Tuesday, 31 December 2019

नव पल नवोत्थान नवजीवन


हदप्रद पल दोनों कल के सिरे को पकड़े,
आज हर्ष पर बीते कल के डर को जकड़े,
कल , कल में बदल गया विदाई बधाई में–
पाए हक़ निभाये दायित्व पर नियति रगड़े।


हर साल तो यही होता है
थार्नडाइक का
सीखने का सिद्धान्त चलता है
प्रयत्न एवं भूल/प्रयास और त्रुटि का सिद्धांत
संयोजनवाद का रहता सिद्धांत
कम ज्यादा के अनुपात
पलड़ा कब किसका भारी हुआ
पता तब चला
जब सपने टूटने का चक्कर जारी हुआ।
लू की दोपहरी छाया
बूँदों में साया मिलने लगा।
अधूरे सपनों की कसक मिटा
उल्लासित काया मिलने लगा।


Monday, 30 December 2019

हाइकु

01.
साल का अंत-
वो छटपटा रहें
निशीथ काल।
02.
शीत सन्नाटा/शीत की शांति–
खिड़की के शोर से
कांप गई मैं।

 Monterey, 17-mile drive, Carmel

सेवेंटीन माइल्स यानी
लगभग सत्ताईस किलोमीटर में फैला समुंद्री तट(बीच)
चमचमाती रेत पे चांदी का वर्क
सिंधु में बिखर गया चांदी समेटे जल
सोनार ने निशा का गहना साफ किया
निशा पहन रही वर्षों से चांदी की हंसिया हार
पहरा था एक सितारे की बिसात
कल ही तो जिक्र की रात थी दूज की बात
खुद के लिए जिद किसी ने नहीं ठानी
चौराहे पर पहले आई गाड़ी को
पहले निकलने का मौका देते ज्ञानी
ग्लोबल जगत के सारभूत
विशेषताओं से परिचित अनुसंधानी

उन ठहाकों का शोर कम हो चला,
शातिर बन बेवकूफ बनाने की
कोशिश कामयाबी पर जो गूंजी थी।
रामायण गीता महाभारत
इतिहास भूगोल की गवाही से
नहीं चेतता अहमी मौंजी



Thursday, 26 December 2019

नव भोर उल्लासित रहे


उग्रशेखरा सा उच्चाकांक्षी में
उच्छृंखलता उछाँटना
अन्य पर वार करने का
कारण बनाओ
तो
बहुत खतरनाक
बनाता है..
वरना सच तो
सबका ज़मीर जानता है..


Tuesday, 24 December 2019

क्रिसमस की बधाई


जाड़े की छुट्टी/क्रिसमस डे/क्रिसमस+अह्न=क्रिसमसाह्न
जुगनुओं की बाढ़
तंबू में छाई।


तेरा दिया वो जख्म खुला रखता है,
आईना सँजोता नहीं गम रिसता है,
बिना श्रम फलक पर चमक जाता–
जलसा-जलसा चहुँ ओर दिखता है।


गलतियाँ मत ढूंढो, उपाय ढूंढो......नहीं तो ढूंढते ही रह जाओगे और रिश्ते समाप्त हो जाएंगे....सदा सदा के लिए 
©नीरज कृष्ण





Friday, 20 December 2019

मुक्तक

यादोहन होता रहता है जब तक हम कमजोर होते हैं
01.
बेहतर पाने के दौड़ में शामिल होते हैं,
परेशानियों-झंझटों के भीड़ में खोते हैं,
अपनी शिकायतें दुश्वारियों का क्यों करें-
लुटा-मिटा त्याज्य जी अनगुत्ते सोते हैं।
02.
कीमत तो चुकानी थी हद पार करने की,
जिंदगी मीठी कड़वे घूँट पी दर्द सहने की,
बहुत मिले दिल चेहरे से खूबसूरत न था–
आदत बनी प्रेम के गैरहाजिर में रहने की।

Wednesday, 27 November 2019

सीख

साहित्यिक स्पंदन जुलाई-दिसम्बर अंक में रचनाकारों की तस्वीर लगाई जा रही थी.. रवि श्रीवास्तव की रचना में उनकी तस्वीर लगाते हुए नैयर जी बोले,-"इतना सीधा-साधा भोला-भला इंसान हैं कि देखिए इनकी तस्वीर भी आसानी से निर्धारित स्थान पर फिट हो गई।"
"ज्यादा गलतफहमी में मत रहिएगा शहाबुद्दीन के इलाके का है.. नटवरलाल भी उधर पाए जाते हैं।" संपादक की बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि रवि श्रीवास्तव का फोन आ गया,-"तुम्हारी आयु लम्बी हो अभी तुम्हारी ही बातें हो रही थी... तब तक तुम्हारा फोन आ गया!"
"अरे वाहः! मेरी क्या बात हो रही थी दी?" पूरी बातें सुनने के बाद बोला कि,-"दी! उस इलाके में राजेंद्र प्रसाद देश के प्रथम राष्ट्रपति भी थे... पहले तो हम उनका अनुसरण कर करबद्ध होते हैं... सामने वाला मजबूर ना करे तो कौन शहाबुद्दीन बनना चाहे?"
"सत्य कथन! हम दोनों हो सकते हैं... सामने वाला तय करे कि हम क्या रहें!"

लचकती डार नहीं
जो लपलपाने लगूँ
दीप की लौ नहीं
जो तेरे झोंके से
थरथराने लगूँ
लहरें उमंग में होती है
बावला व्याकुल होता है
तेरे सामने पवन
वो ज्योत्स्ना है
शीतल, पर...
सृजन बाला है
बला अरि पर
बैरी ज्वाला है
आगमन पर
अभिमान मत कर
हर शै वक्त का निवाला है

