Tuesday 29 September 2020

'कुछ जग की बातें : कुछ मन की सौगातें'



बात कुछ यूँ हुई
साहित्यिक दो संस्थाओं ने
एक समय में अलग-अलग
दो अलग-अलग
कार्यक्रम आयोजित किया।

कथा पाठ और उस कथा की समीक्षा,
इंद्री समर्थ श्रोताओं की भी थी परीक्षा।

स्व रचित पद्य आधारित अंताक्षरी,
नई चुनौती थी शब्दों के अग्निहोत्री।

कौन करे त्राहिमाम कौन करें माला जपी!
दूसरे दिन अखबार में विज्ञप्ति यूँ छपी,

'महिला कवियों के वर्चुअल कथा पाठ'
उलझन टला आपस में, पड़ी न कोई गांठ।

 शिक्षा और शिक्षित का अच्छा नमूना
साहित्यकारों का अति संवेदनशील होना।

सिनेमा कुली का अवलोकन सम्पादक की थी मस्ती,
रविवार को अधिकतम व्यस्त होते हैं बड़े-बड़े हस्ती।

गढ़ दिए महिला को कवि हो जाने का अफ़साना।
आकस्मिक मिला सबको हँसने-हँसाने का बहाना।

'बेटी को बेटा कहने वालों' अब चेत जाने की आवश्यकता नहीं ...

Saturday 26 September 2020

त्रिवेणी




सोच लो कुछ अनजान बातें समझना या
समझा पाना मुश्किल हो जाता है
01.
ख़ुद का नब्ज़ टटोला ख़ुदा मिला,
हाँ ना तेरे से ना मेरे से जुदा मिला।
खुशियाँ खिलखिला चली आती हैं..

02.
शरणार्थी कैम्प में जो आग लग गया,
शरण हेतु नभ तंबू ले आगे आ गया।
मरु में हरियाली नहीं ख़ूबसूरती होती है..

03.
तितलियों की बेड़ियाँ कब कटेगी
अंग से अंग चुरा लेना तब कटेगी।
थके मन नापना कठिन रवां आस की

04.
क्षमता सब में हर समाधान की,
आज़मा सको जीवन गतिमान की।
उड़ान पर अभिमान नासमझ कौन है..

05.
प्यार प्यार है,  इश्क इबादत है
जब जुनूनी नहीं तो पहला क्या आखिरी क्या..,
अक्षर में बताया या ग्रन्थ लिख डाला
कारूनी नहीं तो पहला क्या आखरी क्या..,
छौने ने छू लिया ज्यों आकाश , बीज से बिरवा बरगद बन फैला दिया प्रकाश..

Friday 25 September 2020

'रहस्य'

 डायरी शैली में पुन: प्रयास

23-09-2020

”क्या बात है बिटिया आज तुम्हारे चेहरे पर यह उदासी की घनी घटा क्यों अपना प्रभुत्व जमाये हुए है?" सदा खुश रहने वाली अपनी बहू को आज बेहद उदास देखना मेरी सासू माँ से सहन नहीं हो रहा था तो उन्होंने पूछ लिया।

"हाँ माँ! आज कुछ बात ही ऐसी हो गई। मुझे आपसे साझा भी करना है, विस्तार से बताती हूँ।" मैंने कहा।

22-06-2011

चेन्नई कालीकंबल मंदिर में हो रही मेरी सहेली की शादी में मैं अपनी एक अन्य सहेली के साथ उपस्थित थी। सहभागिता करने आये सभी रिश्तेदार परिचित मित्र गण जोड़ी को देखकर अचंभित थे। वर सुदर्शन था धनाढ्य राजकुमार एनआरआई था तो वधू उन्नीस-बीस क्या कहें दस-बारह के तुलना में भी खड़ी नहीं हो पा रही थी।

बहुत खोजबीन के बाद पता चला कि वर यानी अपने घर का छोटा लड़का ही घर चल जाये का आधार है। उसके माता-पिता वृद्ध हो चुके हैं तथा वर के बड़े भाई का शरीर किसी दुर्घटना की वजह से कमजोर हो गया है। हल्का श्रम करता है जिससे कि उसे जीने में शर्म नहीं आये ,लेकिन इतनी आमदनी नहीं कि दिवसाद्यन्त जरूरतों की पूर्ति हो सके। इसी वजह से उसकी पत्नी उसे अंधेरा में कैद समझ कर अपनी ओर से बड़ा ताला जड़ दिया था।

वर से मेरे द्वारा पूछने पर कि,–"आपसे शादी हेतु सर्वांगीण रमणी मिल जाती जो आपके संवृद्धि में सहायक होती। फिर इनसे...?"

