साहित्य संवेद की प्रतियोगिता
–शीर्षक : वह पद जो विषय का परिचय कराने के लिए रचना के शीर्ष पर उसके नाम के रूप में रहता है... । शीर्षक पर विमर्श होनी है तो जानना आवश्यक हो जाता है : शीर्षक है क्या ... !
#डॉ0 मिथिलेशकुमारी मिश्र :- ‘तत्त्व ’ शब्द बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसका प्रयोग तंत्र विद्या में बहुत होता है। तांत्रिकों के अनुसार ये 'छत्तीस' होते हैं। संख्याओं के अनुसार इनकी संख्या 'पच्चीस' होती है। रसायन–शास्त्र के अुनसार मूल पदार्थ–जिसे किसी भी रासायनिक विधि से सरलतर पदार्थों में विश्लेषित नहीं किया जा सकता। ऐसा भी कहा जाता है कि मानव–शरीर की संरचना भी 'पाँच तत्त्वों' के मिलने से ही हुई है। वे पाँच तत्त्व हैं–आग,पानी,वायु,धरती और आकाश। इसी प्रकार ‘कथा’ की संरचना कथानक, वातावरण, कथोपकथन, चरित्र –चित्रण, भाषा–शैली और उपसंहार : यह छह 'तत्त्व' ही उपन्यास, कहानी और लघुकथा की भी संरचना करते हैं। यानी इन छह तत्त्वों से ही प्राय: सभी कथात्मक विधाओं की रचना संभव हो पाती है। यह बात अलग है कि कथानक यानी कथा–वस्तु (जिस रूप में भी हो) के अनुसार ही इन तत्त्वों का प्रयोग होता ही है। किन्तु लघुकथा में एक तत्त्व और है, जो कि इसको सही स्वरूप में प्रस्तुत करने में सहायक होता है–वह है ‘शीर्षक’।
–शीर्षक : वह पद जो विषय का परिचय कराने के लिए रचना के शीर्ष पर उसके नाम के रूप में रहता है... । शीर्षक पर विमर्श होनी है तो जानना आवश्यक हो जाता है : शीर्षक है क्या ... !
#डॉ0 मिथिलेशकुमारी मिश्र :- ‘तत्त्व ’ शब्द बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसका प्रयोग तंत्र विद्या में बहुत होता है। तांत्रिकों के अनुसार ये 'छत्तीस' होते हैं। संख्याओं के अनुसार इनकी संख्या 'पच्चीस' होती है। रसायन–शास्त्र के अुनसार मूल पदार्थ–जिसे किसी भी रासायनिक विधि से सरलतर पदार्थों में विश्लेषित नहीं किया जा सकता। ऐसा भी कहा जाता है कि मानव–शरीर की संरचना भी 'पाँच तत्त्वों' के मिलने से ही हुई है। वे पाँच तत्त्व हैं–आग,पानी,वायु,धरती और आकाश। इसी प्रकार ‘कथा’ की संरचना कथानक, वातावरण, कथोपकथन, चरित्र
#अब विचारणीय यह है कि लघुकथा में शीर्षक कैसा और कैसे चयन हो तो...