Friday, 1 November 2019

मुक्ति



यूँ तो भाईदूज के दिन बिहार के मिथिला में भी रंगोली बनाई जाती है.., परन्तु दक्षिण भारतीयों के घर के सामने, प्रतिदिन सुबह पौ फटने के पहले, दरवाजे पर रंगोली का बनना हमेशा चित्ताकर्षक होता है। दशहरे का समय और रविवार था कुछ दूरी पर महिला टोली डांडिया में मस्त थी... दोपहर में रंगोली बनाने के लिए जुटी रंगीन परिधानों में सजी युवतियों की टोली... लुभा रही थी.., बेहद दिलकश नज़ारा था..., बैंगलुरू के कब्बल पार्क में।दिलकश नजारे में पुष्पा भी भींगना डूबना चाह रही थी.. लेकिन वह थोड़ी झिझक में थी क्यों कि सभी उसके लिए अनजान थीं। असल में वह पोयट्री ऑन ट्री में शामिल होने के लिए कब्बन पार्क में आई थी। लगभग साठ-पैसठ रचनाकारों का जुटान हो चुका था.. दो-चार ही वरिष्ठ रचनाकार थे बाकी सभी उन्नीस साल से तीस साल के बीच के युवा रचनाकारों का जमावड़ा था। आह्ह! रचनाकारों के बीच से भागकर, डांडिया खेलती महिलाओं की टोली की हिस्सेदार बनने की इच्छा मचल रही थी.. सोच रही थी कि कब सब चाय-नाश्ते का आनन्द लें और वह.. "मैं ड्रग एडिक्ट था" सुनते ही स्तब्धता से जड़ हो गई... बाइस-तेईस साल का युवा इतनी बात से अपना परिचय देते हुए, अपनी हिन्दी कविता का पाठ कर रहा था.. उस युवा के हिन्दी में पाठ करने के बाद अनेक युवा रचनाकारों ने कन्नड़ उड़िया मलयालम व अंग्रेजी में गिटिर-पिटिर किया.. अन्य दिन होता तो शायद पुष्पा कुछ समझने-सीखने की कोशिश भी करती, आज अभी तो "मैं ड्रग एडिक्ट था" में ही पूरा ध्यानमग्न थी। अगर किसी चीज से घृणा पुष्पा को था तो वह है नशा.. किसी तरह का भी हो नशा। उसके जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं था जिसकी वह अभ्यस्त हो, जिसके बिना उसका पल काटना मुश्किल हो जाये..। वह तो चाय भी नहीं पीती थी.. वह कई लोगों को देखती थी कि अगर समय पर चाय नहीं मिला तो उन्हें सर दर्द की बैचेनी या व्याकुलता से तड़पते हुए। शादी के पहले पड़ोसन भाभी ने कहा,-"पुष्पा जी अभी हमलोगों के साथ चाय नहीं पी रही हैं , जब शादी हो जाएगी तो अपने वो के साथ चाय पियेंगी। उन्हें तो इंकार नहीं ही कर पायेंगीं।""देखते हैं..!" कंधे उचकाते हुए पुष्पा ने कहा । मानों उसे चुनौती दी गई हो और उसने स्वीकार किया। उस बात को गांठ बांध कर रख ली हो जैसे और रोज याद रखती है चुनौती को। आज तक इस नाती-पोते खेलाने वाले हुए उम्र के पड़ाव पर भी चाय के लिए इंकार कर देती है.. आज भी तो इंकार करती है जब एक युवती फ्लास्क और कप उसके सामने करती है... ट्री ब्रेक हो चुका था सभी अलग-अलग टोली बनाकर मन की बातें साझा कर रहे थे। पुष्पा की नजरें उस युवा को ढूँढ़ने में कामयाब रही जिससे उसे उसके वापसी का राज पता करना था वह युवा के समीप जाकर कहती है,-"क्या मैं आपसे कुछ बातें कर सकती हूँ?"
"जरूर मैंम! क्यों नहीं!" युवा अपने साथियों से इजाज़त लेकर पुष्पा के साथ एक जगह पर बैठ जाता है।
"पूछिये मैंम क्या जानना चाहती हैं?"
"आपने कहा 'मैं ड्रग एडिक्ट था'.. मुझे विश्वास नहीं हो रहा है कि क्या कोई ड्रग एडिक्ट होकर पुनः सामान्य जीवन जी सकता है ? आपको देखकर आपको बोलते देखकर कोई अंदाजा ही नहीं लगा सकता है कि आप कभी ड्रग एडिक्ट रहे भी होंगे!"
"आप मेरी बातों पर विश्वास कर सकती हैं आंटी.. आपसे या यहाँ किसी से झूठ बोलकर मुझे क्या फायदा हो सकता है..? ड्रग एडिक्ट कहलवाना कोई गौरव की बात , कोई शान की बात तो है नहीं!"
"ठीक है मैं आपकी बातों पर विश्वास कर आपकी पूरी कहानी जानना चाहती हूँ जिसे सत्यता की कसौटी पर कसी भी जा सकेगी। आपकी आपबीती से शायद दूसरे किसी को कोई फायदा हो जाये उसको रिकॉर्ड कर सोशल मीडिया पर प्रसारित भी करूँगी, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग जान सकें।"
"आंटी आप तो मुझे अपने पापा से फिर डाँट खिलवाएँगी।"खिलखिला उठा वह युवा।
"अरे! नहीं, बिलकुल नहीं। मैं ऐसा बिलकुल नहीं चाहूँगी। अगर आपको लगता है कि आपकी कहानी छुपाकर रखनी चाहिए तो आप बिलकुल नहीं बतायें। मेरी कोशिश समाज हित के लिए है। आज हर शहर में युवा बर्बाद हो रहे हैं। उनकी ड्रग पर इतनी निर्भरता हो गई है कि छोटी सी खुशी भी नशे की मोहताज है और छोटे गम भी!"
"आपके कथन से बिलकुल सहमत हूँ आंटी। अपने अनुभव में भी यही पाया। मैं तैयार हूँ आपके वालों के जबाब देने के लिये।"
"मुझे विस्तार से जानने की इच्छा है। आप ड्रग एडिक्ट कैसे बने यानी लत कैसे लगी, लत व्यसन में कैसे बदला, ड्रग में क्या-क्या लेते रहे, ड्रग लेने से कैसा अनुभव होता था, अनुभव से क्या परिवर्त्तन होता था, आपके अपने घर वाले, रिश्तेदार, माता-पिता, भाई-बहन के रोकने समझाने की कोशिश कितनी कामयाब रही ड्रग एडिक्ट की जिंदगी से सामान्य जीवन के लिए वापसी में?"
"आपको अपनी कहानी विस्तार से ही बताउँगा। उच्च स्तरीय के बच्चे जिस विद्यालय में पढ़ते थे उसी विद्यालय में मेरा नामांकन हुआ। जैसा आपने कहा आंटी कि आजकल के बच्चों के लिए छोटी सी खुशी भी नशे की मोहताज है और छोटे गम भी! उच्च स्तरीय बच्चों के जीवन में शायद ही कोई गम का मौका होता हो और खुशी का मौका ढूँढ़ने की उन्हें जरूरत नहीं होती.. उनके पास इतना पैसा और इतनी आज़ादी होती है कि हर पल ही खुशियों भरा लगता है और नशा उनकी जरूरतों में शामिल होता है, उनको विरासत में मिलता है। उन बच्चों का साथ व दोस्ती पाने की आकांक्षा में उनके साथ सामंजस्य बैठाने के चक्कर में उनके दिए प्रस्ताव को अपनाने में लत लगा बैठा और लत कब व्यसनी बना देगा यह पता ही नहीं चल पाता है। ड्रग के रूप में सब वो चीज लिया जिससे नशा हो सकता है, शक्कर, शराब, सिगरेट, कोकीन, कफ सिरप, अफीम, आयोडेक्स इत्यादि। किसी चीज का नशा दिमाग के एक हिस्से 'रिवॉर्ड सेंटर' पर असर करता है जिससे शांति का अनुभव होता है। लेकिन उससे सोचने-समझने-भूख लगने की शक्ति छीन जाता है। अपने ही घर में चोर, झूठा बना देता है। मैं एकल बच्चा हूँ, अपने-अपने जिंदगी में व्यस्त माता-पिता का। दोनों महत्वाकांक्षी दोनों नौकरी पेशा में जंग लड़ते हुए घर को भी युद्धस्थल बनाये हुए। ऐसे घरों में आस-पास के समाज और रिश्तेदारों का प्रवेश निषेध होता है। मेरे ड्रग एडिक्ट होने की खबर जब तक उनतक पहुँचाई गयी तब तक शायद बहुत देर हो गई थी। मेरी माँ बहुत रोती समझाती अपने को गुनहगार ठहराती रही। पिता सब कोशिश किये डॉक्टर को दिखलाया, समझाया, डाँटा-पीटा भी। नशा मुक्ति केंद्र में रखा गया। ड्रग निर्भरता खत्म नहीं होना था सो नहीं हुआ। वर्षों से रोते-गाते, उलझनों में घिरी अंधकारमय जिंदगी घिसटती गुजर रही थी। एक दिन मुझे 104° बुखार था। घर के हर कोने को छान मारा कहीं कोई दवा और ड्रग नहीं दिखा। ओह्ह! बीते कल रातभर में ही तो ड्रग खत्म हो गया था। माता-पिता शहर से बाहर गए हुए थे। इतने वर्षों में कोई साथी नहीं रह गया था। अपनों का साथ तो ना जाने कबसे छूट गया था। बुखार के लिए भी दवा लानी थी। किसी तरह हिम्मत कर के घर से बाहर आया। शरीर बुखार के ताप और ड्रग की मांग से व्यथित.. व्याकुलता व उस तड़प को शब्दों में आपको नहीं बता सकता अभी। जिंदगी छीजती जाने का एहसास लिए बेहोश होकर गिर पड़ा... घर के हाते में बहुत देर बेहोश रहा। कुदरत का करिश्मा कहिए या मेरी माँ आशीष, मुझे होश आया तब बुखार भी कम था... उठने के लिए बहुत श्रम करना पड़ा..। उठकर घर में आया तो तब मैं पूरी तरह होश में था ड्रग का अंश नहीं था मेरे शरीर में, ठीक सामने दीवाल में लगे शीशे में मेरा अक्स दिखा.. मैं खुद को पहचान नहीं रहा था..। मेरा पहिले का फोटो दीवाल पर टँगा दिखा.. मोबाइल में से निकाल कर फ़ोटो देखा.. घर में पड़े एलबम को निकाल कर बहुत देर तक सब तस्वीरों को देखता रहा। फिर माता-पिता का चेहरा मेरे सामने घूमता रहा..। उनके दुख को मैं उस पल महसूस किया। यह बातें आपको फिल्मी लग रह होगी आंटी! लेकिन यह सौ फी सदी सच बातें हैं। उसी दिन मैंने तय किया कि आज और अभी से ड्रग लेना बंद। उसके बाद से और आज का दिन मैं ड्रग को हाथ नहीं लगाया। अपने शरीर में उसका प्रवेश पूरी तरह निषेध किया। मेरे शरीर को बहुत-बहुत कष्ट हुआ। मन से बहुत बार कमजोर पड़ा। असहनीय पीड़ा होती थी लेकिन दिमागी मजबूती मुझे सम्भलने में मदद किया। आज आप मेरा उदाहरण देकर समाज को चेता सकती हैं अगर आप मुझ पर विश्वास कर पाएं।"
"पूरा विश्वास कर रही हूँ आपकी बातों पर। रब करे आप सदा यूँ ही मजबूत इरादों के साथ अपनी जिंदगी गुजार पाएं।"
"आंटी मुझे भी आपसे एक सवाल करनी है, क्या कर सकता हूँ ?"
"हाँ! हाँ! बिलकुल सवाल कर सकते हैं!"
"अभी आपने जो क्षोभ शीर्षक से कविता का पाठ किया उसका सारांश था कि वो बेटियाँ बुरी होती हैं जो शादी के तुरन्त बाद अलग अकेले जिंदगी गुजारना चाहती हैं। वो बेटियाँ कहाँ होती हैं वो तो बहुएं हो जाती हैं न?"
"शादी के बाद कहलाती तो बहू है लेकिन संस्कार-परवरिश तो वे लाती हैं संग और रहती बेटियाँ ही हैं। अगर अपने को बहू मान लें तो सास-ससुर को अपना ही लें।"
"क्या यह आपका अपना अनुभव है क्या ऐसी बेटियाँ आज भी पाई जा रही हैं?"
"यह बिलकुल जरूरी नहीं कि लेखन में स्वयं का अनुभव हो । समाज से भी अनुभव मिलता है और लेखन में अनुभव और कल्पना का मिश्रण भी होता है।"
"आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा आंटी।"
"मुझे भी बहुत अच्छा लगा और यहाँ आना सार्थक भी हुआ। अब मैं आआपलोगों से विदा लेती हूँ पुनः मिलने का आस लिए।"

Friday, 25 October 2019

तम छटा


"महाशय! समझ में नहीं आया किस कारण विगत कुछ माह से आपकी संस्था क्षरम से वांछित सहयोग राशि प्राप्त नहीं हो पा रही है...?" साक्षी फाउंडेशन के सचिव ने क्षरम के कोषाध्यक्ष से शिकायत भरे लहजे में पूछा।

"हाँ! सहयोग राशि रोक दी गई है।  इस सम्बंध में आपके विरुद्ध एक पत्र प्राप्त हुआ है!" कोषाध्यक्ष ने इत्मीनान से कहा।
"वो क्यों ? किस सम्बंध में? सचिव ने चौंकते हुए पूछा।
"क्या शिकायत आई है जरा मैं भी जान लूँ!" पुनः सचिव की उत्तेजक आवाज गूँजी

"अकस्मात् जो मंडली बाढ़ राहत सामग्री लेकर गई थी उसके एक सदस्य ने आपको अपनी सहयोगी महिला के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देखा और बिना आपको कुछ कहे वहाँ से भाग आया..! गलती भूल यह हुई कि वह उस दृश्य की फोटो नहीं ले सका...।"

"यह मेरा निजी मामला है... इससे किसी को क्या लेना-देना...?" सचिव ने ढिठई दिखाते हुए कहा।

"किसी का नाजायज रिश्ता निजी नहीं रह जाता है... चाक से गढ़ने वाले हाथ चरित्र हरण नहीं करते...! हमारी संस्था चरित्रहीन लोगों की संस्था को कोई सहयोग नहीं देती है!" कोषाध्यक्ष क्रोधित हो रहा था।
"मेरी चरित्रहीनता का प्रमाण?"सचिव बेशर्मी की हद पार कर रहा था।
"यह मेरा निजी मामला है... आपका यह कथन जो मेरे मोबाइल में रिकॉर्ड हो चुका है... आपके चरित्रहीन होने का पुख्ता प्रमाण है... अब आप जा सकते हैं।" कोषाध्यक्ष की आँखें और उंगली का इशारा खुले दरवाजे की ओर था।

Monday, 21 October 2019

धोखा

किसी ने किसी के
कहे पर विश्वास किया
उस किसी के कहे पर
अन्य किसी ने विश्वास किया
और
उन तिगड़ी की बातों पर
अन्य कई लोग
पथगामनी बने

किसी बच्चे ने
ताश के बावन पतों को
एक पे एक सजा कर
ऊँचा और ऊँचा सजा दिया
और एक हल्के से स्पर्श से
ढह गया
 विश्वास का गलत निकलना
वही ढहाया गया ताश के पत्ते

विध्वंस है
आँखें कुछ कहती हैं
निभाये कर्म कुछ कहते हैं
जुबान से कही बातें
सार्थक जब नहीं होती है

छल लेना ज्यादा आसान
या छला जाना ..

