Friday 28 August 2020

व्योम का बोनसाई

साहित्य संवेद की प्रतियोगिता

–शीर्षक : वह पद जो विषय का परिचय कराने के लिए रचना के शीर्ष पर उसके नाम के रूप में रहता है... । शीर्षक पर विमर्श होनी है तो जानना आवश्यक हो जाता है : शीर्षक है क्या ... !
#डॉ0 मिथिलेशकुमारी मिश्र :- तत्त्व ’ शब्द बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसका प्रयोग तंत्र विद्या में बहुत होता है। तांत्रिकों के अनुसार ये 'छत्तीस' होते हैं। संख्याओं के अनुसार इनकी संख्या 'पच्चीस' होती है। रसायनशास्त्र के अुनसार मूल पदार्थजिसे किसी भी रासायनिक विधि से सरलतर पदार्थों में विश्लेषित नहीं किया जा सकता। ऐसा भी कहा जाता है कि मानवशरीर की संरचना भी 'पाँच तत्त्वों' के मिलने से ही हुई है। वे पाँच तत्त्व  हैंआग,पानी,वायु,धरती और आकाश। इसी प्रकार कथा’ की संरचना कथानक,  वातावरण,  कथोपकथनचरित्रचित्रणभाषाशैली और उपसंहार : यह छह 'तत्त्व'  ही उपन्यासकहानी और लघुकथा की भी संरचना करते हैं। यानी इन छ तत्त्वों  से ही प्राय: सभी कथात्मक विधाओं की रचना संभव हो पाती है। यह बात अलग है कि कथानक यानी कथावस्तु (जिस रूप में भी हो) के अनुसार ही इन तत्त्वों  का प्रयोग होता ही है। किन्तु लघुकथा  में एक तत्त्व  और हैजो कि इसको सही स्वरूप में प्रस्तुत करने में सहायक होता हैवह है शीर्षक

#अब विचारणीय यह है कि लघुकथा में शीर्षक कैसा और कैसे चयन हो तो... 
–डॉ. सतीशराज पुष्करणा :- साहित्य की विधा लघुकथा एक लघुआकारीय एवं क्षिप्र विधा है, जिसमें नपे-तुले शब्दों में ही अपनी बात कहनी होती है अतः इस विधा में सांकेतिकता एवं प्रतीकात्मकता का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ जाता है। लघुकथा में उसकी  संप्रेषणीयता हेतु वैसे ही सटीक शीर्षक से काम लिया जाता है। तात्पर्य यह है कि सारप्रज्ञ होना चाहिए। 
#श्याम सुन्दर अग्रवाल :- शीर्षक कथ्य अनुरूप हो— लघुकथा का शीर्षक रचना के कथ्य के अनुरूप ही होना चाहिए। शीर्षक कथ्य के अनुरूप न हो तो रचना अपने मूल भाव को पाठक तक ठीक से संप्रेषित नही कर पाती। शीर्षक से रचना के कथा-कहानी विधा से संबंधित होने का भी पता चलना चाहिए। शीर्षक पढ़कर पाठक को ऐसा न लगे कि यह किसी अन्य विधा से संबंधित रचना है। ‘विज्ञान के चमत्कार’, ‘परिवार नियोजन’, ‘आर्थिक असमानता’, ‘देश के निर्माता’ तथा ‘सक्षम महिला-एक पहल’ जैसे शीर्षक कथा-साहित्य के लिए उपयुक्त नहीं कहे जा सकते।
शीर्षक कथ्य को उजागर न करता हो— केवल वही लघुकथा पाठक को बाँध कर रख सकती है जो उसे साहित्यिक आनंद प्रदान करे। जो उसके मन में रचना को आगे पढ़ने के लिए उत्सुकता पैदा करे। प्रत्येक पंक्ति को पढ़ने के पश्चात–‘आगे क्या होगा?’ जानने की जिज्ञासा बनी रहनी चाहिए।
शीर्षक अस्पष्ट न हो— अकसर नए लेखक व कुछ सूझवान रचनाकार भी लघुकथा को शीर्षक देते समय बहुत सोच-विचार नहीं करते। वे अकसर रचना में बार-बार प्रयोग किए गए शब्द का ही शीर्षक के रूप में प्रयोग कर लेते हैं। या फिर रचना के अंतिम अवतरण अथवा वाक्य में प्रयुक्त कोई विशेष शब्द अथवा वाक्यांश को ही शीर्षक का रूप दे देते हैं। कई बार ऐसे शीर्षक बहुत ही अजब व अस्पष्ट बनकर रह जाते हैं।
#बलराम अग्रवाल— कथा-रचनाओं के शीर्षक सदैव ही व्यंजनापरक नहीं होते, कभी-कभी वे चरित्राधारित भी होते हैं। कुछ शीर्षक काव्यगुण-सम्पन्न भी होते हैं अर्थात् संकेतात्मक अथवा यमक या श्लेष ध्वन्यात्मक। नि:संदेह, कुछ शीर्षक लघुकथा के समूचे कथानक को ‘कनक्ल्यूड’ करने की कलात्मकता से पूरित होते हैं, लेकिन कुछ प्रारम्भ में ही समूचे कथानक की पोल खोल देने वाले होते हैं। कुछ शीर्षक रचना के अन्त अथवा उसके उद्देश्य की पोल खोलकर रचना के प्रति पाठक की जिज्ञासा को समाप्त कर बैठने का भी काम करते हैं। ऐसे किसी भी शीर्षक पर कैसे इतराया जा सकता है? शीर्षक को रचना के प्रति जिज्ञासा जगाने वाला होना चाहिए। परन्तु, अगर किसी लघुकथा का शीर्षक कथ्य को उसकी सम्पूर्णता में अभिव्यक्त करने में सक्षम सिद्ध होता है; या फिर, अगर पाठक को वह कही हुई कथा के नेपथ्य में जाने को बाध्य करने में शक्ति से सम्पन्न सिद्ध होता है तो बेशक उस पर इतराया भी जा सकता है।  

#रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’:-शीर्षक पूरी कथा के ताले को खोलने वाली चाबी जैसा होना चाहिए। सीधा–सपाट, बहुत लम्बा और कथ्य से पूर्णतया असम्पृक्त शीर्षक लघुकथा को कमजोर करता है। अच्छा शीर्षक वह है,जो लघुकथा के कथ्य में उद्घाटित करने में सहायक हो। शीर्षक–कथ्य–संवाद आदि में कहीं भी फालतू भाषायी चर्बी की जरूरत नहीं।

–उपर्युक्त विचारों के आधार पर , रामसेतु निर्माण में गिलहरी योगदान वाली सी मेरी कोशिश :-
■01.-इस प्रतियोगिता में आप अपनी एक ऐसी लघुकथा  जिसका शीर्षक आपको विचारों में कथा के लिए श्रेष्ठ है या फिर आपके विचारों में चयनित शीर्षक आपकी कथा के मर्म को स्पर्श कर रहा है।

'नया सवेरा'-विभा रानी श्रीवास्तव
रुग्न अवस्था में पड़ा पति अपनी पत्नी की ओर देखकर रोने लगा, “करमजली! तू करमजली नहीं.., करमजले वो सारे लोग हैं जो तुझे इस नाम से बुलाते है..।”
“आप भी तो इसी नाम से...,”
“पति फफक पड़ा.. हाँ! मैं भी.. मुझे क्षमा कर दो!”
“आप मेरे पति हैं.., मैं आपको क्षमा...? क्या अनर्थ करते हैं..,”
“नहीं! सौभाग्यवंती...!”
“मैं सौभाग्यवंती...?" पत्नी को बेहद आश्चर्य हुआ...!
“आज सोच रहा हूँ... जब मैं तुम्हें मारा-पीटा करता था, तो तुम्हें कैसा लगता रहा होगा...!” कहकर पति फिर रोने लगा।
समय इतना बदलता है...। पति की कलाई और उँगलियों पर दवाई मलती करमजली सोच रही थी। अब हमेशा दर्द और झुनझुनी से उसके पति बहुत परेशान रहते हैं। एक समय ऐसा था, जब उनके झापड़ से लोग डरते थे...। चटाक हुआ कि नीली-लाल हुई वो जगह...। अपने कान की टूटी की बाली व कान से बहते पानी और फूटती-फूटती बची आँखें कहाँ भूल पाई है, आज तक करमजली फिर भी बोली,- “आप चुप हो जाएँ...।”
“मुझे क्षमा कर दो...,” करबद्ध क्षमा मांगता हुआ पति ने कहा।पत्नी चुप रही वह कुछ बोल नहीं पाई।
“जानती हो... हमारे घर वाले ही हमारे रिश्ते के दुश्मन निकले...। लगाई-बुझाई करके तुझे पिटवाते रहे...। अब जब बीमार पड़ा हूँ तो सब किनारा कर गये। एक तू ही है जो मेरे साथ...,"
“मेरा आपका तो जन्म-जन्म का साथ है...!"
पति फिर रोने लगा, "मुझे क्षमा कर दो...,”
“देखिये जब आँख खुले तब ही सबेरा...। आप सारी बातें भूल जाइए...,”
“और तुम...?”
“मैं भी भूलने की कोशिश करूँगी...। भूल जाने में ही सारा सुख है...।”
पत्नी की ओर देख पति सोचने लगा कि अपनी समझदार पत्नी को अब तक मैं पहचान नहीं सका... आज आँख खुली... इतनी देर से...।￰

■01. –यह शीर्षक आपने क्यों चुना इस पर अपने विचार कथा के साथ प्रस्तुत करें।

–कथानक को शिल्प में ढ़ालने से, कई गुना अधिक श्रम और समय लग जाता है शीर्षक चयन करने में। अपने स्व लेखन को खुद तौलने लगते हैं तो सामने आईना होते हुए भी दंडी मार लेना फितरत हो जाता है। जब अन्य कोई तौल दे तो मुझे निजी तौर पर संतुष्टि और खरा होने का विश्वास होता है...। उपर्युक्त लघुकथा पुत्तर रवि यादव जी द्वारा पाठ के लिए चयनित रहा..। कथा के मर्म को स्पर्श कर रहा है 'शीर्षक:नया सवेरा'। कोई एक पक्ष धैर्य और घर बचाये रखने के प्रति समर्पित हो तो समय के साथ दूसरे पक्ष में बदलाव आ जाना स्वाभाविक हो जाता है। यह कोई जरूरी नहीं कि प्रयास केवल पत्नियों के हिस्से ही आये। समय के साथ बहुत बदलाव होते हुए और ना चाहते हुए आज भी ऐसे हालात हैं कि अधिकतर पत्नियों के हिस्से ही आता है नया सवेरा लाना।
श्रेष्ठ साहित्यकारों का कहना है, "साहित्य में वो लेखन करें जैसा समाज देखना चाहते हैं।" अतः प्रयास उसी राह पर जारी है।
■2-अपनी रचना के साथ अन्य लेखक द्वारा लिखी गई एक लघुकथा जिसका शीर्षक आपके विचार से सफल या असफल शीर्षक है । आप चाहे तो शीर्षक के कमजोर व मजबूत पक्ष को भी सामने रख सकते हैं।