–डॉ. सतीशराज पुष्करणा :- साहित्य की विधा लघुकथा एक लघुआकारीय एवं क्षिप्र विधा है, जिसमें नपे-तुले शब्दों में ही अपनी बात कहनी होती है अतः इस विधा में सांकेतिकता एवं प्रतीकात्मकता का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ जाता है। लघुकथा में उसकी संप्रेषणीयता हेतु वैसे ही सटीक शीर्षक से काम लिया जाता है। तात्पर्य यह है कि सारप्रज्ञ होना चाहिए।
#श्याम सुन्दर अग्रवाल :- शीर्षक कथ्य अनुरूप हो— लघुकथा का शीर्षक रचना के कथ्य के अनुरूप ही होना चाहिए। शीर्षक कथ्य के अनुरूप न हो तो रचना अपने मूल भाव को पाठक तक ठीक से संप्रेषित नही कर पाती। शीर्षक से रचना के कथा-कहानी विधा से संबंधित होने का भी पता चलना चाहिए। शीर्षक पढ़कर पाठक को ऐसा न लगे कि यह किसी अन्य विधा से संबंधित रचना है। ‘विज्ञान के चमत्कार’, ‘परिवार नियोजन’, ‘आर्थिक असमानता’, ‘देश के निर्माता’ तथा ‘सक्षम महिला-एक पहल’ जैसे शीर्षक कथा-साहित्य के लिए उपयुक्त नहीं कहे जा सकते।
शीर्षक कथ्य को उजागर न करता हो— केवल वही लघुकथा पाठक को बाँध कर रख सकती है जो उसे साहित्यिक आनंद प्रदान करे। जो उसके मन में रचना को आगे पढ़ने के लिए उत्सुकता पैदा करे। प्रत्येक पंक्ति को पढ़ने के पश्चात–‘आगे क्या होगा?’ जानने की जिज्ञासा बनी रहनी चाहिए।
शीर्षक अस्पष्ट न हो— अकसर नए लेखक व कुछ सूझवान रचनाकार भी लघुकथा को शीर्षक देते समय बहुत सोच-विचार नहीं करते। वे अकसर रचना में बार-बार प्रयोग किए गए शब्द का ही शीर्षक के रूप में प्रयोग कर लेते हैं। या फिर रचना के अंतिम अवतरण अथवा वाक्य में प्रयुक्त कोई विशेष शब्द अथवा वाक्यांश को ही शीर्षक का रूप दे देते हैं। कई बार ऐसे शीर्षक बहुत ही अजब व अस्पष्ट बनकर रह जाते हैं।
शीर्षक अस्पष्ट न हो— अकसर नए लेखक व कुछ सूझवान रचनाकार भी लघुकथा को शीर्षक देते समय बहुत सोच-विचार नहीं करते। वे अकसर रचना में बार-बार प्रयोग किए गए शब्द का ही शीर्षक के रूप में प्रयोग कर लेते हैं। या फिर रचना के अंतिम अवतरण अथवा वाक्य में प्रयुक्त कोई विशेष शब्द अथवा वाक्यांश को ही शीर्षक का रूप दे देते हैं। कई बार ऐसे शीर्षक बहुत ही अजब व अस्पष्ट बनकर रह जाते हैं।
#बलराम अग्रवाल— कथा-रचनाओं के शीर्षक सदैव ही व्यंजनापरक नहीं होते, कभी-कभी वे चरित्राधारित भी होते हैं। कुछ शीर्षक काव्यगुण-सम्पन्न भी होते हैं अर्थात् संकेतात्मक अथवा यमक या श्लेष ध्वन्यात्मक। नि:संदेह, कुछ शीर्षक लघुकथा के समूचे कथानक को ‘कनक्ल्यूड’ करने की कलात्मकता से पूरित होते हैं, लेकिन कुछ प्रारम्भ में ही समूचे कथानक की पोल खोल देने वाले होते हैं। कुछ शीर्षक रचना के अन्त अथवा उसके उद्देश्य की पोल खोलकर रचना के प्रति पाठक की जिज्ञासा को समाप्त कर बैठने का भी काम करते हैं। ऐसे किसी भी शीर्षक पर कैसे इतराया जा सकता है? शीर्षक को रचना के प्रति जिज्ञासा जगाने वाला होना चाहिए। परन्तु, अगर किसी लघुकथा का शीर्षक कथ्य को उसकी सम्पूर्णता में अभिव्यक्त करने में सक्षम सिद्ध होता है; या फिर, अगर पाठक को वह कही हुई कथा के नेपथ्य में जाने को बाध्य करने में शक्ति से सम्पन्न सिद्ध होता है तो बेशक उस पर इतराया भी जा सकता है।
#रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’:-शीर्षक पूरी कथा के ताले को खोलने वाली चाबी जैसा होना चाहिए। सीधा–सपाट, बहुत लम्बा और कथ्य से पूर्णतया असम्पृक्त शीर्षक लघुकथा को कमजोर करता है। अच्छा शीर्षक वह है,जो लघुकथा के कथ्य में उद्घाटित करने में सहायक हो। शीर्षक–कथ्य–संवाद आदि में कहीं भी फालतू भाषायी चर्बी की जरूरत नहीं।
–उपर्युक्त विचारों के आधार पर , रामसेतु निर्माण में गिलहरी योगदान वाली सी मेरी कोशिश :-
■01.-इस प्रतियोगिता में आप अपनी एक ऐसी लघुकथा जिसका शीर्षक आपको विचारों में कथा के लिए श्रेष्ठ है या फिर आपके विचारों में चयनित शीर्षक आपकी कथा के मर्म को स्पर्श कर रहा है।
'नया सवेरा'-विभा रानी श्रीवास्तव
रुग्न अवस्था में पड़ा पति अपनी पत्नी की ओर देखकर रोने लगा, “करमजली! तू करमजली नहीं.., करमजले वो सारे लोग हैं जो तुझे इस नाम से बुलाते है..।”
“आप भी तो इसी नाम से...,”
“पति फफक पड़ा.. हाँ! मैं भी.. मुझे क्षमा कर दो!”
