मिजाज   ,
आकस्मिक भी तो आ जाता अभी और आज ....
dongle नहीं आभासी दुनिया का भान ही नहीं
थमी ठहरी है जिंदगी
set-top-box नहीं बुद्धू box में हलचल ही नहीं
थमी ठहरी है जिंदगी
Cable सलामत नहीं Landline Live नहीं
थमी ठहरी है जिंदगी
कोई festival-छुट्टी नहीं आस-पड़ोस में लोग नहीं
थमी ठहरी है जिंदगी
Mobile में Balance नहीं Gossip करने को कोई Free नहीं
थमी ठहरी है जिंदगी
पुत्र शहर में नहीं पति भी शहर में नहीं
थमी ठहरी है जिंदगी
घर-घर बिलौकी का  कौतुक  नहीं
Windows shopping का यौंक्तिक  नहीं  
थमी ठहरी है जिंदगी
कितना पढ़ूँ पढ़ी हुई किताबें
नयी किताबों के लिए खाली जगह नहीं
कुछ नया कैसे लिखूँ ,शब्द मेरे पकड़ में आते नहीं
थमी ठहरी है जिंदगी
जब भी मैं सोची कि ज़िन्दगी में भला अब क्या बदलाव होगा ....
तो ज़िन्दगी ने अपना अंदाज ही बदल डाला ....
कब तक थमी रहती जिंदगी ,थमे रहते जब पल नहीं ....
कब तक ठहरी रहती जिंदगी ,
नदी के तेज़ बहाव में छोटे-छोटे कंकड़ ठहरते नहीं ....
जीत ही जाते हैं हम ,जीतना जरूरी जो होता है ,जीने के लिए .....
बिलौकी = घर-घर घूम के सगुन मांगना ....


दुर्वह

“पहले सिर्फ झाड़ू-पोछा करती थी तो महीने में दो-चार दिन नागा कर लिया करती थी। अब अधिकतर घरों में खाना बनाने का भी हो गया है तो..” सहायिका ने ...