“क्या देशव्यापी ठप हो जाने जाने से निदान मिल जाता है?” रवि ने पूछा!
कुछ ही दिनों पहले रवि की माँ बेहद गम्भीररूप से बीमार पड़ी थीं। कुछ दिनों तक वेंटिलेटर पर रहना पड़ा था। आज वह अपनी माँ को पुनः जाँच के लिए अस्पताल लेकर गया था तो पाया कि सभी हड़ताल पर हैं।
“सांप्रदायिक हिंसा, पैशाचिक कुकर्म अब यह सब समाज में बढ़ती घटनाओं पर क्या हमलोग मौन होकर अपने-अपने दायित्व को पूरा करते रहें! चुप रहने वाले अक्सर अनजाने ही सही अपराधी का हौसला बन जाते हैं, चुप्पी का सन्नाटा एक तरह से अपराधियों का साथ देना ही तो हुआ।”
“आपलोग भगवान होने के भूमिका में होते हैं! अपनी भूमिका पर गौर करें! यह सुधार में कैसा बदला है एक मौत की प्रतिक्रिया में हजारों को मौत के मुँह में धकेल देना। बदला ले लेने से समाज का भला होता है या बदलाव के आ जाने से?”
“लगता है अभी आप ज्ञान परोसने के मनोस्थिति में हैं, चलिए हम भी फ़ुरसत में हैं शुरू कीजिए आप अपना परबचन।”
“किसी अपराध को वर्ग, लिंग, जाति, प्रान्त, संप्रदाय में बाँट कर नहीं देखना होगा। लोकतंत्र में पैशाचिकतंत्र को पैर पसारने से रोकने का प्रयास करना होगा!”
“यानी बदलाव चाहने वाले को ख़ुद सड़क पर नहीं आना है, परदे में रहकर अपराध की योजना बनाने वाले को सड़क पर लाने का प्रबन्ध करना है।”
“जी हाँ! सदैव याद रखना है, काली घटा छायी, हौसले की रुत आयी! सिर्फ हंगामा खड़ा करना तेरा मकसद नहीं तेरी कोशिश हो कि यह सूरत बदलनी चाहिए…,”
जयप्रकाश ‘विलक्षण’ :- बहुत बढ़िया!
वास्तव में चिकित्सा और अन्य सार्वजानिक सेवाओं में इस प्रकार की हड़ताल का विकल्प अपनाना सही नहीं है क्योंकि ऐसा करने पर लाखों निर्दोषों को सजा मिलती है।
लेकिन समस्या यह है कि ऐसा किए बिना किसी के कान पर जूँ भी नहीं रेंगती।
भारत की सबसे बड़ी समस्या है, मूल कारणों से दूर भागना। सेक्स एजुकेशन के नाम पर अभी भी भारत निचले पायदान पर है। जबकि वर्तमान में बच्चों के लिए इसकी बहुत आवश्यकता है, ताकि संगी-साथी या गलत लोग उन्हें भटका न सकें। जाने क्यों हमारे यहाँ प्राकृतिक क्रियाओं के विषय में खुलकर बात करने से क्यों परहेज किया जाता है, जबकि बच्चे पैदा करने में हमने विश्व रिकॉर्ड बना दिए हैं और उसी का कुपरिणाम है कि आज हम इस मामले में सर्वोच्च शिखर पर हैं। लेकिन बात करने में शर्म आती है। इस परहेज के कारण हर साल लाखों बच्चियाँ, महिलाएँ खतरनाक बीमारियों का शिकार हो रही हैं। जीवन भर दुःख भोगती हैं। लाखों की दवाएँ खा जाती हैं और अंत में गर्भाशय निकलवाने पर मजबूर होती हैं। लाखों महिलाएँ यौन अपराधों का शिकार होती हैं। मनुष्य की प्रवृति है कि जिस विषय को उससे दूर किया जाता है, वह उसी की ओर उन्मुख होता है।
इसके लिए स्कूलों में विशेष सत्र चलाए जा सकते हैं। थोड़ा-बहुत प्रयास हो भी रहा है, किंतु पर्याप्त नहीं है।
वैसे बात केवल एक अपराध की नहीं है सभी अपराधों की है और उसके लिए अपराधी के मन में कानून का डर जरूरी है।
उदाहरण के लिए ऐसा क्यों है कि दुबई, कतर आदि मुस्लिम देशों में सोने से, नोटों से भरी गाड़ी रोड पर खड़ी होती है और किसी की हिम्मत नहीं होती कि उसे छू भी सके?
कुछ तो है, जो वहाँ हो गया, और हम महान संस्कृति वाले नहीं कर सके। हम कब कोशिश करेंगे कि प्राचीन का फिजूल गुणगान करने के स्थान पर काम ऐसे करें कि हमारा देश सचमुच महान बन जाए।
और इसके लिए सबसे पहले अपने गिरेबान में झाँकना पड़ेगा कि अपने देश को स्वस्थ खुशहाल और महान बनाने के लिए हम अपने स्तर पर क्या कर रहे हैं।