Saturday 30 October 2021

...अंधेर नहीं हुआ!


"अपने सृजन का कबाड़ा करती ही हो। अन्य लेखक की रचनाओं में अपनी ओर से अन्तिम पँक्ति जोड़कर रचना को कमजोर कर दिया.., वरना कलम तोड़ थी!"

"तुम क्या जानों, रचना की आत्मा कहाँ बसती है..!"

"थोथा चना...! तुम जैसे सम्पादक-प्रकाशक की नज़रों में पाठक-समीक्षक तो गाजर मूली होते हैं!"

"क्या मैंने लेखक गाँव है, जिसको गोद लिया है?"

"मित्रता के आड़ में आँखों में धूल झोंक देना आसान होता है। अरे! मैं मित्रता की बात कहाँ से उठा लायी। वो तो अनजान था जो तुम्हारा चक जमा सुनकर आ गया था।"

"ऊंह्हह्ह! क्या मैंने उसे न्योता भेजवाया था?"

"गाँठ के पूरे, आँख के अंधे! उसके गिड़गिड़ाने का लिहाज़ कर, दो-तीन हजार कम कर देने से..,"

"क्या मैं तुम्हें मन्दिर की दानकर्त्री नजर आ रही हूँ। अपने और अपनों के पेट पर गमछा बाँध कर रहती।"

"समुन्दर पाटकर पुल-मकान बन जायेगा। तुम जैसों का पेट भर जाए तो कोई आत्महत्या ही ना करे।"

"घोड़ा घास से यारी..,"

"अरे! उतना ही होता तो तुम पुस्तकों के कुतुबमीनार पर सिंहासन नहीं लगा पाती...,"

"सभी गर्दन ऊँचीकर बात करते..,"

"अंधे के हाथ बटेर लगा। काश! उनके बातों में सम्मान भी होता..,"

बात पूरी होने के पहले पुस्तकों का कुतुबमीनार हिल गया और मैं धड़ाम से पुस्तकों के नीचे दब गयी। साँसों का साथ छूटने के पहले मेरी आँखें खुल गयीं। कमरे के चौसीमा में नजरें दौड़ाई तो जीवन रक्षक यंत्रो की भीड़ दिखी। परिचारिका की बातों से लगा कि मुझे नयी जिन्दगी मिली है।


Thursday 28 October 2021

'चालाकी'

 


किसी भी कार्यक्रम में समय के पहले पहुँचने की आदत होने से ज्यों ही देर होने लगती है हड़बड़ाहट हो जाती है। जब ओला की गाड़ी ने रफ्तार पकड़ी तब ध्यान आया कि खुदरा पैसा बैग में नहीं है। केवल पाँच सौ वाले रुपये हैं..।

"क्या आपके पास पाँच सौ का खुल्ला पैसा है?" चालक से मैंने पूछा।

"नहीं मैडम जी। आज सुबह से जितनी सवारी बैठी सबने पाँच सौ का ही नोट दिया और खुल्ला खत्म हो गया।" चालक ने कहा।

"ओह्ह! अब कैसे काम चलेगा?" मैंने व्याकुलता में कहा।

"किसी दूकान में खुल्ला करा लेते हैं।" चालक ने कहा। सड़क के किनारे गन्ने का जूस, गोलगप्पे, चाट-मोमोज बेचने वाले चार-पाँच रेहड़ी वालों से पाँच सौ का खुल्ला पूछने पर इंकार मिला।

आखिरकार मैं ने भाई मो नसीम अख़्तर जी को फोन किया कि "मुझे पाँच सौ का खुल्ला चाहिए। उसमें भी साठ रुपया जरूर हो। वैसे मुझे अट्ठावन ही देना है।"

"ठीक है! आप आइये, हो जाएगा। मेरे पास खुल्ला है।"

"शुक्रिया भाई।"

आयोजन स्थल के थोड़ा पहले चौराहा पड़ा। जहाँ पानी वाला नारियल का ठेला लगा था। गाड़ी रोककर चालक उतरा साठ रुपया का नारियल पानी पी लिया। जब हम आयोजन स्थल पर पहुँचे तो वह मुझसे नारियल वाला पैसा मांगने लगा।

"गरीब हूँ! मैं नारियल का पैसा कहाँ से दूँगा?"