"आप तन की जोड़ी लगाना चाह रही हैं। मुझे मन से जुड़ी की चाहत थी। जो हमारे घर की धुरी हो सके।" मेरी सहेली के भाग्य के जंग लगने वाले ताला में वक्त ने बड़ी चतुराई से सही बड़ी वाली ही चाभी लगा दिया था।

12-04-2018

आज मेरी सहेली को पुत्री रत्न की प्राप्ति हुई। मेरे लिए बेहद हर्ष का पल रहा। पिछले कुछ वर्षों से उसके ब्रेन ट्यूमर का ऑपरेशन और असफल होने पर दोबारा ऑपरेशन। मौत को चकमा देकर यमराज के खाते को कुछ वर्षों के लिए लॉकर में रखवा ही दिया था।

23-09-2020

आज पता चला कि मेरी सहेली का पति साँसों के लिए मशीनों के सहारे आई.सी.यू. पड़ा हुआ है। चार महीनों से सारे चिकित्सकों की अक्ल की चाभी गुम हो गई है।

मेरी उदासी मेरी सासु माँ को बिलकुल अच्छी नहीं लगती है। लेकिन आज वे भी मेरी उदासी का कारण जानकर चिंतित दिखीं। शायद कल कोई बड़ी चाभी समय के गुच्छे से निकल सके।

04 अक्टूबर 2020

आज मेरी सहेली के द्वारा दिये व्हाट्सएप्प सन्देश से ही मेरी आँखें खुली..। कल रात उसके पति को मोक्ष मिल गया। एक नवम्बर को मेरी सहेली का जन्मदिन और चार नवम्बर को उसकी शादी की सालगिरह के यादों को संभाले वह अपनी दो साल की बच्ची के संग एक नयी जंग के लिए ना जाने क्या-क्या तैयारी करेगी।

Wednesday 23 September 2020

'वर्तमान का हिन्दी साहित्य जगत' : 'एक व्यंग्य'

*☺️*
                              
        """ कोरोनाकाल में 
            हिन्दी का प्रयोग घटा है।

            *' दहशत '* की जगह 
            *' पैनिक '* शब्द आ डटा है।

            *वायरस* देखकर -
            हिन्दी शब्दों की ख़पत घटी है।

            अब हमारी बातचीत में ,
            *विटामिन-सी, जिंक,*
            *स्टीम और इम्यूनिटी है* 

            उधर *'सकारात्मक'* की जगह ,
            *'पॉजिटिव'* शब्द ने हथियाई है।

            इधर *'नेगेटिव'* होने पर भी ,
            *खुशी है ,बधाई  हैl*

            अब ज़िन्दगी में *'महत्वपूर्ण कार्य'* नहीं 
            *'इम्पोर्टेन्ट टास्क'*  हैं।
             हमारे नए आदर्श 
*अब हैंडवाश, सेनिटाइजर और मास्क हैंl*

             हिन्दी  के अनेक शब्द 
             *सेल्फ क्वारेन्टीन हैं।*
             *कुछ आइसोलेशन में हैं ,*
             *कुछ बेहद ग़मगीन हैं।*

             *मित्रों ,इस कोरोनकाल में ,*
             हमारे साथ ,
           हिन्दी की शब्दावली भी डगमगाई है।
             वो तो सिर्फ *" काढ़ा "* है ,
             जिसने हिन्दी की जान बचाई हैl


     –फेसबुक/सोशल मीडिया में हिन्दी रचना प्रस्तुत करने के दौर में अनेकानेक दौड़ में जुटे हुए हैं लेकिन उस प्रस्तुति की शुरुआत अंग्रेजी के सेन्टेंस से ही है... स्वरूचि में इतनी स्वतंत्रता तो होनी ही चाहिए..। आखिर सो कॉल्ड स्टेटस का सवाल है..।