“चूक”– डॉ. सतीशराज पुष्करणा, 

चिंतन बाबू पूरी रात सो नहीं सके। सुबह उठे तो मन-मिजाज थका-थका-सा लगा । कलवाली बात उन्हें रह-रहकर परेशान कर रही थी । उन्होंने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि उनका बेटा अभिनन्दन उनके सात इस बेहूदगी से पेश आएगा। वह सोचने लगे कि उन्होंने आखिर ऐसा क्या कहा कि उसने कह दिया, यदि वह उसे घर के मुख्य-द्वार के ठीक अन्दर में कमरे बनाने नहीं देंगे तो वह उन्हें जान से मार देगा।
क्या आदमी इस हद तक स्वार्थी हो सकता है, अभिनन्दन को उन्होंने पढाया-लिखाया नौकरी लगवा दी। अच्छे घर से शादी करा दी। रहने के लिए घर बनवा दिया। उससे कभी कोई अपेक्षा नहीं रखी। जो सम्भव हुआ किया और करते ही जा रहे हैं। फिर भी वह समझ नहीं पा रहे हैं कि जीवन में या अभिनन्दन के पालन-पोषण में उनसे कहाँ चूक हो गयी? समाज में उनकी इज्जत है, प्रतिष्ठा है, उन्होंने अपने तन-बदन तक को सँवारने में कभी ध्यान नहीं दिया। अभिनन्दन को कभी अभाव का अहसास तक नहीं होने दिया। उन्होंने बड़े शौक से घर बनवाया। बड़े-से मुख्य-द्वार पर ही कमरे बनवाएगा । उन्होंने लाख समझाया कि बेटा ! कमरे खाली पड़ी जगह पर बनवा ले, घर की शोभा नष्ट न कर... मैंने इतना ही तो कहा था न,-“यहाँ नहीं, वहाँ उधर बनवा लें...घर की शोभा बनी रहने दे।”
उत्तर में उसने कह दिया,-“आप सठिया गए हैं। अन्दर कहीं कोचिंग चलेगा? मेन गेट पर रहेगा तो छात्र-छात्राओं का ध्यान अधिक जाएगा।”
मैंने कहा था,-“बेटा ! पढाई अच्छी हो, तो छात्र-छात्राएँ सुदूर जंगलों में भी पढने चले जाते हैं। अपने में वो बात पैदा करो।”
उसने कितनी आसानी से कह दिया था,- “आप यदि मेरे रास्ते में आये तो मैं आपको जान से मार दूँगा।”
“आप नाहक परेशान बैठे हैं। परेशान न हों। बेटा है... आज का युवा है। क्रोध में कह गया है... वह आप पर हाथ नहीं उठा सकता... आपने आज तक उसकी हर बात पूरी की है.. यह भी मान लीजिए।” पत्नी ने समझाया।
बस, यहीं चूक हो गई... इकलौता होने के कारण उसकी हर बात मानता गया... जो माननी चाहिए थी वह भी... जो नहीं माननी चाहिए थी वह भी... तो फिर आज क्यों नहीं मान रहे हैं? वह हँस पड़े... उन्हें समझ में आ गया... उनसे चूक कहाँ हो गयी। उस चूक का खामियाजा तो भुगतना ही पडेगा। अभी वह ये सब सोच ही रहे थे कि पोते पर उसकी नज़र पड़ गई... उन्हें अभिनन्दन का भविष्य भी दिखाई देने लगा। पोता अपने पिता से जिद कर रहा था कि यदि आज मेरी साइकिल नहीं लाए, तो मैं आपसे बात भी नहीं करूँगा। उत्तर में अभिनन्दन ने कहा था,-‘नहीं बेटा ! ऐसे नहीं बोलते ... मैं आपके लिए साइकिल जरूर लेकर आऊँगा... आप तो मेरे राजा बेटे हैं न।” उन्हें अभिनन्दन का बचपन  और अपनी जवानी के दिन स्मरण हो आए।

लघुकथा के शीर्षक पर विचार  : विभा रानी श्रीवास्तव
अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच के संस्थापक व अध्यक्ष, लेख्य-मंजूषा के गुरु-अभिभावक , लघुकथा पितामह डॉ. सतीशराज पुष्करणा जी के बारे में कुछ बताना , सूरज को दीया दिखलाना है।
    वे गुरु हैं! ना! ना उन्हें गुरुकुल कहना अधिक सटीक होगा। अपने-आप में शब्दकोश हैं। साहित्य की अनेकानेक विधाओं में सृजन-कार्य करते हैं। अबतक वे लगभग साढ़े सोलह सौ लघुकथाओं का सृजन कर चुके हैं। उन लघुकथाओं में से 'चूक' शीर्षक की पिता पात्र पर केंद्रित लघुकथा के श्री का मेरा यह अति विनम्र प्रयास है।

