Friday 29 December 2017

जिंदगी है यूँ ही मरीचिका


बहुत पुरानी बात है करीब सन् 1972-1973 की
मैं एक साल विद्यालय नहीं जा पाई थी... गाँव में रहना पड़ा था... सुविधा नहीं था... प्रतिदिन विद्यालय जाने के लिए... दिनभर छत के बरामदा में बैठी, नाद से बंधे गाय बैल को खाते जुगाली करते देखती थी...
अभी बैंगलोर में ,वही याद आ रहा है... नाद से बंधी हूँ और खाना जुगाली करना जारी है...
#सोच_रही_हूँ_ना_जाने_कब_तक_यहाँ_हूँ_समय_का_सदुपयोग_करूं_स्कूटर_चलाना_सीख_लूँ...

डर गया सो....
सच पूछो तो कल जब स्कूटी पकड़ी तो अजीब सा डर समाया कि ना बाबा ना इस उम्र में अगर हड्डी टूटी तो जुड़ेगी भी नहीं...
बहुत भारी लगी स्कूटी पीछे से भगनी जबकि पकड़ी हुई थीं...
भगनी बोलीं चलिये मामी मैं भी अभी सीख ही रही हूँ... आपकी सहायता करती हूँ...
कल(28-12-2017) पहली बार उनके सपोर्ट पर पकड़ ही ली हेंडिल..
आज(29-12-2017) जब स्कूटी छुई तो लगा अरे मैँ लिए दिए धड़ाम होने वाली हूँ कोई पकड़ने वाला भी नहीं था
आज दिन भर हर थोड़ी देर पर पकड़ी घिसकाई...
अब डर नहीं है कि गिर जाएगी स्कूटी...
यूँ जाड़ों में धड़कन बढ़ाना ठीक नहीं... लेकिन सीखने की उम्र भी तो तय नहीं....


सत्यता से आँखें क्या चुराना
कल की कल देंखेगे फसाना
छीजे तन मन स्व बोझ बनता
चिंता फिक्र को लगाओ ठिकाना

Wednesday 27 December 2017

वक्त को अजगर ना बनने दो




विभा :- "पत्रिका के लिए ,अपनी रचना मणि को भेज दीं क्या आप ?"
श्रेया :- "रंग वाली क्या दी? रंग पर अभी लिख ही नहीं पाई न दी कोई..."
विभा :- "अरे आपको लिखने में इतना क्या सोचना... !"
श्रेया :- "अरे नहीं दी ऐसा भी कुछ नहीं... बस ऐंवेंई जब कलम चलती तो लिख जाती कुछ भी... खैर! मैं आजकल में लिखने की पूरी ईमानदारी से कोशिश करुंगी
विभा :- "ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्ज्जे हुई न श्रेय वाली बात!"
श्रेया ❤️ :- "जै हुई न हमारी दीदिया वाली बात!"
विभा :- "हम प्रतियोगिता में भी अलग अलग नहीं हो सकते चाह कर भी!"
"श्रेय+ज्योत्स्ना"
श्रेया:- "चाहना ही काहे ऐसा? आप पिछले कई दिनों से हमारी ज्योत्सना दीदिया वाली बात नहीं कर रही थी न तो श्रेया को चांदनी मतलब ऊर्जा नहीं मिल पा रही थी न... पक्का पक्का कोशिश करुंगी दी..
आपने क्या लिखा दी ? और हायकु का क्या हुआ दी ?"
विभा :- "जनवरी से पेज बनाउंगी... दिसम्बर में बहुत तनाव रहा कई सवालों को लेकर
श्रेया :- "हम्म्म समझ सकती ! अभी पिछले बहुत से दिन हमारे भी तनाव भरे ही गुजरे परिवार व स्व स्वास्थ्य को लेकर...!"
विभा :- स्वास्थ्य के बारे में तो जानती हूँ हमेशा बात होती रहती है! परिवार ?"
श्रेया :- "अले दी पूछिए मत! जेठानी साहिबा ने बहुत ही परेशान कर रखा है
आए दिन का टेंशन... शराफत का नाजायज फायदा...!"
विभा :- "ओह्ह! आप जब जानती मानती हैं ,
शराफत का नाजायज फायदा तो बंद करने की कोशिश करनी होगी...!"
श्रेया :- "या कहें जीवन के रंग...!
अब तो यही लगता दीदू बहुत ज्यादा हो चुका...!"
विभा :- "बहुत होने के पहले नहीं रोका जाता तो कुछ नहीं बचता... !"
श्रेया :- "पर लगता बहुत ज्यादा तो हो चुका दी... पर फिर भी देखते हैं... अब क्या किया जा सकता...
वो तो नहा धोकर पीछे पड़ गई हैं मेरे... !"
विभा :- "क्यों सहा... मिला क्या ?
श्रेया :- "वही तो दी... हासिल कुछ नहीं!"
विभा :- "विरोध में जरूरी नहीं कि बदतमीजी किया जाए ,
लेकिन विरोध होना चाहिए अपने को सामान्य रख कर भी...!"
श्रेया :- "यानि इज्ज़त से मनाही?"
विभा :- "बिल्कुल... और नहीं तो क्या... "
श्रेया :-"अभी तो बीमारी का ही बोला..."
विभा :- "आत्म सम्मान सबसे पहले जरूरी... वैसे वो क्या चाहती हैं ?"
श्रेया :- "दाई नौकर की तरह समझना... गाहे-बेगाहे अपनी बेटी के ससुराल खुद ना जाकर , काम करने के लिए मुझे ही भेजने के लिए भी जिद करना..."
विभा :- "किसी का हक़ नहीं कि आपकी खुशियाँ छीने... अगर आपको पसंद नहीं तो अब , जब वे बुलाएँ तो आप तब बोलिए... देखते हैं... देखेंगे... इनसे पूछते हैं... खुद जाने का निर्णय आप कर सकती हैं... ऐसा ऊँगली क्यूँ पकड़ाईं आप ? दोषी आप भी हैं... !"


दुर्वह

“पहले सिर्फ झाड़ू-पोछा करती थी तो महीने में दो-चार दिन नागा कर लिया करती थी। अब अधिकतर घरों में खाना बनाने का भी हो गया है तो..” सहायिका ने ...