       –टीशर्ट पर टाई लगाए या  शर्ट के साथ धोतीनुमा लोअर पहने कई पुरुष दिख जाएँगे। युवा सलवार-सूट पर स्पोर्ट्स शूज पहने नजर आ सकते हैं और जींस के साथ कोल्हापुरी चप्पलें..।
तो
   –महिलाओं के मामले में प्रयोग और भी बड़े पैमाने पर हो रहे हैं। जींस और शॉर्ट टॉप के ऊपर रंग-बिरंगा दुपट्टा ओढ़ना, लहँगा-चोली के साथ लंबा सा ओवरकोटनुमा जैकेट पहन लेना, साड़ी के साथ पगड़ी बाँध लेना, सलवार को टीशर्ट के साथ मैच कर लेना, साड़ी के साथ हाथ में बिलकुल मर्दाना घड़ी पहन लेना, धोतीनुमा लोअर के साथ लंबा कुर्ता पहन लेना।

–शाबास! फ़्यूजन का काल है। अतः हिन्दी के साथ भी फ्यूजन हो के अनेकानेक समर्थक पाए जा रहे हैं.. कोई अचरज की बात नहीं लगती है।

   –अंग्रेज तो भारत छोड़कर चले गए लेकिन उनके छाप तो यहीं रह गए..
–भारत में युवा जगत GM, gn, hmmm, k, हर चार हिन्दी शब्द के बाद एक इंग्लिश/आंग्ल वर्ड का प्रयोग करने वाले बर्ड से उम्मीद किया जा रहा है हिन्दी साहित्य में पताका फहराने की।

  –मां, वहां, आंगन, आंचल इत्यादि प्रयोग होने वाले ज़माने में...
–वाम पंथ दक्षिण पंथ में बंटा समाज..
तथा
हिन्दू-मुस्लिम जो सम्प्रदाय या समुदाय मात्र हैं जिन्हें धर्म मानना असत्य है ..रस्साकस्सी खेलने में व्यस्त हैं...

  –वर्तमान में हमने कुछ खोया है तो वह है- रिश्तों की बुनियाद। दरकते रिश्ते, कम होती स्निग्धता, प्रेम और आत्मीयता इतिहास की वस्तु बनते जा रहे हैं।

 मैले दर्पण में सूरज का प्रतिबिंब नहीं पड़ता... अतः अगर हालात जल्द वश में नहीं आये तो हिन्दी साहित्य जगत दरिद्रता की गर्त में धीरे–धीरे धंसता चला जायेगा।
और साहित्यकार पूर्वजों की आत्मा का ठगा सा रह जाना हम देख पायेंगे...।

Tuesday 22 September 2020

नेकी की सीख


"वाहः! अद्धभुत जल की स्वच्छता–पारदर्शिता थी। समुंदर के सतह की चीजें स्पष्ट दिख रही थी।" मयूरी ने कहा।

"सूर्यास्त की छवि उस वजह से ही कुछ ज्यादा मनमोहक चुम्बकीय...," मयूर की बातें पूरी होने के पहले ही मानस द्वारा अचानक लिए गए ब्रेक से कार झटके से रुक गई।
"क्या हुआ?" मयूरी और मयूर एक साथ बोल पड़े।
"थोड़ा पीछे देखो, शायद उन्हें हमारी सहायता की आवश्यकता है।" मानस ने कहा।
आज कई महीनों के बाद मित्र मयूर के समझाने पर मानस मित्र के साथ अपनी पत्नी को लेकर बाहर निकला था । घर वापसी में रात हो गई थी। रास्ते में एक कार रुकी हुई थी और उसके पास ही चार-पाँच युवा खड़े थे।
"इस भयावह काल में कई खतरे हो सकते हैं मित्र," मयूर अपने मित्र को सावधान करने की कोशिश किया।
"घर पर माँ रात्रि-भोजन लेकर प्रतिक्षारत होगीं!" मयूरी पत्नी- बहू धर्म निभा , खतरा भांप रही थी।
"बिना सहायता किये घर गया तो माँ कई दिनों तक ठीक से भोजन नहीं कर पायेगी।" मानस अपनी दृढ़ता दिखलाते हुए रुकी हुई कार चालक के पास गया।
"हार्दिक धन्यवाद अनजाने फरिश्ते! दिलों में उज्ज्वलता फैलाने हेतु।" सभी युवा अपनी गाड़ी ठीक हो जाने के कारण अति प्रसन्न थे

Monday 14 September 2020

"हिन्दी व शिक्षा!"

मम्मी बोलते-बोलते.. माँ पर क्यों आ गए..!