 बिगड़ती अर्थव्यवस्था और बढ़ती आबादी से देश की स्थिति चरमराने लगी तो देश में कानून बना व नारा बुलंद हुआ 'हम दो और हमारे दो'। इससे जनता में पर्याप्त जागृति आयी तो 'वन फैमली वन चाइल्ड' भी होने लगा। पहले संयुक्त परिवार की रूपरेखा एकल परिवार में परिवर्तित हो गयी , फिर  एकल में भी एक संतान होने लगी। जिसका दुष्प्रभाव इकलौती संतान पर पड़ने लगा। मैं यह तो नहीं कह सकती कि सभी इकलौती संतान बिगड़ी औलाद ही हुई या हो रही हैं। लेकिन मेरे सम्पर्क में जितने एकल बच्चे आये उनमें से अधिकाँश बच्चे जिद्दी व गलत आदतों के शिकार ही दिखे। इकलौती संतान पालने के दौर से मैं भी गुजरी हूँ।और हर पल चूक हो जाने से भयाक्रांत रही हूँ।
चूक के परिणाम स्वरूप सज़ा अभिभावकों को ही भुगतनी पड़ती है तो बच्चे भी भुगतते हैं । अतः डॉ. सतीशराज पुष्करणा जी की लघुकथा का शीर्षक दंड/सज़ा होता तो मेरे विचार से अपेक्षाकृत अधिक उपयुक्त होता।
लघुकथा में पुत्र पात्र ने कितनी आसानी से कह दिया था,-“आप यदि मेरे रास्ते में आये तो मैं आपको जान से मार दूँगा।”
तनजा मुख से ऐसी कठोर अशोभनीय बातें, किसी भी पिता की आँखों से नींद और दिल-दिमाग से चैन चुराने में सफल हो जायेगी...। परिणाम की कल्पना ही भयावह है...।
 'स्पेयर द रॉड स्पॉइल द चाइल्ड' अंग्रेजों ने सभ्य होने के बाद 'स्पेयर द रॉड एंड स्पॉइल द चाइल्ड' जैसा सूत्र गढ़ा था। उस सूत्र के स्थान से सभी ने आगे बढ़ जाने की राह निकाली। मास्साब की छड़ी छीन ली गई। बच्चों के अधिकारों की रक्षा हेतु गठित आयोग ने विद्यालयों में बच्चों के खिलाफ होने वाली हिंसा का संज्ञान लिया और उसे पूरी तरह से रोकने हेतु एक जोरदार पहल की। उसने शारीरिक दंड की परिभाषा का दायरा भी बड़ा किया। सिर्फ छड़ी मारना ही नहीं, अब क्लास से बाहर या बेंच पर खड़ा कराना या मुर्गा बनाना या मैदान का चक्कर लगवाना भी शारीरिक दंड की ही श्रेणी में शामिल किया। आयोग ने कहा है कि ऐसी किसी भी दंड या प्रताड़ना के खिलाफ अभिभावक तुरंत शिकायत दर्ज करवाएँ और थाने में एफ.आई.आर लिखवाएँ। क्योंकि विद्यालय में विद्यार्थियों को शारीरिक दंड मिलने की वजह से किसी बच्चे के हाथ-पाँव टूट गए, पीड़ित बेहोश हो गया । अथवा कोई-कोई तो मृत्यु तक को भी प्राप्त हो गया। 
ऐसे भी समाचार प्राप्त हुए, किसी-किसी बच्चे ने अध्यापक की प्रताड़ना से दु:खी होकर कोई गलत कदम उठा लिया। ऐसे में नैशनल कमिशन फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन्स राइट्स की सहृदयता थी  कि उसने अपनी ओर से ऐसी पहल की। लेकिन जमीनी स्तर पर इसका कितना लाभ हुआ , यह विचारणीय है।  आदर्श की बातें सुनने में जरूर अच्छी लगती हैं, लेकिन उनका असली जिंदगी से तो भी तो कोई संबंध हो। विद्यालय शिक्षा का अर्थ सिर्फ परीक्षा में आने वाले नंबर हो गए , आयोग का कवच बच्चों की मासूमियत-निश्छलता की पूरी तरह से रक्षा नहीं कर सका।
'जे फूल से महादेव के सर..' घर में भी इकलौती संतान पर ज्यादा लाड-दुलार बढ़ जाने से बच्चों में उच्छृंखलता बढ़ गयी। रही-सही कसर पूरी करता पिता अगर कभी नाराज होकर डाँटना चाहते तो माता पुत्र-मोह में ढ़ाल बन जाती। पुत्र की गलतियों पर पिता का नाराज होना अकारण गुस्सा होना लगता है। ज्यादती लगता है। जो कि एकदम गलत है । पुत्र की गलतियों पर पिता गुस्सा हो रहे हों और माता को पिता का गुस्सा ज्यादा भी लग रहा हो तो पिता को समझाने की जगह पुत्र को समझाना ज्यादा आवश्यक बात लगनी चाहिए। अगर माता पुत्र को नहीं समझा चाहती तो कम-से-कम चुप ही रह जाये किसी को ना समझाए। नहीं तो वहीं से पुत्र के सुधरने की गुंजाइश मिटती चली जाती है।
लघुकथा 'चूक' में भी हमें प्रमाण मिलता है। पिता पात्र के आहत होकर परेशान होने पर “आप नाहक परेशान बैठे हैं। परेशान न हों। बेटा है... आज का युवा है। क्रोध में कह गया है... वह आप पर हाथ नहीं उठा सकता... आपने आज तक उसकी हर बात पूरी की है.. यह भी मान लीजिए।” पत्नी ने समझाया।
लघुकथा के पिता पात्र को एहसास होता है कि उससे पुत्र की परवरिश करने में चूक हो गयी।  मेरा मानना है कि प्यार करने का अर्थ यह नहीं कि बिना उचित-अनुचित का ध्यान रखे हुए हर मांग को पूरा कर देना। परवरिश में अनुशासन सिखलाना पिता का प्रमुख दायित्व होना चाहिए।
पुत्र को यह सिखलाना चाहिए कि किस सीमा में रहकर उसे अपनी बात पिता के सामने रखनी है। अन्यथा यदि वह उसे घर के मुख्य-द्वार के ठीक अन्दर में कमरे बनाने नहीं देंगे तो वह उन्हें जान से मार देगा।
‘इतिहास खुद को दोहराता है’, पहले एक त्रासदी की तरह, दुसरा एक मज़ाक की तरह। कार्ल मार्क्स का कथन पूर्णत: सत्य साबित करती लघुकथा में जब पिता पात्र दादा और पुत्र पात्र पिता की भूमिका में परिवर्तित हो जाते हैं। ‘पोता अपने पिता से जिद कर रहा था कि यदि आज मेरी साइकिल नहीं लाए, तो मैं आपसे बात भी नहीं करूँगा।’ 
बच्चे वही सीखते हैं जो अपने बड़ों को करते/अपनाते देखते हैं। हम जो संस्कार बच्चों में रोपना चाहते हैं, उसे पहले स्वयं में भी अपनाएं।
डॉ. सतीशराज पुष्करणा द्वारा सृजित लघुकथा ‘चूक’ अति आवश्यक अनेक बिंदुओं पर पिता व पाठक वर्ग का ध्यानाकर्षित करने में समर्थ और सफल है... ।
वर्षों से दिल-दिमाग के कोने में संजोए मुझे मेरे अनुभवों की अभिव्यक्ति का माध्यम-आधार भी बनी लघुकथा 'चूक'। साधुवाद देती हूँ सृजक को।