“आप मेरे पति हैं.., मैं आपको क्षमा...? क्या अनर्थ करते हैं..,”
“नहीं! सौभाग्यवंती...!”
“मैं सौभाग्यवंती...?" पत्नी को बेहद आश्चर्य हुआ...!
“आज सोच रहा हूँ... जब मैं तुम्हें मारा-पीटा करता था, तो तुम्हें कैसा लगता रहा होगा...!” कहकर पति फिर रोने लगा।
समय इतना बदलता है...। पति की कलाई और उँगलियों पर दवाई मलती करमजली सोच रही थी। अब हमेशा दर्द और झुनझुनी से उसके पति बहुत परेशान रहते हैं। एक समय ऐसा था, जब उनके झापड़ से लोग डरते थे...। चटाक हुआ कि नीली-लाल हुई वो जगह...। अपने कान की टूटी की बाली व कान से बहते पानी और फूटती-फूटती बची आँखें कहाँ भूल पाई है, आज तक करमजली फिर भी बोली,- “आप चुप हो जाएँ...।”
“मुझे क्षमा कर दो...,” करबद्ध क्षमा मांगता हुआ पति ने कहा।पत्नी चुप रही वह कुछ बोल नहीं पाई।
“जानती हो... हमारे घर वाले ही हमारे रिश्ते के दुश्मन निकले...। लगाई-बुझाई करके तुझे पिटवाते रहे...। अब जब बीमार पड़ा हूँ तो सब किनारा कर गये। एक तू ही है जो मेरे साथ...,"
“मेरा आपका तो जन्म-जन्म का साथ है...!"
पति फिर रोने लगा, "मुझे क्षमा कर दो...,”
“देखिये जब आँख खुले तब ही सबेरा...। आप सारी बातें भूल जाइए...,”
“और तुम...?”
“मैं भी भूलने की कोशिश करूँगी...। भूल जाने में ही सारा सुख है...।”
पत्नी की ओर देख पति सोचने लगा कि अपनी समझदार पत्नी को अब तक मैं पहचान नहीं सका... आज आँख खुली... इतनी देर से...।
■01. –यह शीर्षक आपने क्यों चुना इस पर अपने विचार कथा के साथ प्रस्तुत करें।
–कथानक को शिल्प में ढ़ालने से, कई गुना अधिक श्रम और समय लग जाता है शीर्षक चयन करने में। अपने स्व लेखन को खुद तौलने लगते हैं तो सामने आईना होते हुए भी दंडी मार लेना फितरत हो जाता है। जब अन्य कोई तौल दे तो मुझे निजी तौर पर संतुष्टि और खरा होने का विश्वास होता है...। उपर्युक्त लघुकथा पुत्तर रवि यादव जी द्वारा पाठ के लिए चयनित रहा..। कथा के मर्म को स्पर्श कर रहा है 'शीर्षक:नया सवेरा'। कोई एक पक्ष धैर्य और घर बचाये रखने के प्रति समर्पित हो तो समय के साथ दूसरे पक्ष में बदलाव आ जाना स्वाभाविक हो जाता है। यह कोई जरूरी नहीं कि प्रयास केवल पत्नियों के हिस्से ही आये। समय के साथ बहुत बदलाव होते हुए और ना चाहते हुए आज भी ऐसे हालात हैं कि अधिकतर पत्नियों के हिस्से ही आता है नया सवेरा लाना।
श्रेष्ठ साहित्यकारों का कहना है, "साहित्य में वो लेखन करें जैसा समाज देखना चाहते हैं।" अतः प्रयास उसी राह पर जारी है।
■2-अपनी रचना के साथ अन्य लेखक द्वारा लिखी गई एक लघुकथा जिसका शीर्षक आपके विचार से सफल या असफल शीर्षक है । आप चाहे तो शीर्षक के कमजोर व मजबूत पक्ष को भी सामने रख सकते हैं।
'नया सवेरा'-विभा रानी श्रीवास्तव
रुग्न अवस्था में पड़ा पति अपनी पत्नी की ओर देखकर रोने लगा, “करमजली! तू करमजली नहीं.., करमजले वो सारे लोग हैं जो तुझे इस नाम से बुलाते है..।”
“आप भी तो इसी नाम से...,”
“पति फफक पड़ा.. हाँ! मैं भी.. मुझे क्षमा कर दो!”