कैलीफोर्निया का १३ सितम्बर २०२०

सुबह *आठ बजे* चाय के मेज पर...

"कैसा रहा आपका कार्यक्रम ? कब सोईं आप? बेटे-बहू ने एक संग पूछा।

"सुबह पाँच बजे...," मेरे कुछ कहने के पहले मेरे पति शिकायत करने के अंदाज़ में कहा।
"आप सारी रात जगी रहीं .. ? हम स्तब्ध हैं और आपके स्वास्थ्य को लेकर चिंतित हैं..," बच्चों का स्वर ऊँचा हो रहा था...।
"यह कैसा नशा है तुम्हारा... भोर के साढ़े तीन बजे होने वाले कार्यक्रम में भागीदारी लेना..?" पति महोदय प्रज्जवलित हवन में घी डालने का कार्य कर रहे थे।

     ८ मार्च से अक्टूबर तक कैलीफोर्निया भारत से साढ़े बारह घंटे पीछे है समय के मामले में।
हिन्दी-दिवस के अवसर पर भारत की शाम चार बजे होने वाले दो दिवसीय अंतरराष्ट्रिय कवि सम्मेलन में शामिल होने के लिए मुझे कैलिफोर्निया की रात साढ़े तीन बजे जगना ही था।
अभी मेरा चुप रहना ही उचित था...। अमेरिका में बस रहे बच्चों का काम तो अंग्रेजी से ही चल रहा है या भारत में भी अंतरराष्ट्रीय कम्पनियों में नौकरी करने से अंग्रेजी से काम चल जाता.. आपस में दोनों अंग्रेजी में ही गिटपिट कर लेते हैं... सुबह-सुबह हिन्दी में दिया ज्ञान उन्हें ज्यादा क्रोधित करता।

 सुबह *दस बजे* नाश्ते के मेज पर
"हिन्दी को राष्ट्रभाषा क्यों बनाई जाए.. ? तर्क से मुझे बताने की कोशिश करना ...।" मेरे पुत्र ने पूछा।
"क्यों नहीं बनाई जाए उसके पक्ष में एक तर्क तुम ही दो।" अब मैं विमर्श के लिए अपने को तैयार कर ली थी।
"तुम मम्मी बोलते-बोलते.. माँ बोलने पर क्यों आ गए..! क्या तुमलोगों को याद है एक बार निजी वाहन से अहमदाबाद से सोमनाथ जाते समय तेज भूख लग गई थी... वाहन चालक ने एक जगह गाड़ी रोकी और हमें खिचड़ी भोजन कर लेने का सुझाव दिया था। हमलोग राजगढ़ खिचड़ी खाये और उसका स्वाद हमलोगों की आत्मा में बस गया..।
मुझे या यों कहो हमारे परिवार में सभी को.. खिचड़ी बेहद पसंद है... चावल दाल वाली चलती है.. तहरी सब्जी वाली दौड़ती है... घी, दही, पापड़, चोखा, आचार के संग वाली... लेकिन खिचड़ी भाषा, धोखा वाली होकर नजरों में चुभती है...।. सभी क्षेत्रीय भाषा का सम्मान करती हूँ। लेकिन आजादी अंग्रेजों से ली गई..! हिन्दुस्तान व हिन्दी लेखन में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग उचित समझने वाले... अंग्रेजी लिखते समय यह दलील क्यों नहीं दे पाते हैं कि अंग्रेजी बोलने व लेखन में हिन्दी शब्दों का प्रयोग भी उचित है..?"

मध्याह्न "ढ़ाई बजे" भोजन के मेज पर
"साऊथ के चारों राज्यों में ऑटो-गाड़ी चलाने वालों ने हिन्दी सीख रहे बोल रहे। वहाँ जाने वाले अन्य राज्यों के लोग तमिल कन्नड़ इत्यादि क्यों नहीं सीख रहे ? मेरी बहू का सवाल था।
"जिन्हें जिस देशज भाषा की आवश्यकता पड़ती है वे उस भाषा को जरुर सीख लेते हैं। मैं बहुत सारे बिहारियों को जानती हूँ जो कन्नड़ तमिल उड़िया मराठी बांगला अच्छे से बोल-समझ लेते हैं...,"
विमर्श का रूप बहस में बदल रहा था.. । घर में तनाव बढ़ रहा था।

 "तुम मेरी बहू कन्नड़ हो, अगर तुम कोंकणी ही बोलने के जिद पर अड़ी रहती तो...?"