Monday 24 August 2020

वक्त आजमा रहा है

कोई कसर नहीं रह जाये...


वन में आग–
श्वेत श्याम में दिखे
अलूचा बाग।

आलूबुखारा को अलूचा भी कहते हैं

मुख्यतः आलूबुखारा अमेरिका का फल है लेकिन भारत में भी होने लगा है..

इस समय यह पकता है..

और इस समय कैलिफोर्निया में आग फैली हुई है.. कई लाख एकड़ जल कर खत्म हो गए... पूरे शहर में धुएँ से सफेद और स्याह दिख रहा है।
वातावरण में धुँआ , राख और जलने का गंध फैला हुआ है... जो पहाड़ साफ-साफ दिखलाई पड़ता था वो नहीं दिख रहा है... । पेडों के डालों/लटकी टहनियों पर राख सफेद-काला दिखलाई दे रहा है..। कोई बॉलकोनी में बैठे तो पूरा राख जम जाए... । लोग भय में हैं कि ना जाने कब घर छोड़ कर हटना पड़े... प्रशासन से लगातार अलर्ट किया जा रहा है.. 'जगह छोड़कर निकल जाएं...।'

Friday 21 August 2020

फैसला


"दो ही रंग सत्य है बेगम! 'स्याह और सफेद'..। और वो भी ख़ुदा तय करने वाला होता है किस वक्त कौन से रंग से वास्ता रखना पड़ेगा।" हनीफ़ ने अपनी पत्नी को कहा।
"मोटे-मोटे किताबों से लेकर जो अक्ल आप बाँटते हैं न वो मेरे मगज़ में नहीं अटती है। यह वही हेयान है न , जो कभी हमारे बच्चे का अपहरण किया था फिरौती के लिए । आपको जान से मार देने की कोशिश किया था?" हनीफ़ की पत्नी की आवाज और आँखों में दर्द, गुस्सा, बेबसी साफ-साफ दिखलाई पड़ रहा था।
"इसका नाम हेयान नहीं हूमन है!" हनीफ़ ने कहा।
"इसका नाम कब बदल गया। क्या यह अपनी असलियत इस वजह से तो नहीं छुपा रहा कि दोबारा धोखा दे सके?"
"हूमन कुछ नहीं छुपा रहा है उसका नाम मैंने बदला है। उसने हमारे संग जब रहने का इरादा किया तो..।" हनीफ़ ने कहा।
"यह शराबी हमारे संग कैसे रह सकता है?"
"मत भूलो कफ सिरप और सैनिटाइजर में भी अल्कोहल है। वैसे हूमन पीना छोड़ देने का वादा किया है। उसका दिल सफेद हो रहा। हम स्याह को भूलने की कोशिश कर सकते हैं।" हनीफ़ की बातों से उसकी पत्नी सहमत हो रही थी और हूमन सधा दम को सम्भालने में व्यस्त दिखा।

Thursday 20 August 2020

प्रसंगविरुद्ध न्याय


[17/08, 2:30 am]: Accha ek bat puchni hai..yu hi...appko Tushar sir hi kyu sahi lagte hai aur duniya galat?

