Friday 29 March 2024

अनुभव के क्षण : हाइकु —


मंजिल ग्रुप साहित्यिक मंच {म ग स म -गैर सरकारी संगठन /अन्तरराष्ट्रीय संस्था के} द्वारा आयोजित अखिल भारतीय ग्रामीण साहित्य महोत्सव (५ मार्च से १३ मार्च २०२४) में १२-१३ मार्च को शामिल होने का मौक़ा मिला! मेरे एक नाम में रूप अनेक थे 

—देश-विदेश की लगभग १०४५ संस्थाओं में से तृतीय स्थान प्राप्त करने वाली लेख्य-मंजूषा की अध्यक्ष (भीड़ में तन्हा : कहे के त सब केहू आपन आपन कहावे वाला के बा, सुखवा त सब केहू बाँटे दुखवा बटावे वाला के बा...) सम्मान ग्रहण कर्त्ता

—मगसम:१७९९९/२०२१, पटना की संयोजक

—लेख्य-मंजूषा संस्था प्रायोजक थी तो उसकी प्रतिनिधित्वकर्त्ता

—लघुकथा-हाइकु की अध्येता

“जैसा हम जानते हैं कि हाइकु तीन पंक्ति और ५-७-५ वर्ण की रचना,”

“जापानी कविता है..”

“जापानी और कविता इन दोनों होने वाली बातों से मेरी सहमति नहीं है…! हम यह क्यों ना माने कि वेद में ५ वर्णी और ७ वर्णी ऋचाएँ होती हैं! बौद्ध धर्म के संग वेद भी भ्रमण के दौरान जापान गया हो और सन् १९१६ में रवीन्द्रनाथ टैगोर के संग घर वापसी हुई हो! समय के साथ रूप बदलना स्वाभाविक है और आज सन् २०२४ में भी प्रवासी कविता क्यों कहलाए! 

—हाइकु पर हाइगा बनता है जिसमें कल्पना की कोई गुंजाइश नहीं और बिना कल्पना कविता कैसी…!

उदाहरणार्थ प्रस्तुत है—


Monday 25 March 2024

शिकस्त की शिकस्तगी


“नभ की उदासी काले मेघ में झलकता है ताई जी! आपको मनु की सूरत देखकर उसके दर्द का पता नहीं चल रहा है?”

“तुम ऐसा कैसे कह सकते हो, मैं माँ होकर अपने बेटे का दर्द नहीं देख पा रही हूँ! हनुमान जी की तरह मेरा कलेजा फटे तब न तुमलोगों को विश्वास होगा…!”

“माँ! फिर आप रंगोत्सव की तैयारी क्यों नहीं करने दे रही हैं?”

“तुम्हारे दादा को गुजरे महीना नहीं लगा और तुम्हारे पिता का श्राद्धकर्म तीन दिन में कर दिया गया तब न, अभी पंद्रह दिन…,”

“दादा की अर्थी बारात की तरह श्मशान तक गयी। सभी चर्चाकर रहे थे कि ऐसी मौत ख़ुशियाँ देती हैं। और मेरे पिता की आत्महत्या पर भी चर्चा चल रही थी कि धरती का बोझ मिटा…! घर-परिवार से समाज तक सभी शराब के नशे में उनके अवगुणों के प्रदर्शन से त्रस्त थे।सरकारी शराबबन्दी बस कागज़ तक क़ैद है।”

“बेटा? लोक-लिहाज़…,”

“माँ! महान बनने के चक्कर में स्त्रियाँ स्वयं की बलि चढ़ाती रहती हैं!”