ना जाने कब तक
सुल्तान बाबा भारती
खड़क सिंह के किस्से
पढ़े कहे सुने जाते रहेंगे


Monday, 14 October 2019

लोकार्पण-परिचर्चा

वाजा (राइटर्स एंड जनर्लिस्ट एशोसियेशन) के बैनर तले बैंगलुरू में  " यादों का कारवाँ " लोकार्पित।

 _मलयाली भाषी लेखिका ने सृजित की तीसरी हिन्दी कृति_ 

आज वाजा बैंगलुरू इकाई की ओर से "यादों का कारवाँ" नामक पुस्तक का विमोचन व परिचर्चा का कार्यक्रम करूणाय हाल जीवन बीमा नगर बैंगलुरू में सम्पन्न हुआ। कार्यक्रम में दक्षिण भारत के विभिन्न भाषाओं के सैकड़ों लेखक - पत्रकार मौजूद रहे।
प्रातः 11 बजे से शुरू हुये इस कार्यक्रम का संचालन करते हुये वाजा बैंगलुरू के संगठन सचिव अजय यादव ने पुस्तक परिचर्चा के समीक्षकों का मंच पर आवाहन किया , बताते चलें कि बैंगलुरू में यह प्रथम अवसर था जब किसी पुस्तक समीक्षा व परिचर्चा हेतु मंच पर एक साथ बड़ी संख्या में लोग मौजूद थे । 
समीक्षा की विशेषता थी कि चार समीक्षक को 15-15 रचनाओं की और पाँचवें समीक्षक को सात रचनाओं की समीक्षा करनी थी... यह सार्थक सराहनीय अनुकरणीय प्रयोग था.. समीक्षकों में मधुकर लारोकर,उपाध्यक्ष वाजा बैंगलुरू डा.सुनील तरूण जैन वरिष्ठ मंचीय कवि, डा.शशि मंगल वरिष्ठ साहित्यकार जयपुर, विभा रानी श्रीवास्तव पटना श्री गजे सिंह सहित कई लोग मौजूद थे। 
इस अवसर पर उक्त पुस्तक की रचयिता केरल की मूल निवासी व मलयालम भाषा की प्रतिष्ठित लेखिका रेखा पी मेनन को वाजा संगठन की ओर से बैंगलुरू महासचिव प्रोफेसर लता चौहान ने अंग वस्त्र , माल्यार्पण व स्मृति चिन्ह प्रदान कर स्वागत किया। मंच पर उपस्थित अतिथियों का स्वागत वाजा बैंगलुरू की कोषाध्यक्ष श्री लता ने किया तथा संचालन सहयोग वाजा बैंगलुरू की सचिव चिलुका पुष्पलता द्वारा किया गया।
बताते चलें कि कविता संग्रह यादों का कारवाँ में कुल सरसठ(67) कवितायें हैं। इस पुस्तक के लेखिका की मातृभाषा मलयालम है फिर भी उन्होने हिन्दी भाषा में यह तीसरी कृति सृजित की है।
कार्यक्रम के आखिरी चरण में एक काव्य गोष्ठी भी आयोजित की गई जिसमें राशदादा राश, राजेन्द्र राही जी, सुशील जी शांति कोकिला,प्रियंका श्रीवास्तव पटना,अनीता तोमर , डॉ.सुनील तरूण इत्यादि ने कविता पाठ कर श्रोताओं की तालियाँ बटोरी।©डॉ. लता चौहान
यात्रा "यादों के कारवाँ" के संग
*विभा रानी श्रीवास्तव*

 पटना/बिहार में जून 2013

ज्येष्ठ के ताप से दीवानगी मिली
रेत पर नंगे पाँव दौड़ लगाती गई

रास्ते में राह रोके
बाधा में रोड़ा नहीं,
चट्टानों से सामना हुआ
ठोकर खाई ठोकर लगाई
झाड़ी नहीं,
विशाल वन मिले
शूल यादें निकालती गई
फूल यादें संजोते गई।
सुता बहना भार्या जननी बनी
स्त्री जीत गई जी गई जीती गई

शब्दों से उलझते-सुलझते हुए को समय ने संकेत भी नहीं दिया था कि छ: साल के बाद भविष्य के गर्भ में छुपी हुई जून 2019 में प्रकाशित कृति "यादों का कारवाँ" उसके हाथों में होगा। 1989 यानी तीस सालों से दक्षिण भारत की यात्रा कर रही हूँ। हिन्दी भाषा/बोली को लेकर सदा मैं मायूस होती थी कि आखिर हिन्द का हिस्सा होकर भी यह प्रान्त हिन्दी को क्यों नहीं अपना बना पाता है । तमिल, तेलुगु, कन्नड़, या मलयालम है तो क्षेत्रीय भाषा ही जैसे बिहार में उर्दू के संग भोजपुरी, मैथली, मगही, अवधी, पाली, वज्जिका या/व अंगिका।

लेकिन! हाँ, हम आँगन में बैठे-बैठे नभ को नापने का अंदाज़ा नहीं लगा सकते हैं। सागर के तह में जाकर ही मोती को पा सकते हैं। नियति ने 2019 का समय निर्धारित कर रखा था मेरे स्तब्धता के लिए। अभी हाल में13 सितम्बर 2019 को एम.ओ.पी वैष्णव महिला महाविद्यालय चेन्नई में हिन्दी विभाग की साहित्य समिति "मंजरी" द्वारा हिन्दी दिवस के अवसर पर एक कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया था, जिसमें कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहीं श्रीमती निर्मल भसीन (निदेशिका, समाज कल्याण, पंजाब एसोसिएशन चेन्नई) ने महाविद्यालय की प्राचार्या डाॅ. ललिता बालकृष्णन को वैष्णव गौरव सम्मान प्रदान करने की घोषणा कीं और शाॅल ओढ़ाकर उनका बहुमान किया। और उसी कार्यक्रम में मैं विशिष्ठ अतिथि के रूप में आमंत्रित उन्हें वैष्णव गौरव सम्मान चिह्न शील्ड प्रदान किया। डाॅ ललिता बालकृष्णन को वैष्णव गौरव सम्मान देने की घोषणा करते हुए श्रीमती निर्मल भसीन ने डॉ. कृष्णन के द्वारा हिन्दी को प्रचारित एवं प्रसारित करने की दिशा में किए गए कार्याें का उल्लेख करते हुए उनके द्वारा एम. ओ. पी. का ऐंथम हिन्दी में रचे जाने और लागू करने की भूरि- भूरि प्रशंसा की। मैंने अपने उद्बोधन में कहा कि पिछले तीन दशकों से चेन्नई आ रही हूँ , परन्तु आज चेन्नई शहर के इस महाविद्यालय में जैसा हिन्दीमय वातावरण देखने को मिला वैसा पहले कभी नहीं मिला था। मेरी आँखें जुड़ा गईं और राहत की सांसें मिली। मेरी चिर संचित अभिलाषा पूरी हुई कि दक्षिण भारत में भी हिन्दी का सम्मान है। वही भावानुभूति हो रही है आज 13 अक्टूबर 2019 को "यादों का कारवाँ" के संग-संग यात्रा करते हुए। 112 पृष्ठों में 67 विषयों को समेटे कवयित्री रेखा पी मेनोन जी की यह अद्धभुत सृजन है। मैं स्तब्ध हूँ इनकी सरल भावाभिव्यक्ति पर। कहाँ सहजता से हो पाता है सरल होना।

फाहे, रुई का ढ़ेर, श्वेत कबूतर सा से बादल की तुलना अनेक रचनाकारों के सृजन में सबको मिला होगा। बादल की तुलना तितलियों से करना अनोखा है ।तितली जिसके पंखों में सतरंगी छटा, तड़ित की सी फुर्ती, कोमलांगी का पुष्पों से अनुराग,ओह्ह! अनुपम है। हवाई यात्रा में मैंने भी कोशिश किया कवयित्री के भावों को अपने अनुभव में समेट लेने का। लेकिन मौलिक तो मौलिक है...! उदासी के पलों में मुस्कान उपहार होगी , 78 वें पृष्ठ पर रची 46 वें विषय की "यह बदरिया बावरी" रचना पर मुझे अचंभा हो रहा है कि दक्षिण भारतीय रचनाकार का सृजन है। आगे लिखती हैं, ओ मोरी बदरिया री, जरा मुझसे आके मिल री, रस्ता देख-देख तोरे, थक तो गयी अखियाँ री।इतनी गहरी प्रतीक्षा, इतना मनमोहक आमंत्रण.. कौन ना वशीभूत होकर आ जाये। उम्मीद है , अरे नहीं विश्वास है कि बादल से नायिका की भेंट अवश्य हुई तभी तो पृष्ठ सत्तासी पर विषय इक्यावन में "हे बादल" पुनः विराजमान है–मुस्काई मैं भी बादलों को देखकर, धुँधली सी मुस्कान-शायद कोई सोच भी हावी है! हाँ! है ना! दीप बनने का, न करती हूँ कोई वादा किसी से, मगर जुगनू बनने की, कोशिश जरूर करती हूँ। और बादल से अनुरोध कर रही हैं कि सारे भुवन में इस बात को वो फैला दे। भला बादल से बेहतर जग के कोने-कोने में विस्तार करने वाला दूसरा कौन हो सकता है। प्रचार-प्रसार का उचित माध्यम चुना नायिका ने। नायिका का सन्देश मिले और उसका अनुकरण कर विश्व का एक-एक मनुष्य जुगनू ही बन जाये । पथ-प्रदर्शक बन जाये। संसार का तम, ये युद्ध , ये विध्वंस, ये अराजकता, ये आतंकवाद, ये कालाबाज़ारी का नाश, यूँ! यूँ चुटकियों में हो जाये। अंतरात्मा में उजाले की कमी से ही तो यह हाहाकार मचा हुआ है। पूरी रचना का भाव अद्वितीय है। नमन कवयित्री को सामयिक सार्थक सृजन के लिए। 

हर रोज निकलता है जनाजे खुशी के, मगर गाती हूँ मैं नगमें खुशी के। पाठक के लिए हौसले का आधार बनेगी 47 वें शीर्षक "गुलिस्तान" की ये पँक्तियाँ । धरा-धारा-स्त्रियाँ कब ठहर गम मनाने का मौका पा सकी हैं। कब अम्बर टूटे तारों पर शोक मनाता है। कहते हैं न चिंता चिता तक की राह निष्कंटक बनाती है। ईश सदा इन्हें यूँ ही मस्त रखे।

   रातरानी भी, नागफनी भी, कनेर भी, पलाश भी, चंपा भी, रजनीगंधा भी, गुलाब भी होने चाहिए किसी सदाबहार बागीचे में । तम-ताप, शूल-फूल, विष-मध अमृत अनेक विभिन्नताओं को समेटे सुंदर-संतुलित आधार मिलता है जीवन जीने के लिए। आसान जिंदगी नहीं मिलती किसी को । किसी को जमी नहीं मिलती किसी को...। वक्त की ताकत, वक्त की नजाकत बड़ी खूबसूरती से समझाने में सफल रही है कवयित्री। कल्पना-विचार सराहनीय है। दुनिया वाले चाहे खूब सितम, अपने आपको संभालना होगा, अफ़कार को चाहे फाड़े बेरहमी से, बेझिझक अपने पे एतबार करना होगा, पृष्ठ अन्ठानवे के विषय साठ "मुकद्दर में क्या लिखा है" हिम्मत-हौसला-आस जगाती ही रचना है। खुदी को कर बुलंद इतना कि ख़ुदा तक़दीर बनाने के पहले तेरी रज़ा पूछे के स्तर की रचना बन गई है। परंतु थोड़ी हताश भी लगी है लेखनी या थक गई थी। दूर लहरों में, हिलती डुलती कश्तियाँ कई, मगर पकड़ने का कोई चारा नहीं, काश! टूटा हुआ ही सही कोई कश्ती होती "किनारे पे खड़ी हूँ" पृष्ठ 97 के उनसठवें विषय की नायिका में घबराहट है जिससे मनोचित गुण झलक रहा है। इंसान व ईश के बीच के अंतर का स्वाभाविक चित्रण । कवयित्री को साधुवाद!