“आप मेरे पति हैं.., मैं आपको क्षमा...? क्या अनर्थ करते हैं..,”
“नहीं! सौभाग्यवंती...!”
“मैं सौभाग्यवंती...?" पत्नी को बेहद आश्चर्य हुआ...!
“आज सोच रहा हूँ... जब मैं तुम्हें मारा-पीटा करता था, तो तुम्हें कैसा लगता रहा होगा...!” कहकर पति फिर रोने लगा।
समय इतना बदलता है...। पति की कलाई और उँगलियों पर दवाई मलती करमजली सोच रही थी। अब हमेशा दर्द और झुनझुनी से उसके पति बहुत परेशान रहते हैं। एक समय ऐसा था, जब उनके झापड़ से लोग डरते थे...। चटाक हुआ कि नीली-लाल हुई वो जगह...। अपने कान की टूटी की बाली व कान से बहते पानी और फूटती-फूटती बची आँखें कहाँ भूल पाई है, आज तक करमजली फिर भी बोली,- “आप चुप हो जाएँ...।”
“मुझे क्षमा कर दो...,” करबद्ध क्षमा मांगता हुआ पति ने कहा।पत्नी चुप रही वह कुछ बोल नहीं पाई।
“जानती हो... हमारे घर वाले ही हमारे रिश्ते के दुश्मन निकले...। लगाई-बुझाई करके तुझे पिटवाते रहे...। अब जब बीमार पड़ा हूँ तो सब किनारा कर गये। एक तू ही है जो मेरे साथ...,"
“मेरा आपका तो जन्म-जन्म का साथ है...!"
पति फिर रोने लगा, "मुझे क्षमा कर दो...,”
“देखिये जब आँख खुले तब ही सबेरा...। आप सारी बातें भूल जाइए...,”
“और तुम...?”
“मैं भी भूलने की कोशिश करूँगी...। भूल जाने में ही सारा सुख है...।”
पत्नी की ओर देख पति सोचने लगा कि अपनी समझदार पत्नी को अब तक मैं पहचान नहीं सका... आज आँख खुली... इतनी देर से...।
■01. –यह शीर्षक आपने क्यों चुना इस पर अपने विचार कथा के साथ प्रस्तुत करें।
–कथानक को शिल्प में ढ़ालने से, कई गुना अधिक श्रम और समय लग जाता है शीर्षक चयन करने में। अपने स्व लेखन को खुद तौलने लगते हैं तो सामने आईना होते हुए भी दंडी मार लेना फितरत हो जाता है। जब अन्य कोई तौल दे तो मुझे निजी तौर पर संतुष्टि और खरा होने का विश्वास होता है...। उपर्युक्त लघुकथा पुत्तर रवि यादव जी द्वारा पाठ के लिए चयनित रहा..। कथा के मर्म को स्पर्श कर रहा है 'शीर्षक:नया सवेरा'। कोई एक पक्ष धैर्य और घर बचाये रखने के प्रति समर्पित हो तो समय के साथ दूसरे पक्ष में बदलाव आ जाना स्वाभाविक हो जाता है। यह कोई जरूरी नहीं कि प्रयास केवल पत्नियों के हिस्से ही आये। समय के साथ बहुत बदलाव होते हुए और ना चाहते हुए आज भी ऐसे हालात हैं कि अधिकतर पत्नियों के हिस्से ही आता है नया सवेरा लाना।
श्रेष्ठ साहित्यकारों का कहना है, "साहित्य में वो लेखन करें जैसा समाज देखना चाहते हैं।" अतः प्रयास उसी राह पर जारी है।
■2-अपनी रचना के साथ अन्य लेखक द्वारा लिखी गई एक लघुकथा जिसका शीर्षक आपके विचार से सफल या असफल शीर्षक है । आप चाहे तो शीर्षक के कमजोर व मजबूत पक्ष को भी सामने रख सकते हैं।
“चूक”– डॉ. सतीशराज पुष्करणा,