–सन् 2015 शायद मार्च-अप्रैल 'Tushar Gandhi' जी  से भेंट हुई .. । सन् 2012 से डॉ. Vyom जी के लेख से 'अनुभव के क्षण' को हम जानने-समझने-लिखने में प्रयत्नशील थे । उनसे एक दिशानिर्देश मिला.. अब भी "हाइकु'-सफर जारी है" के लिए प्रयत्नशील हैं..

[17/08, 2:34 am]: Par teacher ek hi hota hai yaha to teacher hi das tarah ka bat bata rahe hai

[17/08, 2:35 am] विभा रानी श्रीवास्तव: सो जाओ.. जब जगना तो अध्ययन करना अनुभव के क्षण, जेरोक्स, तस्वीर बनाने वाली बात पर..

[17/08, 2:36 am] : Par pusak ek hi hai di..degree bhi ek hi

[17/08, 3:09 am] विभा रानी श्रीवास्तव: एक ही कक्षा में कोई छात्र प्रथम, द्वितीय और कोई छात्र फेल क्यों हो जाता है?

'एक देश'
–देश में अलग-अलग शहर..
–देश के अलग-अलग शहरों में अलग-अलग विद्यालय..
–देश के अलग-अलग शहरों के अलग-अलग विद्यालयों में अलग-अलग शिक्षक..
–देश के अलग-अलग शहरों के अलग-अलग विद्यालयों में अलग-अलग शिक्षको के लिए एक ही कक्षा..
–अलग-अलग शहरों के अलग-अलग विद्यालयों में अलग-अलग शिक्षको के एक ही कक्षा में चलती एक पुस्तक..
––अलग-अलग शहरों के अलग-अलग विद्यालयों में अलग-अलग शिक्षको के एक ही कक्षा में चलती एक ही पुस्तक.. से प्रथम ही आये सभी अध्येताओं का बौद्धिक स्तर व व्यक्तित्व में विभिन्नता क्यों...,"


Thursday 13 August 2020

स्व स्वतंत्रता : एक दृष्टिकोण


शाखें कट भी गईं तो ठूंठ से कोपल निकलते देखा है,
हाँ! अपने देश में दमन-दलदल से भी संभलते देखा है।

समकोटीय यशस्वी मंदिर मस्जिद गिरजा और गुरुद्वारा,
जी अधिकारों संग दायित्व सिखाए ऐसा संविधान हमारा।

बरौनी थर्मल जर्जर स्थिति में था। सन् 2014 जून की बात है। मेरे पति बरौनी थर्मल पावर के महाप्रबंधक थे । उन्हें पटना हेडक्वार्टर में मीटिंग के लिए पहुँचना था। बरौनी से पटना आने में निजी सवारी से दो-ढ़ाई घण्टे का सफर है। बरौनी से हमलोग 5 बजे सुबह निकल गए कि अगर रास्ते में कुछ व्यवधान भी मिला तो 9 बजे तक पटना पहुँच जायेंगे। कुछ देर आराम कर भी हेडक्वार्टर मीटिंग में जाना आसान होगा। सुबह के 10 बजे से मीटिंग थी। हमलोगों की सवारी लगभग सवा आठ (8:15) बजे पटना में प्रवेश कर गई। आधे घण्टे की दूरी के पहले ट्रक, बस, कार की लंबी लाइन या यों कहें जाम से हमारा वास्ता पड़ा और थोड़ी देर में ही यह स्थिति हो गयी कि हमारी गाड़ी हिलने की स्थिति में नहीं रह गई। उस जाम में हमारी गाड़ी शाम के 4 बजे तक उसी तरह भीड़ में फँसी रही।
हाजीपुर और पटना को जोड़ने वाले पुल पर लगने वाला जाम कभी किसी के मृत्यु का कारण, तो कभी किसी की शादी का शुभ लग्न बीत जाने का कारण तो कभी किसी के परीक्षा छूट जाने का कारण बनता है। आखिर यह जाम क्यों लगता है..? लोकतंत्र में अधिकार सभी को चाहिए लेकिन धैर्य से कर्त्तव्य निभाने में अक्सर चूक जातें हैं। चूक जाने की यह आदत-संस्कार किस तरह की परवरिश-परिवेश में पनपता होगा? कुछ तो शिक्षा भी आधार होता होगा। सरकारी विद्यालयों में शिक्षकों को शिक्षा देने की स्वतंत्रता कहाँ होती है..। वे तो शायद बंधुआ मजदूर होते हैं...।
–जनगणना करवाना हो तो शिक्षक.., घर-घर जाकर मतदान पर्ची बाँटना हो तो शिक्षक, ( मतदाताओं का शिक्षक के साथ बदसलूकी से बात करना जन्मसिद्ध अधिकार है। अगर महिला है तो बिस्तर पर आने का प्रस्ताव देना..,
कभी-कभी तो शिक्षक को मतदाताओं के द्वारा भिखारी समझ कुछ सिक्के अपने बच्चों के द्वारा दिला देते हैं।) मतदान पेटी उठानी हो तो शिक्षक..