ज़माना कहता है योगी है, निगुरे कहते ढ़ोंगी है। और गाँव के लौंडे कभी-कभी, दाढ़ी को खींचा करते हैं, 'पागल-पागल' कह-कह के उनको छेड़ा करते हैं।

हैरान थी मैं सोच-सोच के , ऐसा भी कोई होता है। नफरत की चिंगारी भी, न छू पाया उस मुख-मंडल को

बदला बर्बाद करती है स्व की जिंदगी। स्वानुभव से जाना-समझा-माना और मैंने अनुमोदन कर डाला कवयित्री के चित्रण से। सत्य का नहीं कर सकते अनुमोदन, व्यक्तित्व का नहीं हो सकता शोधन। शांति पाने का राज है पृष्ठ 82-83 के विषय 48 वें 'शांति' के चित्रण में। शांति के खोज के लिए हम प्रयत्नशील होते हैं, जगत में भटकते हुए और शांति होती है हमारे आत्मा/ज़मीर में लिप्त। हमारे अशांत होने का कारण हमारे स्व का व्यवहार ही होता है। सब समझें कि हमें शांत होने में कैसे सहायता मिल सकती है। किसी के नकारात्मक बातों में, क्रिया-कलापों में हिस्सेदारी ना निभायें। लोग कहते हैं फलाने ने फलाने का अपमान कर दिया! क्यों भाई कैसे? मैं तो कहती हूँ , फलाने ने फलाने के सामने अपने संस्कार-परवरिश का प्रदर्शन किया और उस फलाने ने क्या लिया? यह तो पता कर लो। मैं तुम्हें कोई वस्तु पकड़ाई और तुमने उसे नहीं लिया तो वह मेरे पास ही रह गई न? सरलता-सहजता से लेखन सराहनीय है। कोमल दिल की हैं कवयित्री अति संवेदनशील। तभी तो इतनी सुंदर-सुंदर कविताएं सृजित है। तितली, भौरें, कली प्रकृति से अतिशय प्रेम दर्शाता है। सरल सी धारा प्रवाह है इनके लेखन में। सभी रचनाओं के संग "ओ मेरी कली" में भी एक सार्थक सन्देश है। अपने अस्तित्व के बचाव का। अपने सारे दायित्व पूरे करो, परन्तु अपनी सुरक्षा करते हुए। पृष्ठ 84 विषय 49 में कवयित्री कली के माध्यम से बताना चाहा है । स्त्री स्वाभिमान की रक्षा कर ले तो ही वह पूरक हो सकती है समाज में उदाहरण बनकर। वह आधा सेव नहीं है वह इंसान है। अतः पुरुष से प्रतियोगिता नहीं , उसकी सहगामनी बने। किसी गाड़ी का दो चक्का, क्या दोनों में कोई अंतर? हम सबको प्रयास करना चाहिए यह सन्देश दूर तक फैले। स्त्री के साथ-साथ तितली, भौरें, कली पक्षी प्रकृति का भी अस्तित्व खतरे में है। जिसतरह विकास के नाम पर वृक्ष काटे जा रहे हैं तथा न्यायालय मौन रह जाए जो रहा है। भविष्य में भयंकर परिणाम आने वाला है। 

पहाड़ों पर जैसी होती है सड़कें, वैसी ही है जिन्दगी...। कभी एक तरफ खाई,कभी दूजी ओर खाई..। पलक झपकते कभी चौंक जाना ,कभी सहम जाना तो कभी दहल जाना। दिल की निरिक्षण करने वाली मशीन में दिखती आड़ी-तिरछी लकीरें ,बताती हैं न कि जीवन है...। उसी तरह जिन्दगी में हैरान करने वाली बातें हमें इन्सान बने रहने में मदद करती हैं। कवयित्री रेखा जी भी हैरान हैं, पृष्ठ 85-86 में ,पहले भी बातें हुई हैं उनसे ही मिलता हुआ भाव लिए विषय 50 वें “हैरान हूँ” में। हँसना-रोना-गाना-मिलना-बिछुड़ना यूँ ही हैं जैसे बदलते ऋतू। लयबद्ध कविता सुखद अनुभव। जिन्दगी को छोड़ें उनकी उलझनों के दर पर, सम्भाले शब्दों की बिसात बहुत अपने दम पर। इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम में लकीरें सीधी दिखने लगे तो क्या हो। जब बहुत कुछ कहने का हो मन, ख़ामोशी को थम लेती हूँ.. तलाश.. शब्द-सौन्दर्य कि , तलाश.. शब्द-शक्ति की। वाह: सहज निकलेगा पाठक मुख से । बहुत ही पवित्र भावना, अगरबत्ती की सुगंध फैलाती हुई। गर्तों से शिखरों तक की यात्रा, रिश्तों को जोड़ने से तोड़ने का आधार शब्द ही तो है, जिसे बहुत ही सुन्दरता से कवयित्री ने पृष्ठ संख्या 89 विषय 52 में समझा दिया है। साथ में मैंने भी मान लिया कि अपनी रचनाओं में जिस तरह भावनाओं का संतुलन बनाये रखी हैं वो किसी साधारण के वश की बात नहीं है कोई शहजादी ही रख सकती है-सबके दिलों में राज करेंगी अपनी कविताओं से भी शहजादी रेखा पी मेनोन। पृष्ठ संख्या 55 पर जैसे हैं। गाये जाओ साथियों, खुशियों के गीत, बिदाई के नगमें गूँजेंगी उनकी आवाज जब पाठकों को मिल जायेगी कविता, लेकिन पाठक कुरेदना नहीं छोड़ेंगे। शायद यह इच्छा कवयित्री की पूरी ना हो। जितना पता आसानी से चल जाता है उतने में संतोष कहाँ हो पाता है। मगर ना दुबलता नजर आ रही है और ना कोई समझ लेने की भूल करेगा। कवयित्री की दो रचना एक ही रचना का विस्तार लग रहा है मुझे। विषय भी लगभग समान है। प्रवाह बहुत सुंदर है। सबकी हो जायेगी “कविता मेरी कविता” । कुछ टंकन त्रुटी है या तो अहिन्दी भाषी प्रदेश की होने के कारण सही-सही जानकारी नहीं होने की आशंका है। अत: उसपर ज्यादा ध्यान नहीं देते हुए यह कहना चाहूँगी कि कवयित्री ने अपने लेखन में पूरा न्याय किया है और समाज को एक दिशा देने में कामयाब होंगी। कुछ रचनाएँ जैसे “शहजादी”,”वजह चाहिए”,”किनारे पे खड़ी हूँ” को पढ़ने के बाद एक उम्मीद जगी है कि वे “हाइकु” बढियाँ लेखन कर सकती हैं। इन रचनाओं में वे सागर को गागर में भरने की कोशिश की हैं। जीने के लिए लेखन से उत्तम क्या आधार हो सकता है। कभी-कभी किसी बड़े शहर का दृश्य टेलीविजन पर उभरता है , तेजी से आती-जाती भीड़ का। किसी चेहरे को पढ़ पाना बेहद मुश्किल हो जाता है। तो कभी-कभी एअरपोर्ट पर-रेलवे स्टेशन पर आते-जाती भीड़ से सामना हो जाता है।उस भीड़ को भी देखकर पता नहीं चलता है कि किसके अंदर कैसा बवंडररहा है। लेकिन उसी तरह की भीड़ की हिस्सा बनी “धूल भरी राह के किनारे..” की नायिका लक्ष्यविहीन है यह आश्चर्य का विषय लग रहा है। ना जाने उस समय किस आशंका से ग्रसित होंगी। लेखन का उद्देश्य स्पष्ट नहीं हो रहा है। कशमकश थी जिन्दगी ठोकर लगी बार-बार , अजीब सी मुकामों से गुजरकर उलझनों में फँसती रही बार-बार – यह बार-बार पृष्ठ संख्या 94 पिछली कही गई मेरी बात को काटती है अपने चित्रांकित जिन्दगी के कटू-मीठे अनुभवों का , उबड-खाबड़ राहों के हलचलों से। बेहद सुखद यात्रा रही मेरी, “यादों के कारवाँ” के संग! कवयित्री रेखा पी मेनन जी को असीम शुभकामनाओं के संग हार्दिक बधाई देती हूँ, इस अनुपम कृति के लिए भी और आनेवाली अनेकानेक पुस्तकों के लिए भी। मुझे गर्व के पल और अत्यधिक प्रसन्नता देने के लिए तथा मुझपर विश्वास करने के लिए सदा आभारी रहूँगी... 