“अच्छा! अच्छा। जाओ चाची से कहना रात के भोजन में कढ़ी-बड़ी और चावल बनवा ले और बिना नमक वाली पाँच बड़ी बना लेगी होलिका-दहन में डलवाने के लिए।”

होली की शुभकामनाएँ

रंगों की झड़ी–
खिड़की से झलके या ड्योढ़ी के उस पार
टेसू झकोरा


Friday 22 March 2024

बिहारी की कढ़ी-बड़ी


 ‘कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी’ के तर्ज़ पर बिहार के किसी-किसी इलाक़े {मेरे मायके में नहीं बनता है लेकिन ससुराल में बनाया जाता रहा है} में दीवाली की शाम और होली के एक दिन पहले होलिका जलाने की शाम में चावल और बड़ी-कढ़ी बनाने का रिवाज़ है। सभी के शरीर से उतरे उबटन के संग बिना नमक डाले पाँच बड़ी जलते होलिका में डाली भी जाती है। यूँ तो बड़ी-कढ़ी गर्मी-बरसात भर भी बनती रहती है, लेकिन सावन में कढ़ी का सेवन करना वर्जित माना जाता है।

कुछ वर्षों पहले एक होलिका जलने वाली शाम के नाश्ते में बड़ी ही बना देने के लिए घर में जितना बेसन था सबको घोलकर मेरी बड़ी देवरानी छानने लगी और मेरे बेटे तथा अपने बेटे को ज़िद कर नाश्ता करने के लिए बैठा दी।

  (मुझे एक बेटा और देवरानी को दो बच्चे, उसका बेटा, मेरे बेटे से डेढ़ साल बड़ा तो बेटी लगभग साढ़े तेरह महीने छोटी। तीनों बच्चे एक संग पले थे। दोनों बेटों में गहरी दोस्ती रही। हमारा संयुक्त परिवार था तब सास-ससुर भी थे…। होली-छठ में सबका जुटान होना सुनिश्चित था।) 

बड़ी देवरानी बड़ी छानती जा रही थी और भेजती जा रही थी… बड़ी का घोल समाप्त हो गया तो वो हाथ धोकर चौके से बाहर आ गयी और देखा कि दोनों बेटे ख़ाली तश्तरी लेकर बड़ी की प्रतीक्षा कर रहे हैं…! बड़ी की जगह बड़ी देवरानी को देखकर दोनों के बेटे हँस पड़े।

ससुर जी, मेरे पति, दोनों देवर, देवर की बेटी, सासु जी, छोटी देवरानी, उसका बेटा और मैं तो बड़ी चखे भी नहीं हैं…

“ऐसा कैसे हो सकता है?” देवरानी लगभग चीख ही पड़ी। वो बेहद स्तब्ध थी!

“अगली बार से हमें ज़िद करके कोई ऐसी चीज खाने के लिए मजबूर नहीं कीजिएगा चाची-माँ जो हमें पसंद ना हो! हम बड़ों की बात टालकर अवज्ञा नहीं कर पाते हैं और मेरी माँ कहती हैं कि ना कहना अनाज का भी अपमान होता है! आख़िर ज़िद करने वाले बड़ों को सिखलाया कैसे जाये।”

“कढ़ी में आयरन की भरपूर मात्रा होती है.. इसके सेवन से शरीर में हीमोग्लोबिन को बढ़ाने में मदद मिलती है और शरीर भी स्वस्थ रहता है.. कढ़ी बहुत लाभदायक होती है.. इसका सेवन त्वचा संबंधित समस्याओं से निजात दिलाने में मदद करता है…,” मेरी बात पूरी भी नहीं हो सकी,

“बस! बस बस! माँ! बेसन लाने किसी को भेजो! सभी प्रतीक्षा में हैं! और आप कहती हैं ‘अप रूपी भोजन, पर रूपी शृंगार’ हमें उसका हलवा बेहद पसंद है…!” 