"तुम गरीब हो तो अपने बच्चे के लिए के कॉपी-कलम खरीद लेेते । मैं तुम्हें पूरा पाँच सौ दे देती।


Tuesday 19 October 2021

चालाकी कि धूर्तता

लघुकथा लेखक द्वारा आयोजित 'हेलो फेसबुक लघुकथा' सम्मेलन का महत्त्वपूर्ण विषय 'काल दोष : कब तक?' था।

आमंत्रित मुख्य अतिथि महोदय डॉ. ध्रुव कुमार, डॉ. सतीशराज पुष्करणा के विचारों को उदाहरण में रखते हुए अपने विचारों को रखा कि काल-खण्ड दोष से बचना चाहिए। सारिका में छपे स्व रचित दो लघकथाओं का पाठ भी किया। जिमसें काल दोष से बचाव नहीं हो सका था।

अध्यक्षता कर रहे अतिथि महोदय को अपनी बात दृढ़ता से रखने का आधार मिल गया। उन्होंने कहा कि "हम अगर काल दोष को अनदेखा ना करें तो उम्दा लघुकथाओं से पाठक वर्ग वंचित रह जायेगा। देखिए सारिका में छपी लघुकथा में काल दोष है लेकिन भाव सम्वेदनाओं से परिपूर्ण लघुकथा एक ऊँचाई पा रही है।

  अब बारी आयी विभा रानी श्रीवास्तव की, कहना पड़ा कि इतने वरिष्ठ जनों के सामने क्या बोलूँ.., बस! एक उदाहरण देती हूँ जो आपलोग अवश्य पढ़े होंगे, मधुदीप जी की लिखी कथा 'समय का पहिया' (विश्वास था कि उपस्थित में से कोई पढ़ा नहीं होगा)। अगर लघुकथा में डायरी विधा , पत्र लेखन या यादों को शामिल किया जाए तो काल दोष से बचा भी जा सकता है और उम्दा लघुकथाओं को पाठक के सामने लाया भी जा सकता है। वैसे ना तो सभी पाठक और ना पुस्तक, पत्रिका, समाचार पत्र के सभी सम्पादक विधा के पारंगत होते हैं। वैसे भाई जान! लघुकथा से ही पाठक को क्यों सन्तुष्ट करना। लघु कथा से भी पाठक सन्तुष्ट हो जाते हैं।

    अगर हम लघुकथा के प्रति समर्पित हैं तो उसके दिशा निर्देश और अनुशासन मानने के प्रति भी प्रतिबद्धता रखेंगे।

राजनीत

 "वाह। बहुत खूब। इतना विशाल आयोजन..! आयोजक संयोजक को बधाई के संग साधुवाद। सफल कार्यक्रम रहा। मंच संचालन का तो क्या कहने..,"

"हार्दिक धन्यवाद। सच कह रहे हैं। मुख्य-अतिथियों का दो-तीन घण्टे विलम्ब से पहुँचना.., प्रशंसा के पात्र थे संयोजक महोदय जो थोड़ी-थोड़ी देर पर मंच से समय से पहुँचे को अवगत कराते रह रहे थे..,"

"उतना त स्वाभाविक है। इतना त मानकर चलना..,"

"मंच संचालक की कुशलता को दाद देनी चाहिए। कितना अध्ययन किया होगा..। नेपाली, दिनकर, इन्दौरी साहब, कबीर, मीर की चार-चार पँक्तियों को सहेजना और उनका सफलता से प्रयोग करते हुए। लगभग सात-आठ घण्टे में सात-आठ प्रतिभागियों को मंच पर मौका देना। बहुत बड़ी बात है। पीड़ या पीर..,"

"अगले मतदान में मनचाहा पार्टी से टिकट मिल जाने का पक्का इंतजाम हो गया है।"

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–अपनों में अपने संग केवल अपनी आत्मा रहती है...!