Saturday, 12 October 2019

क्षोभ


मैं अपने निवास स्थल(घर स्त्रियों का नहीं होता) का पता
पहले बिहार दलित विकास समिति के पहले बताती
या चेल्सी(मिठाई की दुकान) के समीप
कभी कमन्युटी हॉल का होल्डिंग बता देता पता
फिर एक लंबे होण्डा का शो रूम बताने लगी
वर्तमान में सर्वदृष्टि आँखों के
अस्पताल के दाएं परिचय है।

अट्टालिकाओं का, कंक्रीटों का शहर है
हमारे आधुनिकता का परिचायक है।
चुप्पी-सन्नाटों से मरा
अपरिचित अपनों से भरा।
गाँव का घर नहीं
जहाँ केवल नीम का पेड़ होता है पता
युवा बुजुर्गों से गुलजार
अतिथि भी पड़ोसी के अपने होते
कई बार सबको गुजरना पड़ता है न इस दर्द से
बेटियों का क्या.. कहीं रोपी कहीं उगाई जाती हैं
फूलती फलती वंशो को सहेजती जी लेती हैं।

Friday, 11 October 2019

"शताब्दी वर्ष में रौलेट एक्ट"




"परमात्मा तुमलोगों की आत्मा को शांति दे... तुम्हारी हत्या करने वालों का हिसाब कैसे होगा ? इस देश का न्याय तो अंधा-गूंगा-बहरा है..।" कटकर गिरे तड़पते आरे के वृक्षों से बया पक्षियों के झुंडों का समवेत स्वर गूंज रहा था।

"जलियांवाला बाग के बदला से क्या बदल गया बहना!तुमलोगों के आश्रय छिनने का क्या बदला होगा?" हवस के शिकार हुए वृक्षों के अंतिम शब्द थे

"तुमलोगों को इस देश का विकास पसंद नहीं, विकास के रास्ते में आने वाले बाधाओं को दूर किया ही जाता है। तुम पल भर में धरा से गगन नाप लेती हो.. मनुष्यों के पास पँख नहीं तो वे जड़ हो जायें क्या ? तुम्हारे आश्रय यहाँ नहीं तो और कहीं..।" भूमिगत रेल आवाज चिंघाड़ पड़ी।
दूर कहीं माइक गला फाड़ कर चिल्ला रहा था,-"सच्चा जन करे यही पुकार
सादा जीवन उच्च विचार, पेड़ लगाओ एक हजार
प्यासी धरती करे पुकार, पेड़ लगाकर करो उद्धार।"



Friday, 4 October 2019

"आधुनिकता"


कुछ दिनों पहले ही उसके सपने पूरे होने के सारे आसार दिखने लगे थे। उसके शहर में जगह-जगह बने पार्क , नए खुले सभी सुविधाओं से परिपूर्ण मॉल, नए उद्घाटन हुए ओवरब्रिज, कई बड़े अस्पतालों के शाखाएं , भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान की शाखा , व्यापारियों का आगमन, भूगर्भ रेल लगाने की योजना शुरू यानी स्मार्ट सिटी हो जाने वाला था उसका शहर ,परन्तु प्रकृति की अजब लीला। उसने उसको सोते से जगा कर बैठा दी थी मानों उसके ही पैरों से ठोकर लगकर उसका कांच का गिलास चकनाचूर हो गया हो... पूरा शहर जलमग्न हो प्रलय की स्थिति में था.. वह पूरे शहर में पागलों की तरह घूम रहा था, कोई दादी मंदिर की सीढ़ियों पर भीगी बैठी थी उन्हें कुछ याद नहीं आ रहा था ना जाने क्या विनाश देखी थी, कोई दादा मुझे पानी दो का गुहार लगा रहे लेकिन बाहर नहीं निकलना चाह रहे थे क्यों कि उनका फोन कोई नहीं उठा रहा था, जानवरों के लाशों के ढ़ेर लगे थे। कुछ दूर आगे बढ़ने पर उसे शिशु के रोने की आवाज सुनाई दी.. एड़ी के बल उचक कर देखा तो एक व्यक्ति के सर पर टब में एक नन्हीं दिखाई दी उसे इशारे से दिखलाते हुए पूछा,-"यह कौन है तुम्हारी?"
"मैं पिता हूँ इसका यह इसकी माँ है यह इसका चाचा है..," अपने साथ चल रही स्त्री और पीछे सामान लिए चल रहा युवक को बताया।
"आज जब बच्चियों के साथ इतनी दुर्घटनाएं हो रही हैं , ऐसी आपदा में आप इस नन्ही को क्यों बचाने की कोशिश कर रहे हैं और कहाँ ले जा रहे हैं ?"
"मेरी माँ, इस बच्ची की दादी के पास । वो इसे देखना चाह रही है। अपने हाथों परवरिश करना चाह रही है। देखिए इसके कारण आज जल स्तर कम हो रहा है। यह कान्हा है हमारे लिए!"
 शहर स्मार्ट हो जाएगा, कभी न कभी जब इतने स्मार्ट सदस्यों का शहर है यह सोचते हुए वह मुस्कुरा उठा.. मंदिर से दादी और रास्ते में मिले दादा को उचित देखभाल भी करनी थी उसे।

Friday, 27 September 2019

"पारितोषिक"



    आदतन श्रीनिवासन समय से पहले अपने कार्यालय पहुँच चुके थे... और अपने अधिपुरुष(बॉस) की प्रतीक्षा कर रहे थे.. उन्हें आज अपना त्याग पत्र सौंपना था...।
बीते कल मुख्यकार्यालय से अधिपुरुष के अधिपुरुष आये थे जिन्हें रात्रि भोजन पर वे अपने घर पर आमंत्रित किये थे... तथा विनम्र आग्रह के साथ सूचित किये थे कि वे अपने पिता के संग रहते हैं जिन्हें अपने पोते-पोती और पुत्र के साथ रात्रि भोजन करने में खूशी मिलती है और समय के बहुत पाबंद हैं। पोते-पोती को भी अनुशासित रहने की शिक्षा उनसे मिली हुई है। प्रातः वंदना टहलना योगासन सबके साथ करते हैं,.."अतः कृपया समय का ख्याल रख हमें अनुगृहीत करें!"
 अपनी पत्नी को सूचित कर दिए कि आज रात्रि भोजन पर दो अतिथि होंगे...। उनकी पत्नी कुशल गृहणी थी... गृह सज्जा से लेकर भोजन की तैयारी कर लेगी इस मामले में वे निश्चिंत थे और वही हुआ भी शाम जब वे घर पहुँचे तो बेहद खुश हुए...। पिता के भोजन का समय होते भोजन मेज पर सभी चीज कायदे से व्यवस्थिति हो गया... लेकिन अतिथि अभी नहीं आये थे उनके पिता बोले कि "थोड़ी प्रतीक्षा कर लिया जाए ..?"
"ना! ना, आप और बच्चे भोजन कर सोने जायें, मैं प्रतीक्षा करता हूँ।" पिता व बच्चों के भोजन कर लेने के बाद वे बाहर आकर बैठ गए। थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के बाद अंदर जाकर पत्नी के साथ भोजन कर, बचा भोजन फ्रीज में रखवाने में मदद कर चुके थे ,कि बाहर से पुकारने की आवाज आई.. वे बाहर जाकर देखे तो दोनों अतिथि खड़े थे.. उन्हें विनम्रतापूर्वक वापस जाने का कहकर मुख्य दरवाजा बंद कर सोने चले गए.. "आपको साहब अपने केबिन में बुला रहे हैं..," अधीनस्थ के पुकारने पर श्रीनिवासन की तन्द्रा भंग हुई और वे साहब के केबिन में जाकर अपना त्यागपत्र सौंप रहे थे कि मुख्यालय से आये साहब उन्हें गले लगाकर बोले कि-"आपकी पदोन्नति की जाती है!"

Thursday, 26 September 2019

बुरी बेटियाँ


*"चिंतन"*

तुलसी, तुलसी रहती है
चाहे प्रेम गणेश से करे
चाहे ब्याही जाए शालिग्राम से
बेटी बेटी नहीं रह जाती है
चाहे ब्याही जाए अमर या अकबर के साथ

बुरी होती हैं ?
बुरी होती है बेटियाँ
ब्याह के आते
चाहिए बँटवारा।
एकछत्र साम्राज्य
मांगें सारा का सारा।
खूंटे की मजबूती तौलती
आत्महत्या की धमकी।
प्रभुत्व/रूप से नशा पाती
वंश खत्म करती सनकी
समझती घर को फटकी।
(फटकी=वह झाबा जिसमें बहेलिया पकड़ी हुई चिड़ियाँ रखते हैं)

बहुत बुरी!
हाँ! हाँ, बहुत बुरी
होती है वो बेटियाँ
मूक गऊ सी बंध जाती हैं
सहती जाती हैं,
सहती जाती हैं
लेकिन कभी बोल कर बताना,
दूसरों को कि बोलना जरूरी है,
समय से आवाज उठाओ..
स्त्रियों तुम भी इंसान हो...
दोष नहीं है केवल बेटियों का..
हम अभिभावक उन्हें संतुलित रहने की

  1. सीख देने में असफल हो जाते हैं।

Monday, 23 September 2019

निरर्थक विलाप


स्व के खोल में सिमट केवल आदर्श की बात की जा सकती है...
वक़्त के अवलम्बन हैं बेटे जीवन की दिन-रात हैं बेटियाँ,
भंवर के पतवार हैं बेटे आँखों की होती सौगात हैं बेटियाँ,
गर्भनाल का सम्मान तो क्या धाय पन्ना यशोदा की पहचान-सोचना पल के कुशलात हैं बेटे तो शब-ए-बरात हैं बेटियाँ।
22 सितम्बर 20191
सुबह-सुबह दो फोन आया
–आप एक पुस्तक लोकार्पण में आएं और पुस्तक पर बोलें
–मिक्की की मौत हो गई
स्तब्ध रह गई मैं
बी के सिन्हा और मेरे पति एक साथ एक अपार्टमेंट में 104 (हमारा) और 304(उनका) शिफ्ट हुए
बी के सिन्हा को दो बेटा दो बेटी
दोनों बेटा इंजीनियर दोनों दामाद बहुत ही साधारण सबसे बड़ी बेटी अपने पति दोनों बच्चों के साथ माता पिता के साथ रहती उसके बाद का बेटा अमेरिका में छोटा बेटा पहले दिल्ली में जॉब करता था फिर पटना में ही रेडीमेट कपड़ों का दुकान बड़े बहनोई के साधारण किराने की दुकान के पास कर लिया गाहे बगाहे बहनोई साले का दुकान भी देख लेता था छोटा वाला दामाद साधारण कर्मचारी था किसी गाँव में

304 वाला फ्लैट बी के सिन्हा खरीदे अपने पैसे से लेकिन बड़े वाले बेटे के नाम से हो सकता है कुछ पैसे से मदद किया हो अमेरिका का पैसा

पटना में ही जमीन पर भी घर बनाया... नीचे का पूरा हिस्सा छोटे बेटे को उसके ऊपर को दो हिस्सा कर दोनों बेटियों के नाम
लेकिन शहर के पूरा बाहर बड़ी बेटी दोनों बच्चे शहर के बीचोबीच के विद्यालयों में पढ़ते दामाद का दुकान अपार्टमेंट के करीब क्यों माता पिता के सेवा के लिए साथ रहती बेटी

अमेरिका से जब बड़ा वाला बेटा आता अपनी बहन बहनोई को माता पिता से अलग होने के लिए कहता

जब भी कोई हंगामा होता बड़ी वाली बेटी मेरे पास आती रोती कहती अपने को हल्का कर लेती

इसबार फिर बड़ा वाला बेटा आया और हंगामा किया तो इसबार बहनोई अलग जाने की तैयारी कर रहा था कल रात दस बजे मर गई बड़ी बेटी डॉक्टर हार्ट अटैक बताया

पिता बेड पर हैं कई सालों से पार्किन्सन हो गया है कौन करेगा...!