“धत्त तेरे की। दोनों बाबूलोग मेरे उम्मीद पर पानी फेर दिए। मैं चुपके से आज कढ़ी-बड़ी बनाना सीख लेती लेकिन…,” छोटी देवरानी ने कहा।

“हा! हा! छोटी मम्मी आपका तो अभिमन्यु सा हाल हो गया…,” बड़ी देवरानी की बेटी ने कहा।

“दीदी! आप हमें कढ़ी-बड़ी बनाना बता दीजिए! मेरी बनायी कढ़ी फट जाती है तो बड़ी कड़ी रह जाती है!” छोटी देवरानी ने कहा।

“खट्टी कढ़ी पसन्द आती है देवर जी को। दही को खट्टा बनाने के लिए जमे हुए दही को कुछ घंटों के लिए कमरे के तापमान पर रख देना चाहिए। कढ़ी बनाने के लिए कमरे के तापमान पर दही का उपयोग करना चाहिए। बस उसे 3-4 घंटे पहले फ्रिज से निकाल लो ताकि यह ठंडा न हो… यदि आप ठंडे दही का उपयोग करते हैं, तो गर्म करने पर वह फट जाएगा और दानेदार हो जाएगा।

बड़ी कड़ी ना हो उसके लिए बेसन ताज़ा हो  और खूब फेंटा गया हो तथा घोल ना बहुत पतला हो और ना बहुत गाढ़ा हो। घोल पूरी तरह से फेटना हो गया है या नहीं इसको जाँचने के लिए किसी गिलास या कटोरी में पानी लेकर उसमें एक बड़ी खोटने पर पता चल जाता है। अगर फेटना हो गया है तो बड़ी पानी के ऊपरी सतह पर आ जाएगी और अगर फेटना नहीं हुआ है तो पानी के निचली सतह पर रह जाएगा । घोल में नमक बड़ी छानते समय मिलाना चाहिए।

एक टोटका तुम्हें बताऊँ ‘बेसन में पानी डालने के बाद जब उँगलियों को डालकर दाहिने तरफ चलाओ तो फिर उसे वापिस उलटा बायीं ओर ना करना।”

“सब डायरी में लिख ही लेती हूँ, चक्रव्यूह भेदन के समय भूल ना जाऊँ…” खिलखिलाते हुए छोटी देवरानी ने कहा।

लिख लो बड़ी बनाने के लिए : सब जुटें तो मन से बनाना यूँ ही अच्छा बनेगा…

सामग्री

1 कप बेसन

1/4 चम्मच हल्दी

1/8 चम्मच हींग

चुटकी भर खाने वाला सोडा

स्वादानुसार नमक

आवश्यकतानुसार पानी

आवश्यकतानुसार तलने के लिए तेल


कढ़ी के लिए:

1 कप दही

1/2 कप बेसन

1/2 चम्मच हल्दी

1 चम्मच लाल मिर्च पाउडर

आवश्यकतानुसार पानी

2 चम्मच तेल

स्वादानुसार नमक

1/2 चम्मच सरसों के दाने

1/2 चम्मच जीरा

दो-तेजपत्ता या 10-12 करी पत्ते

1/2 चम्मच लाल मिर्च पाउडर

1 सूखी लाल मिर्च

-तले बड़ियों को एक बर्त्तन में रखे पानी में डालकर 5 मिनट भिगोकर पानी से बाहर निकाल देती रहना।

-कढ़ी को लगातार चलाती रहना… (उबाल आ जाने से रिश्ते फट जाते हैं…) जिससे तुम्हारे श्रम में बचत होगी..”

“दादा अक्सर कहते रहते हैं ‘गिथिन के बड़ी’ वो क्या है?” 

“उसके बारे में फिर कभी…”

Wednesday 20 March 2024

आसमान में सुराख


“यह समीक्षाओं की छ खण्ड वाली पुस्तकें हैं जिनका प्रकाशन बेहद कम मूल्य में किया गया है!” वरिष्ठ अतिथिगण लोकार्पित पुस्तकों के संग तस्वीर उतरवा रहे थे और मंच संचालक अबीर से लेखक के चेहरे पर इंद्रधनुष बना रहे थे…! मौक़ा था राष्ट्रीय ग्रामीण साहित्य महोत्सव में प्रतिभागी लेखक के पुस्तक लोकार्पण का…।

“लेखक महोदय अंजनेय भक्त हैं! अधिकांश समय मन्दिर में गुज़ारते हैं और मन्दिर के चढ़ावे में जो राशि मिलती है उसको ऐसी पुस्तकों को प्रकाशित करवाने हेतु प्रकाशक को सौंप देते हैं…?” मंच संचालक के इतना कहते ही पूरे सभागार में तालियों की गड़गड़ाहट से विस्फारित आँखें वापिस लौटने लगीं!