चिंतन बाबू पूरी रात सो नहीं सके। सुबह उठे तो मन-मिजाज थका-थका-सा लगा । कलवाली बात उन्हें रह-रहकर परेशान कर रही थी । उन्होंने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि उनका बेटा अभिनन्दन उनके सात इस बेहूदगी से पेश आएगा। वह सोचने लगे कि उन्होंने आखिर ऐसा क्या कहा कि उसने कह दिया, यदि वह उसे घर के मुख्य-द्वार के ठीक अन्दर में कमरे बनाने नहीं देंगे तो वह उन्हें जान से मार देगा।
क्या आदमी इस हद तक स्वार्थी हो सकता है, अभिनन्दन को उन्होंने पढाया-लिखाया नौकरी लगवा दी। अच्छे घर से शादी करा दी। रहने के लिए घर बनवा दिया। उससे कभी कोई अपेक्षा नहीं रखी। जो सम्भव हुआ किया और करते ही जा रहे हैं। फिर भी वह समझ नहीं पा रहे हैं कि जीवन में या अभिनन्दन के पालन-पोषण में उनसे कहाँ चूक हो गयी? समाज में उनकी इज्जत है, प्रतिष्ठा है, उन्होंने अपने तन-बदन तक को सँवारने में कभी ध्यान नहीं दिया। अभिनन्दन को कभी अभाव का अहसास तक नहीं होने दिया। उन्होंने बड़े शौक से घर बनवाया। बड़े-से मुख्य-द्वार पर ही कमरे बनवाएगा । उन्होंने लाख समझाया कि बेटा ! कमरे खाली पड़ी जगह पर बनवा ले, घर की शोभा नष्ट न कर... मैंने इतना ही तो कहा था न,-“यहाँ नहीं, वहाँ उधर बनवा लें...घर की शोभा बनी रहने दे।”
उत्तर में उसने कह दिया,-“आप सठिया गए हैं। अन्दर कहीं कोचिंग चलेगा? मेन गेट पर रहेगा तो छात्र-छात्राओं का ध्यान अधिक जाएगा।”
मैंने कहा था,-“बेटा ! पढाई अच्छी हो, तो छात्र-छात्राएँ सुदूर जंगलों में भी पढने चले जाते हैं। अपने में वो बात पैदा करो।”
उसने कितनी आसानी से कह दिया था,- “आप यदि मेरे रास्ते में आये तो मैं आपको जान से मार दूँगा।”
“आप नाहक परेशान बैठे हैं। परेशान न हों। बेटा है... आज का युवा है। क्रोध में कह गया है... वह आप पर हाथ नहीं उठा सकता... आपने आज तक उसकी हर बात पूरी की है.. यह भी मान लीजिए।” पत्नी ने समझाया।
बस, यहीं चूक हो गई... इकलौता होने के कारण उसकी हर बात मानता गया... जो माननी चाहिए थी वह भी... जो नहीं माननी चाहिए थी वह भी... तो फिर आज क्यों नहीं मान रहे हैं? वह हँस पड़े... उन्हें समझ में आ गया... उनसे चूक कहाँ हो गयी। उस चूक का खामियाजा तो भुगतना ही पडेगा। अभी वह ये सब सोच ही रहे थे कि पोते पर उसकी नज़र पड़ गई... उन्हें अभिनन्दन का भविष्य भी दिखाई देने लगा। पोता अपने पिता से जिद कर रहा था कि यदि आज मेरी साइकिल नहीं लाए, तो मैं आपसे बात भी नहीं करूँगा। उत्तर में अभिनन्दन ने कहा था,-‘नहीं बेटा ! ऐसे नहीं बोलते ... मैं आपके लिए साइकिल जरूर लेकर आऊँगा... आप तो मेरे राजा बेटे हैं न।” उन्हें अभिनन्दन का बचपन और अपनी जवानी के दिन स्मरण हो आए।
लघुकथा के शीर्षक पर विचार : विभा रानी श्रीवास्तव
अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच के संस्थापक व अध्यक्ष, लेख्य-मंजूषा के गुरु-अभिभावक , लघुकथा पितामह डॉ. सतीशराज पुष्करणा जी के बारे में कुछ बताना , सूरज को दीया दिखलाना है।