मिक्की की अल्पायु मौत की जिम्मेदारी केवल मिक्की की है..
–पिता अभियंता के पद पर नियुक्त थे.. भाई उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे थे वह क्यों नहीं अर्थोपार्जन लायक बनी..
–क्यों एक ऐसे इंसान से शादी के लिए तैयार हुई जो पिता के पदानुसार नहीं था... स्वभाव तो शादी के बाद पता चलता है... जान-ए ली चिलम जिनका पर चढ़े अंगारी
–क्यों सुबह से शाम अपने पति , माता-पिता, अपने बच्चों के लिए , भाइयों (शादी के बाद ना बेटे रहे और ना भाई) के लिए चौके से बाजार तक चक्करघिन्नी बनी रही.. खरीद कर लाना पकाना तब खिलाना... कोई सहयोगी नहीं था क्यों कि उसकी आर्थिक स्थिति सही नहीं था...

 उसके माँ-बाप से अक्सर मैं सवाल करती थी... क्यों हुआ ऐसा... चिंतन का सवाल जरूर था...

जब सारी बेटियाँ इतनी अच्छी हैं तो वो दोनों भाभियाँ और उनकी माताएं किस ज़माने की हैं जो मेरी पड़ोसन के घर में आकर उनकी बेटी को घर से निकाल देने के लिए आये दिन गरज जाती थीं ... उन्हें यह समझ में नहीं आता था कि यही एक घर नहीं है जहाँ वे पसर सकती हैं...

मेरा मन करता था सबको चिल्ला-चिल्ला कर कहूँ , मिक्की हर्ट अटैक से नहीं मरी है उसकी हत्या उसके माँ-बाप ने किया है... सब सुनकर सहकर मौन रहकर.. अपना अपमान अपनी बेटी का अपमान... बहू साथ में रहे पोता संग खेल सकें यह लालच... विष था जिसके कारण मिक्की का अपमान नहीं दिखता था उसका सेवा नहीं दिखता था... मुझे फोन कर किसी से बात करने की इच्छा नहीं हुई... लेकिन रहा भी नहीं गया... मैं एकता बिटिया को उनके घर भेजी (एकता को ना कहने नहीं आता... चाहे किसी समय किसी काम के लिए उसे कह दूँ)



Sunday, 22 September 2019

"धीमा जहर"




सैन फ्रांसिस्को जाने के लिए फ्लाइट का टिकट हाथ में थामे पुष्पा दिल्ली अन्तरराष्ट्रीय एयरपोर्ट पर बैठी थी.. अपने कंधे पर किसी की हथेली का दबाव महसूस कर पलटी तो पीछे मंजरी को खड़े देखकर बेहद खुश हुई और हुलस कर एक दूसरे को आलिंगनबद्ध कर कुछ देर के लिए उनके लिए स्थान परिवेश गौण हो गया...
"बच्चें कहाँ हैं मंजरी और कैसे हैं ? हम लगभग पन्द्रह-सोलह सालों के बाद मिल रहे हैं.. पड़ोस क्या बदला हमारा सम्पर्क ही समाप्त हो गया..,"
"मेरे पति के गुस्से ने हमारे-तुम्हारे पारिवारिक सम्बंध को बहुत प्रभावित किया उससे ज्यादा प्रभावित मेरे बच्चे के भविष्य को किया। आज ही हम लत संसाधन केंद्र में ध्रुव की भर्ती करवाकर आ रहे हैं।"मंजरी की आँखें रक्तिम हो रही थी।
"मेरे पति से नाराजगी की वजह भी तो तुम्हारे बेटे की उदंडता ही थी, घ्रुव की हर बात पर प्रधानाध्यापक को डाँटने विद्यालय चले जाना, नाई से अध्यापक का सर मुंडवा देना। मेरे बेटे को शिकायत करने के लिए उकसाने का प्रयास करना।"
" तुम्हारे और तुम्हारे पति हमेशा अपने बेटे को सीखाया कि गुरु माता-पिता से बढ़कर होते हैं। "स्पेयर द रॉड स्पॉइल द चाइल्ड" मंत्र ने तुम्हारे बेटे को अंग्रेजों के देश में स्थापित कर दिया।"

Sunday, 15 September 2019

जीवनोदक





"प्रतीक्षारत साँसें कितनी विकट होती है... आस पूरी होगी या अकाल मौत मिलती है..?" मंच पर काव्य-पाठ जारी था और श्रवण करने वाले रोमांचित हो रहे थे... हिन्दी दिवस के पूर्व दिवस (शुक्रवार13 सितम्बर 2019)  एम.ओ.पी. महिला वैष्णव महाविद्यालय का सभागार परिसर , विभिन्न महाविद्यालयों से आमंत्रित छात्र-छत्राओं से भरा हुआ था, हालांकि उस दिन का निर्धारित कार्यक्रम समाप्त हो चुका तो सारे अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार मध्याह्न भोजन के लिए जा चुके थे...नई कलम को कितनी अहमियत मिलनी चाहिए सदा चिंतनीय विषय रहना चाहिए... 5 छात्र-छात्राओं का पंजीयन कार्यक्रम के दिन हुआ था और वे समर्थ युवा रचनाकार आठ बजे से आकर अपनी बारी की प्रतीक्षा में तपस्यारत थे.. आदरणीय डॉ. सुधा त्रिवेदी जी उन युवा रचनाकारों की सूचना कई बार घोषित कीं और सराहनीय और अनुकरणीय बात थी कि दिन के दो बजे उनको पाठ का मौका देना..। प्रमाणपत्र बाद में बनवा देंगी सांत्वना बार-बार दे रही थीं.. उनके प्रति मेरी श्रद्धा प्रतिपल बढ़ती जा रही थी।


हिन्दी भाषी प्रदेश में हिन्दी पर कार्य करना कभी रोमांचित नहीं किया... बस एक दायित्वबोध रहा कि खुद को व्यस्त रखने के लिए कुछ करना है.. आज महोदया DrSudha Trivedi जी को अहिन्दी भाषी तमिल भाषा के बीच कार्य करते हुए देख गर्व महसूस हुआ.. हार्दिक आभार आपका
1989 से आज 2019 में अनेकानेक बार चेन्नई संग पूरा तमिलनाडु भ्रमण की हूँ... पहली बार चेन्नई आकर बेहद खुशी हुई...
महाविद्यालय की बहुत सारी छात्राएं पारम्परिक पोशाक साड़ी और गहने पहनी हुई थीं... जिनमें से तीन चयनित होकर निर्णायक के सामने आईं और उनसे एक सवाल #ओणम_मनाने_का_आज_उद्देश्य_क्या_है? किया गया ।
प्रथम आने वाली छात्रा का जबाब रहा- " #नहीं_जानती_कि_ओणम_क्यों_शुरू_हुआ_आज_अन्य_सभी_क्यों_मनाते_हैं_मेरे_लिए_तो_खुशी_मिलने_की_वजह_है_ओणम_कि_पूरा_परिवार_एक_संग_जुटता_है।

नई पीढ़ी तोड़ना नहीं चाहती है.. जो अगर भटकती है तो उसके जिम्मेदार हम हैं और हमारी दी गई परवरिश है..

मैं अपनी आदत से लाचार कार्यक्रम शुरू होने के एक घन्टा पहले पहुँच गई और उस एक घण्टे में छात्राओं को समझने का मौका मिला... सुबह आठ बजे से लेकर मध्याह्न तीन बजे तक हम उनके बीच रहे... शालीन शीतल मेधावी छात्राओं को देखकर बेहद सुकून मिला..


Saturday, 14 September 2019

"साहित्य का बढ़ता चीर"




छोटी कलम को आज से चार साल पहले एक संस्था की जानकारी नहीं थी... हालांकि इक्कीस साल से उसी शहर की निवासी थी। आज पच्चीस साल हो जाने पर गली-गली में बस रहे छोटे-बड़े-बहुत बड़े कई संस्थानों को जानने की कोशिश में थी कि शोर से उलझन में हो गई... 
"यह क्या साहित्य का विस्तार है... साहित्य तो लहूलुहान होने के स्थिति में है.. नाकाम इश्क की शायरी में बातें (शेर का बहर पूछ लो तो बगले झांकने लगते/लगती हैं,) चुटकुले, एक्टिंग, स्टोरी टेलिंग, गीत गाना, रैप.. कोई बताए रैप कौन सा साहित्य है? अरे हाँ मज़ेदार बात तो यह है कि ऐसे ओपन माइक्स में शामिल होने के लिए पैसे भी देने पड़ते हैं जो कि पुरी तरह मामले को व्यवसायिक बनाता है।" बड़ी कलम की संस्थाओं के मंच की आवाज गूँज रही थी।
"ठहरें! ठहरें! जरा ठहरें! क्या यहाँ कॉफी हाउस में , नुक्कड़ के चाय की दुकान पर जैसे साहित्य उफनता था और लहरें समेटने के लिए विद्यालय-महाविद्यालय के छात्र व राहगीर वशीभूत होकर वृत में जुट जाते थे वही हालात हैं क्या आज के... बड़े-बड़े महारथियों के जुटान में आलेख पढ़ने के एक-दो हजार से नाम पंजीयन करवाएं.. काव्य-पाठ के लिए चार सौ से आपको शामिल कर आप पर एहसान की जाएगी...!" opne mike(mic) पूरे विवाद करने का अवसर पा गया था..
"वरिष्ठ साहित्यकारों की देख-रेख में सीखना, गुण-दोष जान समझ , अनुशासन में बंध आगे बढ़ना और अत्यधिक श्रम से प्रसिद्धि हासिल करना ही श्रेयस्कर होगा।" छोटी कलम दोनों को सांत्वना दे रही थी।
"जाओ! जाओ! यहाँ गुटबंदी कुनबे के साम्राज्य में कोई एक गुरू मिल गया तो सबके खुन्नस की शिकार हो जाओगी!" बड़ी कलम की संस्थाओं के मंच और opne mike(mic) की आवाज संग-संग गूँज गई।
"इनलोगों ने चींटी से कुछ नहीं सीखा!" मुस्कुरा रही थी छोटी कलम

Thursday, 12 September 2019

मुक्तक

ढूँढ़ रही आजू-बाजू दे साथ सदा रहमान
क्रांति की परिभाषा रहे पहले सा सम्मान
सबके कथन से नहीं हो रही सहमती मेरी
आस रहे तमिल-हिन्दी एक-दूजे का मान 
संगी ज्योति उर्जा व ज्ञान का भंडार है
श्रेष्ठ जीवन का लक्ष्य उत्तम संस्कार है
वो हमारी नहीं, हम हिन्दी की मांग हैं
भाषा-उठान आंचलिक का अंकवार है

Saturday, 7 September 2019

जय हिन्द-सलाम भारत के वीरों

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 2 लोग, स्क्रीन
ग्यारह रुपये जब मिलते थे
जाते हुए अतिथि की दबी मुट्ठी से
आई किसी भउजी के खोइछा से
कई मनसूबे तैयार होते थे
हमारे ज़माने में
छोटी खुशियों की कीमत
बड़ी होती थी