Thursday 14 October 2021

पल्लवन

बाड़ छाया की

आँगन से वापसी

गुल अब्बास

सूर्य की छाया

स्तुति जल में दृश्य

आँखों में आँसू

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'"दादा ने मुझसे कहा था कि जब मैं मेडिकल में नामांकन करवाने जाऊँगी तो वे मेरे साथ जाएंगे।"

"तो क्या हुआ, वे नहीं गए तुम्हारे साथ?"

"परिणाम आने के पहले वे मोक्ष पा गए।"

"ओह्ह!"

"बाबा के श्राद्धकर्म के बाद उनका बक्सा खोला गया तो उसमें लगभग चार लाख रुपया था और दादा की लिखी चिट्ठी। जिसमें लिखा था मुनिया की शिक्षा के लिए।"

"वाह! यह तो अच्छी बात है। तुम्हारी पढ़ाई में आर्थिक बाधा नहीं आएगी।"

"बाधा नहीं आएगी, मेरी माँ ने वादा किया है। उस रुपया को मेरी फुफेरी बहन की पढ़ाई के लिए देते समय।"

"क्या तुम चिन्तित हो?"

"नहीं! बिलकुल भी नहीं।"

"फिर?"

"आप इस बार हमारे घर में स्थापित नहीं होंगी। इसलिए तो मैं आपसे अपनी बात कहने कुम्हार काका के घर आयी हूँ। आप जगत जननी हैं। मेरी जननी का साथ दीजियेगा।"

"कर भला...,"


Saturday 9 October 2021

पितृपक्ष

"हम एक ही प्रजाति के थे। तुम बौना रह जाते थे तब भी महंगे दामों में खरीद लिए जाते। हम विस्तार पाए रहते थे तब भी सस्ते दामों से बामुश्किल किसी चौके के छौंक तक पहुँच पाते थे,"

"भले हम कद में बौने होते, स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नहीं होते थे।"

"हम अपना दर्द दिखाएं किसे और छुपा लें किनसे..!"

"बछड़े या पड़वा को दूध पिलाया जाए तो भी हमारा दूध नहीं उतरता था। ऑक्सिटोसिन के स्थान पर डिस्टिल वाटर का इंजेक्शन भी दूध उतारने में सहायक हो गया।"

"यम महाराज हमारी विनती पर गौर करें, इन मानवों को ऑक्सिटोसिन का इंजेक्शन ही दिया जाए।"

 " मैं तो आया हूँ- देवि बता दो

जीवन का क्या सहज मोल

भव के भविष्य का द्वार खोल

इस विश्वकुहर में इंद्रजाल

अचकचाकर उसकी आँख खुल गयी। सपने से मानों विलीनता के कगार से लौटी हो का शरीर पसीने से गीला था। वह तो कामायनी पढ़ते हुए सो गयी थी।

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हाँ!

किस्सा

भू लिप्सा

द्यौ का दित्सा

मेघ का कुत्सा

आँखें प्यासी रही

सिन्धु ना दे स्व हिस्सा। {01.}

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ज्जा!

सम

असम

मेघ नम

भू का दम है

व्योम को गम है

राहत व आफत। {02.}

Tuesday 5 October 2021

पचहत्तर वीं जयन्ती के महोत्सव के अवसर पर



बदबू'

डॉ. सतीशराज पुष्करणा

"क्या बात है? ... आजकल दिखाई नहीं देते हो?"