वे गुरु हैं! ना! ना उन्हें गुरुकुल कहना अधिक सटीक होगा। अपने-आप में शब्दकोश हैं। साहित्य की अनेकानेक विधाओं में सृजन-कार्य करते हैं। अबतक वे लगभग साढ़े सोलह सौ लघुकथाओं का सृजन कर चुके हैं। उन लघुकथाओं में से 'चूक' शीर्षक की पिता पात्र पर केंद्रित लघुकथा के श्री का मेरा यह अति विनम्र प्रयास है।
बिगड़ती अर्थव्यवस्था और बढ़ती आबादी से देश की स्थिति चरमराने लगी तो देश में कानून बना व नारा बुलंद हुआ 'हम दो और हमारे दो'। इससे जनता में पर्याप्त जागृति आयी तो 'वन फैमली वन चाइल्ड' भी होने लगा। पहले संयुक्त परिवार की रूपरेखा एकल परिवार में परिवर्तित हो गयी , फिर एकल में भी एक संतान होने लगी। जिसका दुष्प्रभाव इकलौती संतान पर पड़ने लगा। मैं यह तो नहीं कह सकती कि सभी इकलौती संतान बिगड़ी औलाद ही हुई या हो रही हैं। लेकिन मेरे सम्पर्क में जितने एकल बच्चे आये उनमें से अधिकाँश बच्चे जिद्दी व गलत आदतों के शिकार ही दिखे। इकलौती संतान पालने के दौर से मैं भी गुजरी हूँ।और हर पल चूक हो जाने से भयाक्रांत रही हूँ।
चूक के परिणाम स्वरूप सज़ा अभिभावकों को ही भुगतनी पड़ती है तो बच्चे भी भुगतते हैं । अतः डॉ. सतीशराज पुष्करणा जी की लघुकथा का शीर्षक दंड/सज़ा होता तो मेरे विचार से अपेक्षाकृत अधिक उपयुक्त होता।
लघुकथा में पुत्र पात्र ने कितनी आसानी से कह दिया था,-“आप यदि मेरे रास्ते में आये तो मैं आपको जान से मार दूँगा।”
तनजा मुख से ऐसी कठोर अशोभनीय बातें, किसी भी पिता की आँखों से नींद और दिल-दिमाग से चैन चुराने में सफल हो जायेगी...। परिणाम की कल्पना ही भयावह है...।
'स्पेयर द रॉड स्पॉइल द चाइल्ड' अंग्रेजों ने सभ्य होने के बाद 'स्पेयर द रॉड एंड स्पॉइल द चाइल्ड' जैसा सूत्र गढ़ा था। उस सूत्र के स्थान से सभी ने आगे बढ़ जाने की राह निकाली। मास्साब की छड़ी छीन ली गई। बच्चों के अधिकारों की रक्षा हेतु गठित आयोग ने विद्यालयों में बच्चों के खिलाफ होने वाली हिंसा का संज्ञान लिया और उसे पूरी तरह से रोकने हेतु एक जोरदार पहल की। उसने शारीरिक दंड की परिभाषा का दायरा भी बड़ा किया। सिर्फ छड़ी मारना ही नहीं, अब क्लास से बाहर या बेंच पर खड़ा कराना या मुर्गा बनाना या मैदान का चक्कर लगवाना भी शारीरिक दंड की ही श्रेणी में शामिल किया। आयोग ने कहा है कि ऐसी किसी भी दंड या प्रताड़ना के खिलाफ अभिभावक तुरंत शिकायत दर्ज करवाएँ और थाने में एफ.आई.आर लिखवाएँ। क्योंकि विद्यालय में विद्यार्थियों को शारीरिक दंड मिलने की वजह से किसी बच्चे के हाथ-पाँव टूट गए, पीड़ित बेहोश हो गया । अथवा कोई-कोई तो मृत्यु तक को भी प्राप्त हो गया।