चन्द्रयान के सफर में लगा
ग्यारह साल सुन-पढ़
कुछ वैसा ही कौतूहल जगा
इस ग्यारह साल में कितने
सपने बुने उलझे टूटे होंगे
फिर दूने जोश से
उठ खड़े हुए होंगे


वैसे जमाना बहुत पहले जैसा रहा नहीं...
मेरे भैया मेरे चंदा मेरे अनमोल रतन
–जा ये चंदा ले आवs खबरिया
–चंदा मामा दूर के, पुए पकाए गुड़ के

Thursday, 5 September 2019

"नैध्रुवा"



           "अरे! जरा सम्भलकर..., तुम्हें चोट लग जायेगी। इस अंधरे में क्या कर रही हो और तुम्हारे हाथ में क्या है?" बाहर दौड़ती-कूदती नव्या से उसकी मौसी ने पूछा।
                      "क्या मौसी? आप भी न! इतने एलईडी टॉर्च/छोटे-छोटे बल्ब की रौशनी में आपको अंधेरा नजर आ रहा है!"अपने हाथ में पकड़े जाल को बटोरती रीना बेहद खुश थी।
"वाहः! तुमने सच कहा इस ओर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया.., यूँ यह भी कह सकती हो कि अमावस्या की रात है और हम नभ में तारों के बीच सैर कर रहे हैं। इतनी संख्या में जुगनू देश के किसी और कोने में नहीं पाए जाते होंगे जितने यहाँ किशनगंज में देखने को मिल रहे हैं। लेकिन तुम इनका करोगी क्या ?"
"नर्या भाई को दूँगी.. जब से माँ-पापा उसे पुनर्वासाश्रम से गोद लेकर आये हैं, वह किसी से कोई बात ही नहीं कर रहा है मौसी।" जुगनू से भरा जाल थमाने के लिए ज्यों नव्या नर्या के कंधे पर हथेली टिकाती है, वह सहमकर चिहुँक जाता है।
"उसे थोड़ा समय दो..., वह पहले जिस घर में गया था वहाँ नरपिचासों के बीच फँस गया था..। बंद दीवारों के पीछे शोषण केवल कन्याओं का नहीं होता है। उसे जुगनुओं की जरूरत नहीं है, उसे उगते सूरज की जरूरत है..!"

"नैध्रुवा" = पूर्णता के निकट
नर्या = वीर/मजबूत


Wednesday, 4 September 2019

"बदलते पल का न्याय"


"ये यहाँ? ये यहाँ क्या कर रहे हैं?" पार्किन्सन ग्रसित मरीज को व्हीलचेयर पर ठीक से बैठाते हुए नर्स से सवाल करती महिला बेहद क्रोधित नजर आ रही थी.. जबतक नर्स कुछ जबाब देती वह महिला प्रबंधक के कमरे की ओर बढ़ती नजर आई..
"मैं बाहर क्या देखकर आ रही हूँ.. यहाँ वे क्या कर रहे हैं?" महिला प्रबंधक से सवाल करने में भी उस आगंतुक महिला का स्वर तीखा ही था।
"तुम क्या देखकर आई हो, किनके बारे में पूछ रही हो थोड़ा धैर्य से धीमी आवाज में भी पूछ सकती हो न संगी!"
"संगी! मैं संगी! और मुझे ही इतनी बड़ी बात का पता नहीं, तुम मुझसे बातें छिपाने लगी हो?"
"इसमें छिपाने जैसी कोई बात नहीं, उनके यहाँ भर्ती होने के बाद तुमसे आज भेंट हुई हैं। उनकी स्थिति बहुत खराब थी, जब वे यहाँ लाये गए तो समय नहीं निकाल पाई तुम्हें फोन कर पाऊँ…,"
"यहाँ उन्हें भर्ती ही क्यों की ? ये वही हैं न, लगभग अठारह-उन्नीस साल पहले तुम्हें तुम्हारे विकलांग बेटे के साथ अपने घर से भादो की बरसती अंधियारी रात में निकल जाने को कहा था..., डॉक्टरों की गलती से तुम्हारे बेटे के शरीर को नुकसान पहुँचा था, तथा डॉक्टरों के कथनानुसार आयु लगभग बीस-बाइस साल ही था, जो अठारह साल..," आगंतुक संगी की बातों को सुनकर प्रबंधक संगी अतीत की काली रात के भंवर में डूबने लगती है...
"तुम्हें इस मिट्टी के लोदे और मुझ में से किसी एक को चयन करना होगा, अभी और इसी वक्त। इस अंधेरी रात में हम इसे दूर कहीं छोड़ आ सकते हैं , इसे देखकर मुझे घृणा होने लगती है..,"
"पिता होकर आप ऐसी बातें कैसे कर सकते हैं..! माता पार्वती के जिद पर पिता महादेव हाथी का सर पुत्र गणेश को लगाकर जीवित करते हैं और आज भूलोक में प्रथम पूज्य माने-जाने जाते हैं गणेश.. आज हम गणपति स्थापना भी हम कर चुके हैं..,"
"मैं तुमसे कोई दलील नहीं सुनना चाहता हूँ , मुझे तुम्हारा निर्णय जानना है...,"
"तब मैं आज केवल माँ हूँ..,"
"मैडम! गणपति स्थापना की तैयारी हो चुकी है, सभी आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं..," परिचारिका की आवाज पर प्रबंधक संगी की तन्द्रा भंग होती है।
"हम बेसहारों के लिए ही न यह अस्पताल संग आश्रय बनवाये हैं संगी...! क्या प्रकृति प्रदत्त वस्तुएं दोस्त-दुश्मन का भेद करती हैं..! चलो न देखो इस बार हम फिटकरी के गणपति की स्थापना करने जा रहे हैं।"

Monday, 2 September 2019

"विधा : पत्र"


प्रियांशी माया
सस्नेहाशीष संग अक्षय शुभकामनाएं

आज माता-पिता-पुत्र एक साथ भूमिलोक में विराज रहे हैं यानी हरतालिका तीज और गणेश चतुर्थी पूजन एक साथ भूलोकवासी कर रहे हैं... हरतालिका तीज जहाँ बिहार और उत्तर प्रदेश के स्त्रियों का पर्व है तो गणेश चतुर्थी महाराष्ट्र कर्नाटक... यह तब की बातें हैं जब सोशल मीडिया का ज़माना नहीं था... अभी तो देश के किसी कोने में जाओ प्रत्येक पर्व की खुशियाँ मिलेगी ही मिलेगी...
 तुम्हें पता ही है हम अभी अपने सगे परिजनों के बीच नहीं हैं... इस कॉलनी में हम अभी जम गए हैं रम नहीं पाये हैं... अगल-बगल के पड़ोसी से बातें हो जाती है.. उनसे ही पता चला कि गणेश-चतुर्थी एक जगह मनाई जाएगी... सभी सहयोग राशि जमा करेंगे परन्तु तुम्हारे पापा किसी कन्या के शादी में पच्चीस-पचास हजार दान कर देंगे लेकिन पूजा-पंडित को तो पाँच रूपया ना दें.. (बिहार का अनुभव या यहाँ भी गाँव का अनुभव -चंदा वसूलकर शोर शराबा दारू नाच लाउडस्पीकर पर भद्दे गाने...) आदतन नहीं देना था और ना दिए...
देश हित के लिए छोटा परिवार सुखी परिवार... बुजुर्ग रहे नहीं और बच्चे विदेश बस जाए.. बुढ़ापे में घर आने की किसी की प्रतीक्षा ना हो.. पर्व के नाम पर रंग रोशन ना हो.. नीरसता किस कदर हावी होता है यह बस अनुभव से समझा जा सकता है।
सामने बच्चे-बड़े उत्सव मना रहे हैं और हम शीशमहल के अंदर से झाँक रहे हैं... आधुनिकता के नाम पर भगवान नहीं मानते.. , मंदी को देखते हुए सब चीजों पर बंदी लगा बैठे हैं.. पर्यावरण का सोच कर बहुत अच्छा कर रहे हैं पर गतिमान जीवन के लिए क्या सोच रहे हैं.....,
बाकी फिर कभी विस्तार से... अपना ख्याल रखना..



तुम्हारी
माँ


Saturday, 31 August 2019

"शमा"


"जब आने वाले पूछते थे - तबीयत खराब है क्या? आप कहते- नहीं। दरख्त अब बीज बन रहा है। एक कविता भी लिखी आपने- कल तक जो एक दरख्त था, महक, फूल और फलों वाला, आज का एक जिक्र है वह, जिंदा जिक्र है, दरख्त जब बीज बन गया है, हवा के साथ उड़ गया है, किस तरफ अब पता नहीं। उसका अहसास है मेरे साथ।
  आज फिर वो दरख्त अब बीज बन रहा है। मुझे भी उस एहसास को संजोते रहना है..., 'वन ट्रैक माइंड' वाले इंसान...," अवसर था अमृता प्रीतम के जन्मशताब्दी समारोह का एकांत दिल की बातें कहने का अवसर दे डाला।
        इमरोज को हद से ज्यादा चाहने लगी थी रौशनी.. रौशनी को लगा कि अभी उसका दायित्व है इमरोज के साथ रहना और अपना कर्तव्य निभाना... इमरोज इसकी अनुमति दे नहीं रहे थे..।
"पागल मत बनो... सरहद रक्षार्थ दिल में लगी गोली सा होता है इश्क...,"

Tuesday, 27 August 2019

"खौफ"


"ओह! मुझसे अनजाने में हुई भूल, बहुत विकराल हो गई दीदी, मैं बहुत बहुत शर्मिन्दा हूँ। आप से, और सब से भी, मैं बेटे की कसम खा कर बोल रही हूँ, मैं जानबूझ ऐसी भयानक भूल कभी नहीं करती..। मेरी अज्ञानतावश की गई भूल पर दी आपको विश्वास है कि नहीं ?" प्रतिमा ने शीतल से रोते हुए कहा।
 लेखक के नाम के बिना व्हाट्सएप्प पर घूमती कहानी को अपने नाम से छपवा ली थी प्रतिमा ने। सोशल मीडिया के कारण भेद खुल गया था और असली लेखक व संपादक की नाराजगी की शिकार बन रही थी प्रतिमा।

   "बेटे की कसम खाने से बचिए।  मेरे अविश्वास का कोई कारण नहीं है। आप मुझे नहीं समझ सकी हैं! किसी को गलत मानना या उसे सजा देने की अधिकारी मैं खुद को कभी नहीं समझती हूँ, लेकिन अभी जो गलती हुई है उसका क्षमा मांगना ही उपाय है। अगर वे लोग पुलिस केस कर दिए तो परिवार की प्रतिष्ठा का क्या होगा यह सोचिए।" शीतल ने कहा जो कहानी भेजने में मध्यस्थता की थी। सम्पादक शीतल को ही जान रहे थे और उन्हें लिखित में क्षमा चाहिए थी.. जो भेजी गई।
 "जी! लेखक ने मेरा क्षमा वाला टिप्पणी सही में डिलीट कर दिया है.. जब मैं फेसबुक पर.. असली गुनहगार तो  मैं, उनकी हूँ, उनसे क्षमादान मिल गया, फिर संपादक तो मुझे जीते जी मरने जैसी सजा देने में आमादा हैं!"