–खुले में शौच करनेवालों का निगरानी करना,और उनकी तस्वीर खींच अपने उच्च अधिकारी को भेजना। तस्वीर खिंचते या निगरानी करते पकडे जाने पर आमलोगों से खुद की जमकर मरम्मत करवाना।
और तस्वीरे न भेजने पर अपना वेतन बंद हो जाने का डर  सताना।
 –विद्यालय में नामांकन के समय विद्यालय के आसपास के मुहल्लों के घरों में जा-जा कर अभिभावकों के आगे बच्चों के नामांकन के लिए गिड़गिड़ाना।
–शिक्षक को अपने ही वेतन के लिए चार-चार ,पाँच-पाँच महीने इंतजार करना।
इस भयावह कोरोना काल में सभी को घर में रहने के लिए लॉकडाउन में रखने के लिए सभी तरह से प्रयास किये गए और शिक्षकों को कोरोनटाइन सेंटर में कार्य पर लगाया गया। प्रवासियों के आने पर डॉक्टर से पहले स्टेशन पर शिक्षकों के द्वारा स्क्रिनिग करवाना। जनवितरण के दुकान में बैठकर करोनाकाल में भीड़ वाली जगह में अनाज वितरण करवाना.. उफ्फ्फ..
शर्म भी शर्मसार है..।

हमें खुली हवा में साँस लेने की आज़ादी चाहिए तो वातावरण में ज्यादा मात्रा में ऑक्सीजन फैलता रहे इसकी कोशिश लगातार करनी चाहिए। जो ऐसा नहीं कर पाते हैं उनसे धरा को आज़ादी मिलनी चाहिए।

मुझे मेरे बचपन में देशप्रेम बहुत समझ में नहीं आता था।आजाद देश में पैदा हुई थी और सारे नाज नखरे आसानी से पूरे हो जाते थे। लेकिन मेरी जीवनी

हम चिंता नहीं करते किसी की, जब खिलखिलाते हैं।
ज़मीर अपनी-आईना अपना, नजरें खुद से मिलाते हैं।।

और झंडोतोलन हमेशा से पसंदीदा रहा। स्वतंत्रता दिवस के पच्चीसवें वर्षगांठ पर पूरे शहर को सजाया गया था। तब हम सहरसा में रहते थे। दर्जनों मोमबत्ती , सैकड़ों दीप लेकर रात में विद्यालय पहुँचना और पूरे विद्यालय को जगमग करने में सहयोगी बनना आज भी याद है। 50 वीं वर्षगाँठ पर कुछ अरमान अधूरे रह गए जिन्हें 75 वीं वर्षगाँठ पर पुनः उस पल को जी लेने की इच्छा बनी हुई है।

सन् 2011-2012 की बात है । रामनवमी चल रहा था । अष्टमी या नवमी के दिन मैं मेरा बेटा और मेरी पड़ोसन शहनाज़ तथा उनकी दोनों बेटियाँ घर के पास ही बने पंडाल में मूर्ति और सजावट देखने के ध्येय से पहुँच गए। रात्रि के लगभग दस बज रहा होगा। जब हमलोग पंडाल के पास पहुँचकर दर्शन कर रहे थे तो कुछ पुलिस कर्मी आकर हमलोगों को हट जाने के लिए कहा।
"क्यों ? हम क्यों हट जाएँ हमें आये तो मिनट भी नहीं गुजरा है।" मैं पूछी
"मुख्यमंत्री आने वाले हैं उनके आने के पहले भीड़ हटा दिया जाना नियम है।" एक पुलिस ने कहा।
"क्या यहाँ मुख्यमंत्री का ऑफिस है या किसी कार्य हेतु..,"
"दर्शन करने आने वाले हैं।"
"तो दर्शनार्थियों की तरह पँक्ति में लगें या गाड़ी में बैठ प्रतीक्षा करें हमारे दर्शन कर हट जाने की।"
"यह आप ठीक नहीं कर रही हैं..,"
"धमकी दे रहे हैं क्या कोई धारा लगता है ? मुख्यमंत्री को बता दीजिएगा , वो जो पूरे लावलश्कर के साथ दस गाड़ियों एम्बुलेंस के साथ निकलते हैं और सड़कों पर चलने वाली जनता को थमा देते हैं। ऑटो बस में सवारी करने वाली लड़की महिला देर से जो आना-जाना गन्तव्य स्थल पर देर से पहुँचती है और व्यंग्य सहती है। जी भर गाली देती है। मतदान के समय जो पैदल चलकर घर-घर घूमते हैं और जीत के बाद शहंशाह बन जाते हैं उनसे आज़ादी की चाहत रखती है जनता।" हमलोग पूरा दर्शन कर ही हटे।

'स्व स्वतंत्रता की रक्षा स्व अधिकार भी स्व दायित्व भी'
: सबको अपनी स्थिति तब विकट लगने लगती है जब जंग लड़ने की क्षमता खुद में कम हो और दोषारोपण की आदत बन जाये.. :

Sunday 9 August 2020

हाइकु

रेत की आँधी–
दर्जी हट्टी में खड़े
नंगे पुतले।
बर्फ गलन–
छज्जे नीड़ से उड़े
फाख्ता के बच्चे।
समझ लेना प्रत्युत्तर निष्पादन का सुरा होता है
हाँ! बहुत अच्छा होने के पहले कुछ बुरा होता है
आवेग में सिक्के का दूसरा रुख नहीं देख पाते हैं

Thursday 6 August 2020

समझ सको तो समझो, ना समझ सके तो...