“इन पुस्तकों को क्या कीजिएगा?” दर्शक दीर्घा से किसी ने प्रश्न किया!

“बाँट दो।” लेखक ने कहा।

“क्या?” किनकी-किनकी आवाज़ गूँजी पता नहीं चला लेकिन उसके बाद दर्शक दीर्घा में सुई गिरती तो शोर मचा देती। सभी पलकें गिराना भूल गए थे। सबका मुख इतना खुला था कि भान हो रहा हो ऐसे ही किसी के मुख में हनु सूक्ष्म रूप में टहल आये होंगे…।

थोड़ी देर में ही सभी पुस्तकों के आधे मूल्य की राशि पुनः लेखक के हिस्से में थीं। अध्यात्म के जुगनुओं ने सभागार से मंच तक कब्जा कर लिया था।


यह चयनित होना आदरणीय सुधीर सिंह जी मंच संचालक और आदरणीय गिरीश ओझा जी लेखक को समर्पित

Sunday 17 March 2024

दुर्वह


“पहले सिर्फ झाड़ू-पोछा करती थी तो महीने में दो-चार दिन नागा कर लिया करती थी। अब अधिकतर घरों में खाना बनाने का भी हो गया है तो..” सहायिका ने कहा।

“दो-चार दिन कि छ-आठ दिन..!” रूमा ने व्यंग्य से कहा।

“इस बार एक मुश्त की छुट्टी छठ में चार-पाँच दिनों की…,” सहायिका दबे ज़ुबान में भी बात पूरी नहीं कर सकी।

“अरे तू छठ किसलिए करती है तुझे कौन सा बेटा है! एक बेटी ही तो..,” रूमा ने गुर्राते हुए कहा।

“जी मालकिन चाची! उसी बेटी के लिए छठ करती हूँ… बड़े जप-तप से माँगल बेटी है। बेटी को किसी चीज की कमी ना हो, अच्छी पढ़ाई कर सके, इसलिए आपलोगों के घरों में चाकरी-काम करती हूँ…!” सहायिका के स्वर में मान झलक रहा था।

“एक दिन मैं अपनी बेटी को लेकर काम पर आ गयी थी। मेरी बेटी के विद्यालय में अभिभावक-अध्यापक की गोष्ठी थी। मेरी बेटी विद्यालय की पोशाक में थी। मालकीन माँ ने उस दिन मुझसे काम नहीं लिया और समझाया, बेटी को अपने काम के घरों में लेकर मत आया करो…!” सहायिका ने पुनः कहा।

“बेटी दूसरे के घर चली जाएगी..,” रूमा की व्यंग्य भरी बातें सहायिका को नागफनी पर चढ़ा रही थी।

“तो क्या हो जाएगा.. वक्त पड़ने पर अपनी माँ की तरह काम आएगी। क्या आप जानती हैं हमारी सहायिका तीन बहन छ भाई है…! जब इसके पिता गंभीर बीमारी से जूझ रहे थे तो उन्हें यही अपने पास रख लाखों खर्च कर इलाज़ करवायी है। कितना भी पौ फट जाये हमारी ही आँखें नहीं खुलती है!” सहायिका को उबारते हुए पुष्पा ने रूमा को चेताया।

छतरी का चलनी…

 हाइकु लिखने वालों के लिए ०४ दिसम्बर राष्ट्रीय हाइकु दिवस के रूप में महत्त्वपूर्ण है तो १७ अप्रैल अन्तरराष्ट्रीय हाइकु दिवस के रूप में यादगा...