ऐसे भी समाचार प्राप्त हुए, किसी-किसी बच्चे ने अध्यापक की प्रताड़ना से दु:खी होकर कोई गलत कदम उठा लिया। ऐसे में नैशनल कमिशन फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन्स राइट्स की सहृदयता थी कि उसने अपनी ओर से ऐसी पहल की। लेकिन जमीनी स्तर पर इसका कितना लाभ हुआ , यह विचारणीय है। आदर्श की बातें सुनने में जरूर अच्छी लगती हैं, लेकिन उनका असली जिंदगी से तो भी तो कोई संबंध हो। विद्यालय शिक्षा का अर्थ सिर्फ परीक्षा में आने वाले नंबर हो गए , आयोग का कवच बच्चों की मासूमियत-निश्छलता की पूरी तरह से रक्षा नहीं कर सका।
'जे फूल से महादेव के सर..' घर में भी इकलौती संतान पर ज्यादा लाड-दुलार बढ़ जाने से बच्चों में उच्छृंखलता बढ़ गयी। रही-सही कसर पूरी करता पिता अगर कभी नाराज होकर डाँटना चाहते तो माता पुत्र-मोह में ढ़ाल बन जाती। पुत्र की गलतियों पर पिता का नाराज होना अकारण गुस्सा होना लगता है। ज्यादती लगता है। जो कि एकदम गलत है । पुत्र की गलतियों पर पिता गुस्सा हो रहे हों और माता को पिता का गुस्सा ज्यादा भी लग रहा हो तो पिता को समझाने की जगह पुत्र को समझाना ज्यादा आवश्यक बात लगनी चाहिए। अगर माता पुत्र को नहीं समझा चाहती तो कम-से-कम चुप ही रह जाये किसी को ना समझाए। नहीं तो वहीं से पुत्र के सुधरने की गुंजाइश मिटती चली जाती है।
लघुकथा 'चूक' में भी हमें प्रमाण मिलता है। पिता पात्र के आहत होकर परेशान होने पर “आप नाहक परेशान बैठे हैं। परेशान न हों। बेटा है... आज का युवा है। क्रोध में कह गया है... वह आप पर हाथ नहीं उठा सकता... आपने आज तक उसकी हर बात पूरी की है.. यह भी मान लीजिए।” पत्नी ने समझाया।
लघुकथा के पिता पात्र को एहसास होता है कि उससे पुत्र की परवरिश करने में चूक हो गयी। मेरा मानना है कि प्यार करने का अर्थ यह नहीं कि बिना उचित-अनुचित का ध्यान रखे हुए हर मांग को पूरा कर देना। परवरिश में अनुशासन सिखलाना पिता का प्रमुख दायित्व होना चाहिए।
पुत्र को यह सिखलाना चाहिए कि किस सीमा में रहकर उसे अपनी बात पिता के सामने रखनी है। अन्यथा यदि वह उसे घर के मुख्य-द्वार के ठीक अन्दर में कमरे बनाने नहीं देंगे तो वह उन्हें जान से मार देगा।
‘इतिहास खुद को दोहराता है’, पहले एक त्रासदी की तरह, दुसरा एक मज़ाक की तरह। कार्ल मार्क्स का कथन पूर्णत: सत्य साबित करती लघुकथा में जब पिता पात्र दादा और पुत्र पात्र पिता की भूमिका में परिवर्तित हो जाते हैं। ‘पोता अपने पिता से जिद कर रहा था कि यदि आज मेरी साइकिल नहीं लाए, तो मैं आपसे बात भी नहीं करूँगा।’
बच्चे वही सीखते हैं जो अपने बड़ों को करते/अपनाते देखते हैं। हम जो संस्कार बच्चों में रोपना चाहते हैं, उसे पहले स्वयं में भी अपनाएं।
डॉ. सतीशराज पुष्करणा द्वारा सृजित लघुकथा ‘चूक’ अति आवश्यक अनेक बिंदुओं पर पिता व पाठक वर्ग का ध्यानाकर्षित करने में समर्थ और सफल है... ।
वर्षों से दिल-दिमाग के कोने में संजोए मुझे मेरे अनुभवों की अभिव्यक्ति का माध्यम-आधार भी बनी लघुकथा 'चूक'। साधुवाद देती हूँ सृजक को।