"क्या बताऊँ यार! बहन के लिए लड़का ढूँढ़ने में ही आजकल परेशान कभी यहाँ तो कभी वहाँ। बस! दौड़-धूप में ही समय को नाप रहा हूँ।"

"भई ! लड़कों की ऐसी क्या कमी है?"

"कमी तो नहीं किन्तु सुरसा की तरह बढ़ता दान-दहेज... बस, यही चिंता खाये जा रही है।"

"अगर यह बात है तो तुम अपने को परेशानियों से आजाद ही समझो।"

"क्या!... क्या मतलब?"

"हाँ! तुम मेरे अनुज पर विचार कर सकते हो। वह पढ़ा-लिखा, सुन्दर स्वस्थ और होनहार युवक है। फिर नौकरी भी अच्छी है। तुम्हें दहेज वगैरा कुछ भी नहीं देना पड़ेगा। और हमारी दोस्ती भी रिश्ते में बदल जाएगी।"

"क्या बकते हो तुम!... अरे कभी यह तो सोचा होता... कहाँ हम उच्च जाति के और कहाँ तुम!... दोस्ती का हरगिज यह अर्थ तो नहीं कि तुम हमारी इज्जत से ही खेलने लगो।"

"तुम तो बुरा मान गए। मैं तो तुम्हारे विचारों के अनुरूप ही बात कर रहा था जिन्हें तुम अपने साहित्य के माध्यम से व्यक्त करते रहे हो।"

अचानक उसका चेहरा फक्क हो गया और जल्दी ही वह फिर सम्भल भी गया।

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समीक्षा

विभा रानी श्रीवास्तव, पटना

यार कहने कहलाने में कोई परेशानी नहीं! गहरी मित्रता तो है लेकिन रिश्तेदारी में नाक का सवाल आ जाता है..। मानवीय मूल्य और मनःस्थिति दोनों में ही मानव के व्यवहार को प्रेरित करने की क्षमता होती है। यों तो सामान्यतया मूल्य मनःस्थिति को उत्पन्न करती है। परन्तु कभी-कभी विशिष्ट परिस्थिति में मनःस्थिति मूल्य का निर्धारण करती है। जिस मानव के हृदय में ईश्वरीय गुण (ह्यूमैनीटी, वैल्यूज़) है, वो ही बड़े होने का सम्मान भी पाने लगता है। लेखक के लेखन में वो झलकता है जो

दरिया हो या पहाड़ हो टकराना चाहिए 

जब तक न साँस टूटे जिए जाना चाहिए 

~निदा फ़ाज़ली

के शेर से हमें जानने को मिला।

  समाज में फैला कोढ़ का दाग बना दहेज प्रथा, जीव-सम्पदा को नष्ट करता प्रदूषण का विषैला जहर सा जाति भेद... कर्म के आधार पर बंटा, मानव को मानव से बड़ा-छोटा के वर्ग में बाँटता और सबसे ज्यादा खतरनाक साहित्यकार का लेखन और व्यवहार में दिखलाई देता उसका दो-चित्तापन। 

       लेखक के द्वारा बूँद में सिंधु को समो दिया गया है .. प्रयोगशीलता के रूप सफल तीन-तीन मुद्दों को जो आज पूरे भुवन में सड़ान्ध फैलाये हुए है, बिना किसी भूमिका के सहारे सिर्फ कथोपकथन शैली में चुस्तदुरुस्त नपे तुले शब्दों में सांचे में ढली मूर्ति सृजन में से ना तो एक शब्द भी अलग किया जा सकता था और ना एक शब्द अतिरिक्त जोड़े जाने की गुंजाइश दिखलाई पड़ी। सुष्ठु तथा कालोचित लेखन का सटीक उदाहरण।

   –जी हाँ मैं बात कर रही हूँ डॉ. सतीशराज पुष्करणा द्वारा लिखित बदबू सटीक शीर्षक वाली लघुकथा की। जब हमारी आत्मा मर जाती है तो हमें किसी बदबू का अनुभव नहीं होता है। वरना हम एक बदबूदार काल में हिस्सेदार बन मरे पड़े नहीं होते।