रात्री भोजन के बाद सोने जाने के पहले का पटाक्षेप करने वाला मेरा प्रश्न मेरी ओर से था... कैलीफोर्निया में १४ सितम्बर २०२०, रात के बारह बजकर पैतीस मिनट हो रहे थे..

हिन्दी सदैव जय हो.. हिन्दी दिवस की हार्दिक बधाई

Saturday 12 September 2020

समानुपातिक

"उफ्फ!ये शनिवार कितना जल्दी आ जाता है..."

"सच में माँ! पलक झपकते दिन गुजर जा रहे हैं..। लेकिन आपको किस बात की चिंता है माँ?"

"ब्लॉग पर पोस्ट नहीं बना पायी हूँ और इस समय कोई शब्द सूझ नहीं रहा है.., बिना शीर्षक के शब्द चयन के लिंक्स चयन कैसे और क्या करूँ...,"

"ओ हाँ! 'अस्तित्व' लीजिये माँ!"

"ऑफिस में कुछ हुआ क्या माया?"

"म्ममाँआ! आप एक बात से दूसरे बात का जोड़ कैसे मिला लेती हैं? वो क्या कहते हैं दो जोड़ दो बराबर पाँच कैसे?"

"यानी कुछ हुआ है.. इसलिए तुम्हारे चेहरे पर तनाव के जंगल उभर आये हैं?"

"जब परिस्थिति इच्छानुसार न हो और हमें उसमें बने रहना मजबूरी हो तो क्या करना चाहिए?

"मजबूरी को तौलना पहले जरूरी होता है ... सिवाय पति के संग बने रहने के स्त्री के लिए कोई और मजबूरी नहीं हो सकती। स्त्री को छत छोड़ने का सलाह मैं कभी नहीं देती हूँ। एक का नकेल नहीं कस सकी तो पूरे जग से जंग नहीं लड़ सकती है।"

"जी माँ! और किसी का मन न दुखे हमारी वजह से यह सोचना कितना उचित और उसका क्या उपाय हो ?"

"अपना स्वाभिमान देखना पहले जरूरी है..., अपने ज़मीर की जबाबदारी, जबाबदेही जिम्मेदारी अपनी होती है... आँख उसी से मिलानी होती है..,"

"जी माँ! अतिशयता अत्यधिक अप्रिय लगता है और विरोध करने पर सुनवाई न हो तो...,"

"बाकी तो.. किसी को खुश करने चलो तो उसकी खुशी का दायरा बढ़ता जाता है। और कोई चीज इकतरफा नहीं चलता है।बस दुःखी होना छोड़ दो... बाकी कबीरा ने कहा ही है... 'भाँति-भाँति के लोग...,' जिंदगी यात्रा में यात्री तो मिलेंगे ही.. लोमड़ी से शातिराना, भेड़ियों से क्रूरता से सीख, शेर से चालाकी...,"

"हुर्रे, मार्ग मिल गया माँ..! मैं थोड़ी देर में मिलती हूँ।"

थोड़ी देर के बाद मिलने पर पुनः माँ बात करती है..

"नहीं जानती कि तुम्हें किस लिए मार्ग चाहिए था... मैंने वही बताया था, जो मेरे अनुभव में रहा..,"

"आपका अनुभव ही मेरा मार्गदर्शन है माँ। दुनियादारी मेरी अभी परिपक्व नहीं है। हमेशा बेवकूफ ही बन जाती हूँ। मुझे लोगों की चालाकियाँ समझ में नहीं आती है। हमेशा इमोशनल फूल बन जाते हैं और दुखी होते हैं..,"

"ऐसा नहीं है... समय से अनुभव आ जाता है... ज्ञान और शिक्षा में यही तो अंतर पता चलता है। वैसे अब बताओ हुआ क्या था..?"