"जानती हैं माँ! मोहन का एक किडनी निकाल लिया गया!"
सोहन से इतना सुनते रमिया चिहुंक उठी,-"विस्तार से बताओं कैसे क्या हुआ ?"
"मोहन को बुखार कफ गले का दर्द था। उसने अपना टेस्ट करवाया तो कोरोना पोजिटिव आया...। उसे अस्पताल में रखा गया और दो दिन के बाद पुन: टेस्ट हुआ तो रिपोर्ट निगेटिव आया। अस्पताल से छुट्टी पाकर घर आया तो उसे पता चला कि उसके पेट में लम्बा चीरा है। उसने टेस्ट करवाया तो पता चला कि उसका एक किडनी निकाल लिया गया है।"
"तो उसके आगे अब क्या होगा ? पुलिस केस किया जाना चाहिए।"
"एफ.आई.आर. करवा दिया गया और उस अस्पताल में ताला जड़ा जा चुका है...। चिकित्सक संग सभी सहायक पुलिस हिरासत में हैं।"
"सबको सज़ा हो जायेगा । सोहन का किडनी तो नहीं लौटेगा...,"



–स्वर्णिम काल अध्याय है यह 2020
काल का काल है...
कहीं पर किडनी तो
कहीं सारे अंग निकाले जा रहे हैं...

–समय-काल निकल गया..
चाँदी के ईंट नींव निगल गया...

–इस काल में भी साधु के तोते की संख्या कितनी होगी ...
राम मंदिर का निर्माण तत्काल में कितना आवश्यक था
हमें जानना-समझना था....

–इंसानों के आचरण , व्यवहार और चरित्र में भी राम जो विराजने लगते...
तो यह बात 2021 के रामनवमी तक तो टल ही जाती...

–यह काल चुनाव में कमाई का है
जनता किस ब्रांड का तेल कानों में डाल लेती है..
कितने घोड़े बेचकर सो जाती है...
शोध का विषय है...

–यह काल परबचन काल है...
गलतफहमियों का काल है


Wednesday 5 August 2020

खोज/पड़ताल


"सुनों न प्रकृति के सभी पशु-पक्षी, कीट-कीटाणु पेड़-पौधे की प्रवृति एक सी होती हैं, पूर्णिमा को लहरें भी समझ में आ जाती हैं... किन्तु/परन्तु/लेकिन.."
"बोलने में अटकना क्यों?"
"मन्वंशी की प्रवृति की प्रकृति उत्थान-पतन के चरम पर क्यों होती है..  अहम या यों कहें एटीट्यूड...?"
"अगर अहम को ऐपटाइट के लिए छौंक में प्रयोग करना होता... अगर एटीट्यूड को लॉकर में रखा जाता तो... ?"
"मान लो A/1+t/20+t/20+i-/9+t/20+u/21+d/4+e/5 = Attitude/100 क्यों ना हो मतवाला?"
"और अहम?"


चाहत कहने वाले चाह से मिला को भूल जाते हैं।
मन्नत कहने वाले मांगने के सिला को भूल जाते हैं।
क्या फर्क नहीं पड़ता कि कौन किसके खिलाफ है,
मुदिता कहने वाले माया से गिला को भूल जाते हैं


Monday 3 August 2020

लाभ-हानी




कई महीनों से प्रतिदिन इसी रास्ते से गुजरती हो।
एक ही रास्ते के पेड़-पौधे एक ही क्यारी!
रोज ऐसा क्या देख पाती हो?
जो तुम्हारे चेहरे का हावभाव बदलता रहता है।
कभी शिशु सी मुस्कान खिलती है तो...
कभी वात्सल्य उमड़ता है।

क्या तुम्हें एहसास नहीं होता?
नये किसलय निकले दिखलाई नहीं देते...
पीलापन! न ना पीलापन कहूँ तो
पीलिया का ख्याल आता है
उफ्फ्! वायरल शर्त।
वृद्धि हुई स्तरों बिलीरुबिन
क्षतिग्रस्त जिगर गर्त
किसी रोग को याद नहीं करना... 
तुमलोग क्या कहते हो येल्लोइश?
अच्छा! कुछ अंग्रेजी के शब्द तुम्हें भी जमने लगे हैं
ना! ना, ऐसा बिलकुल नहीं है
देखो न एक समान जमीन, धूप, हवा, पानी मिलने पर
कोई किसलय होड़ में आगे है... क्या इसे नहीं पता
ज्यादा ऊँचाई झुकने पर मजबूर करती है
ओह्ह तुम हमेशा 'लीनिंग टावर ऑफ़ पीसा' याद रखती हो 
अरे क्या बात है! इसे इस तरह लो न
पड़ोस के बच्चे का अच्छा ग्रोथ देखकर दूसरे कुढ़ रहे
ऊँचे को देखने के लिए गर्दन ऊँची जो करनी पड़ती है

जब से ऊँचे दर की महत्ता बढ़ी
तब से ऊँचे अहम की नशा चढ़ी
समय ने लगाम खिंची और...
हम प्रकृति के करीब आये...

दुर्वह

“पहले सिर्फ झाड़ू-पोछा करती थी तो महीने में दो-चार दिन नागा कर लिया करती थी। अब अधिकतर घरों में खाना बनाने का भी हो गया है तो..” सहायिका ने ...