 नेता भ्रष्ट, बदबूदार हैं । अभिनेता अंडरवर्ल्ड से मिलकर बदबूदार हैं। ऊँच पदाधिकारी से लेकर जो भी रिश्वतखोरी करते, बदबूदार हैं। दुकानदार मिलावट कर बदबूदार हैं। हम और आप झूठ बोलते हैं , दूसरों का हक़ मारते हैं , अनैतिक काम करते हैं -- क्या हम सभी बदबूदार नहीं  हैं? जब यह सारा काल बदबूदार है, यह समाज बदबूदार है ,  ऐसे में यदि हमको-आपको अब भी बदबू नहीं आ रही है तो क्या यह स्वाभाविक है?

   लेखक जैसा सभी को नाक मिल जाए तो बड़ी आसानी हो जाती! सबकी नज़रिया बदल जाती और हमारे आसपास की दुनिया अपने आप बदलने लगती वरना बखिया उधेड़ कर रखा जाता।

वैसे सामान्यतया मानव स्वभाव है कि वो वैसा ही व्यवहार करेगा कि लोगो की नज़रों में उसे बड़प्पन का सम्मान मिलता रहे चाहे हाथी का दाँत ही सही।

कथानक शिल्प में शीर्षक का उल्लेख ना होना और शीर्षक से लेखन को शीर्ष स्थान मिलता देखकर मैं बेहद रोमांचित हो जाती हूँ।

Saturday 2 October 2021

संस्कार


"क्या ग्रैंम स्क्वायर से बात हो गयी तुम्हारी?" शाम को कार्यालय से लौटा मधुर ने अपनी पत्नी मिन्नी से पूछा।"

"अभी तो भारत में पौ फटा होगा और वो शायद जगी हों। आप कपड़े बदलकर आ जाएं। वीडियो कॉल करती हूँ।" मिन्नी ने कहा।

"किनसे क्या बात करनी है?" मिन्नी की माँ ने पूछा।

"महामारी काल में मधुर के दादा अनाथ हो गए थे, उनको सहारा मिला। मधुर के पिता, चाचा तथा बुआ को दादी की ममता उनसे भरपूर मिला। मधुर के दादा के समकालीन अनेकोनेक बच्चों को उनसे माँ के आँचल की छाँव मिली।"

"महामारी काल को बीते लगभग साठ साल हो गए। तीसरी पीढ़ी इस बात को याद रखे। मैं स्तब्ध हूँ।" मिन्नी की माँ ने कहा

"याद ही नहीं रखे माँ। किसी को किसी परेशानी का हल ढूँढ़ना हो, किसी की शादी हो, किसी बच्चे का अन्नप्राशन हो, किसी का गृहप्रवेश हो , किसी का नया काम शुरू.. मुहूर्त उनसे ही पूछा... मधुर आ गए मैं उन्हें वीडियो कॉल लगाती हूँ.., हमें भी कुछ...,"

"सुप्रभात! ग्रैंम स्क्वायर! आप कैसी हैं?" मधुर और मिन्नी ने संग-संग कहा।

"सस्नेहाशीष संग शुभ सन्ध्या मेरे बच्चों!" वीडियो कॉल पर दमकता चेहरा उभरा।

"मैंने कहीं पढ़ा है कि महामारी काल में रोबोट में इमोशन्स भरने की बात चल रही थी...," मिन्नी की माँ की बुदबुदाहट किसी के कानों तक नहीं पहुँच पायी।

काली घटा

“ क्या देशव्यापी ठप हो जाने जाने से निदान मिल जाता है?” रवि ने पूछा! कुछ ही दिनों पहले रवि की माँ बेहद गम्भीररूप से बीमार पड़ी थीं। कुछ दिनो...