"जी माँ! सहकर्मियों की एक मंडली है मुझे उस मंडली के प्रधान से कार्य विवरण की जानकारी लेनी रहती है...। प्रतिदिन मैं उससे पूछती थी कि कैसा चल रहा है वह बोलती सब अच्छा चल रहा है। आज जब मैं मंडली के अन्य सदस्यों से जानकारी ली तो वे सुस्ता रहे थे। प्रधान बोली कि केवल वो अपने कामों को पूरा करने में जुटी थी..। अभी मैं सभी को रात-दिन एक कर काम पूरा करने के लिए चेतावनी देकर आयी हूँ। वरना सबकी शिकायतें करूँगी...।"

"जब पतवार थामना हो , नौका के पाल पर नजर गड़ाये रखनी चाहिए।"


Monday 7 September 2020

बदलती राहें

कोई वर्णन उपलब्ध नहीं है.  कोई वर्णन उपलब्ध नहीं है.
दादा जी प्रात:काल जैसे ही गाँव से अपने पोते सतेन्द्र के पास पहली बार लखनऊ पहुँचे तो आदर–सम्मान की औपचारिकताओं के पश्चात् उन्होंने स्नानादि करने की इच्छा व्यक्त की।
  सतेन्द्र इस बात से भलीभाँति अवगत था, अतः उसने अपनी पत्नी से कहा, "दादाजी पक्के कर्मकांडी ब्राह्मण हैं, और वो बिना नहाये–धोये, पूजा–पाठ किये जल तक ग्रहण नहीं करते, सो दादा हेतु उनके स्नान, ध्यान की पूरी व्यवस्था कर दो।" इतना कहकर उसने पुनः घर मे बनाये मंदिर की साफ–सफाई करने हेतु कहा और यह भी कहा, "वहाँ ताँबे के लोटे में गंगाजल मिश्रित जल भी रख दे।"
  व्यवस्था पूरी होते ही दादा जी स्नान गृह से राम-राम का उच्चारण करते हुए बाहर निकले और बोले,"बहू! मंदिर में पूजा–पाठ की व्यवस्था कर दी है न?"
 "हाँ दादाजी!"
      दादा जी मंदिर में अपनी पूजा–पाठ से निवृत होकर पोते द्वारा बताए गए कमरे में पहुँचकर नाश्ते की प्रतीक्षा करने लगे। कुछ ही क्षणों में उनकी बहू नाश्ता लेकर दादाजी के सामने नष्ट रखकर बोली, "दादा जी! नाश्ता कर लीजिए और किसी चीज की जरूरत हो तो पुकार लीजिएगा।"
  अभी पहला कौर भी मुँह में नहीं जा सका था कि उनकी दृष्टि कमला बाई पर पड़ी... उन्होंने तुरंत बहू को आवाज दी। बहू के आते ही उन्होंने कहा, "ये औरत कौन है?"
    "बाई है।"
    "मतलब?"
    "घर का चौका–बर्तन करती है...।"
    "और तुम?"
   "बाकी काम मैं देख लेती हूँ... मुझे ऑफिस भी तो जाना होता है।"
यह सुनकर दादाजी का मुँह कसैला हो गया... फिर भी उन्होंने पूछा, "बेटा! यह किस जाति की है?"
   "दादा जी शहर में तो आजकल जाति–पाँति का कोई अर्थ नहीं रह गया है..., फिर भी जहाँ तक मैं जानती हूँ यह दुसाध जाति की है।"
  "सत्यानाश! तुम लोगों ने मेरा धर्म भी भ्रष्ट कर दिया...।"
  "वो कैसे...?"
   "नीच जाति से खाना बनवाकर...।"
        "दादा जी! आप बुरा न मानें तो यह बताएँ, मैं नौकरी छोड़ दूँ? क्योंकि बिना दूसरे के सहयोग से तो मुझ अकेली से यह संभव नहीं है। फिर शहर में अब यह सब नहीं चलता। सब लोग मिलजुल कर ऑफिस में साथ–साथ खाते–पीते हैं। चाय कौन बनाता है बाज़ार में... कोई नहीं जान पाता... फिर बहु आप कहें तो मैं नौकरी छोड़कर...।"
    दादा जी काफी देर चुप शांत विचार मगन हो गये... कुछ नहीं बोले और धीरे–धीरे नाश्ते के कौर अपने भीतर डालने लगे।
     दरवाजे की ओट से देखकर बहू ने चैन की साँस लिया और ऑफिस जाने की तैयारी करने लगी।



दुर्वह

“पहले सिर्फ झाड़ू-पोछा करती थी तो महीने में दो-चार दिन नागा कर लिया करती थी। अब अधिकतर घरों में खाना बनाने का भी हो गया है तो..” सहायिका ने ...