 "जो हो गया उसे भूल जाइए.. आप अपनी गलती की कीमत चुका चुकी हैं... नई शुरुआत कीजिये.. इंसा और ईश के न्याय में कितना फर्क होता है... उसकी प्रतीक्षा कीजिये!"

Saturday, 24 August 2019

"मोक्ष"


"कितनी शान्ति दिख रही है दादी के चेहरे पर...?" दादी को चीर निंद्रा में देख मनु ने अपने चचेरे भाई रवि से कहा।
"हाँ! भैया हाँ! कल रात ही उनके मायके से चाचा लेकर आये.. और अभी भोरे-भोरे ई..,"
          कई दिनों से मनु की दादी जिनकी उम्र लगभग सौ साल से ऊपर की हो गई थी और उन्हें अब केवल अपने बचपन की कुछ बातें याद रह गई थी ने रट लगा रखी थी कि उन्हें खेतों में अपने पिता-भाई के लिए खाना भेजना है... अच्छी बारिश होने के कारण आज-कल खेतों में बिजड़ा डाला जा रहा है। अतः घर आकर खाने की फुर्सत नहीं मिलती किसी को.. सात बहनों और चार भाइयों में सबसे बड़ी होने के नाते घर-चौके की जिम्मेदारी उन पर रही होगी...।
    उनको लगातार रटते हुए देखकर मनु के पिता अपने ममेरे भाई के लड़के को खबर करते हैं कि एक बार आकर अपनी बुआ दादी को लेकर जाएं क्यों कि यहाँ से किसी के साथ जाने के लिए तैयार नहीं हो रही हैं। भाई का पोता आता है और अपनी बुआ दादी को अपने गाँव ले जाकर घुमाकर वापस फिर पहुँचा देता है..., साथ-साथ मनु के पिता रहते हैं..।

Friday, 23 August 2019

यक्ष प्रश्न

*मुरलीधर द्वापर में बड़े-बड़े लीला करने वाले।*
*कमलनाथ हर क्षण कृष्णा का साथ देने वाले।*
*सास-ननद का रूप बदल जाओ या सम्बोधन,*
*निर्गुण तुम्हें ढूंढ रहे अज्ञानी सर्वेश्वर बनने वाले।*

बीते कल गुरुवार 22 अगस्त 2019 देर रात जगी रही कि रात बारह बजे के बाद 23 अगस्त होगा और मुझे कुछ अच्छा लिखना है... (समय व्यतित करने के लिए व्हाट्सएप्प समूह/फेसबुक उत्तम सहारा) लेकिन

[22/08, 11:37 pm] गोपी उवाच :- अभी-अभी मेरी देवरानी का फोन आया , बातों-बातों में वो बता रही थी कि वो राखी में ननद के घर पर थी। कुछ दिनों के बाद भगनी का जन्मदिन था तो ठहर गई थी। उसी बीच किसी दिन शाम के नाश्ते में समोसा आया तो समोसा के साथ सबलोग कच्चा प्याज खाते हैं यह सोचकर देवरानी बारीक छोटा-छोटा प्याज काट कर ले आई.. ननद बोली कि ऐसे थोड़े काटा जाता है मैं फिर से काट कर लाती हूँ पतला ही लम्बाई में.. देवरानी बोली भी कि कट गया है तो ऐसे ही खा लेंगे लोग तो क्या हो जाएगा.. ? तो ननद दाँत पिसते हुए बोली कि आपलोगों को खाना ही बनाने में मन नहीं लगता है और ना घर ठीक रखने में.. देवरानी दुखी हुई कि एक तो ननद छोटी दूसरे उनके घर पर मेहमान थी..
[22/08, 11:42 pm] राधा रानी : ये सास ननद लोग ऐसा क्यों करते हैं समझ नीं आता🤦‍♀🤦‍♀
[22/08, 11:43 pm] गोपी : अरे! इतनी रात तक जगी हो 🤣
[22/08, 11:46 pm] राधा रानी: जी
कल सास-ससुर आ रहे हैं..
[22/08, 11:48 pm] राधा रानी : अभी सामान प्रोपर वे में सेट भी नहीं हुआ..। सोचा था दो छुट्टी में इनके साथ मिलकर मार्केट का सामान और इलेक्ट्रिसिटी वाले के काम और दूसरे कुछ काम निपट जायेंगे..।
[22/08, 11:49 pm] गोपी : "इतनी रात इसी चिंता में जगी हैं क्या... सो जाइये... समय पर सब होता रहेगा..,"
[22/08, 11:50 pm] गोपी : ना कोई अतिथि आ रहे और ना उम्र रहा ये सब सोचने के लिए
[22/08, 11:52 pm] राधा रानी : अरे दीदिया आप नहीं जानती
हर चीज को देखकर कुछ न कुछ बोलना ही होगा... पुराने जमाने वाले सास ससुर न🙊🙊
आजकल वाले सास ससुर तो कुछ न कहते उलटा लाड लड़ाते बहुओं से😊😊
[22/08, 11:55 pm] राधा रानी : एक बार प्रोपर वे में सैट हो जाते न फिर आते तो टेंशन न होती... खैर आने दीजिए घर है उनका बहुओं का तो काम ही है सुनना... दो कान इसिलिए दिये न भगवान ने🤣🤣
[22/08, 11:55 pm] गोपी : केवल पुराने ज़माने के सास-ससुर की बात नहीं है बहुये भी उसी तरह की हैं चिंता करने वाली बातें दिल पर लेने वाली... अरे बेटे के माँ-बाप हैं । बहू को इंसान नहीं समझना है , ना समझें लेकिन  बहू तो खुद को इंसान समझ ले.. ना तो वह रोबट है और ना फरिश्ता
[22/08, 11:57 pm] गोपी : साधु के तोता बन अपनी तबीयत खराब ना कर लेना.. दो कान हैं तो दो कान का पूरे अच्छे से इस्तेमाल हो.. 😜🤭
[22/08, 11:58 pm] राधा रानी: "आपकी अंतिम पंक्ति को काश वो ही लोग समझ लेते तो कितना अच्छा होता... खैर हमही खुदको समझायेंगे ये लाईन बल्कि घोटकर पीने की चेष्टा करेंगे"😄
[22/08, 11:59 pm] राधा रानी : 🤣🤣🤣🤣कोशिश तो यही रहेगी पर फितरत किधर बदलती पर कोशिश शिद्दत से जारी है फितरत बदलने की.. शुभ रात्रि..!"
मैं रात भर सोचती रही कि सच में कब से रात्रि शुभ होने लगेगी...

Monday, 19 August 2019

अनाधिकार सीख

आप हजार से लाख लेकर पाठ करने वाले/वाली मंचीय कवि-कवयित्री हैं तो मैं आपको कुछ कह सकूँ इस के काबिल नहीं क्यों कि आपके वश में साहित्य सेवा तो है नहीं क्यों कि मलाई(क्रीम जो छाली से बनती है) पर पलने वालो/वालियों के पास एक-दो रचना बेची जाने योग्य ही होती है... और आयोजनकर्त्ता के पास एक-दो-तीन को बुलाने की ही हैसियत होती है आपके नाम पर उन्हें दान भी मिला होता है.. आपके नाम पर मतवाली भीड़ जुटी है... अपना-अपना दाना-पानी लेकर.. गुलशन नन्दा/रानू/अनेकानेक उपन्यासकार जयंती दिवस/मोक्ष दिवस शुरू नहीं हुआ अभी तक... अतः आप चेत नहीं सकते..

लेकिन
–आप अगर साहित्य-सेवा में रत हैं और आपको दस-बीस के संख्या के साथ सुनने वाली भीड़ जो बिना सुनाये जाएगी तो आयोजनकर्त्ताओं को चार बातें आयोजन स्थल पर ही सुनाएगी के साथ बुलाया गया है तो समय का ख्याल रखते हुए विषयों के विभिन्नताओं का भी ख्याल रखें...
–मंच संचालक महोदय यह ख्याल रखें कि वक्ता और श्रोता की भीड़ केवल आपको सुनने नहीं आई है और ना आज ही यह मौका है कि आप ग़ालिब से गुलज़ार के रचनाओं को तो सुनाए ही अंत में मैं भी महत्त्वपूर्ण साबित करें अपनी लम्बी रचना के साथ.. जबकि आप अन्य रचनाकारों को जगाते रहे हैं कि समय कम है और सुनाने वाले ज्यादा अतः छोटी रचना सुनायें... छोटी रचना सुनायें..

Sunday, 18 August 2019

अनुत्तीर्ण

प्रतीक्षारत रहती है
जीवित आँखें
मन सकूँ पाए
मन प्रतीक्षारत रहता है
क्षुधा तृप्त रहे
क्षुधा से सिंधु पनाह मांगे।
तथाकथित अपनों के भरोसे
शव प्रतीक्षारत रहे..
संवेदनशील पशु भी होते हैं
आहत कर देने वाले मनु को
आहत होने वाले मनु का
कसूरवार बनना
 क्यों चयन करना पड़ता है..!
विदाई में
हमें संग यही ले जाना है
और
यही दे जाना है..
सफर अनजाना है
 फिर भी अहम है
सब बटोर लेना है

Wednesday, 14 August 2019

रक्षाबंधन


थक गई गौरेया कहते-सुनते।
खिन्न है गुहार लगाते-लगाते।
थोड़ी सी जगह उसकी भी हो।
फुदकना हो सके चहकना हो।
विद्रोही हो रही नोक गड़ा रही।
धर्य रखने वालों की,
 गर्दन अकड़े धर सिकुड़े,
किसी को फर्क नहीं पड़ता है।
तब चिंतनीय विचारणीय फिजूल है।
मत उम्मीद करो
उदासी आंगन ड्योढ़ी की दूर होगी।

         "अरे!इस राग भैरवी का स्पष्ट कारण भी कुछ होगा?" सखी रंभा के काव्य को सुनकर मेनका का सवाल गूँज उठा जो थोड़ी देर पहले ही आकर भी शांति बनाए हुए थी।
"पिछले राखी के दो दिन पहले मेरे पति देव अपनी बहन के घर वापस लौटे... स्वाभाविक है बहन को अच्छा नहीं लगा होगा मुझे बोली भी तो मैं बोली ,"भाई आपके थे, आप रोक क्यों नहीं ली? ऐसा तो था नहीं कि राखी मुझसे बंधवानी थी!"
"अगले साल आप लेकर आइयेगा!"
"ठीक है।"
 "एक ही शहर में या यूँ कहो पड़ोस में मेरे भी दो भाई रहते हैं।यह जानकर कि इसबार मैं राखी में बाहर जा रही हूँ बहुत उदास हुए और पूछने भी लगे कि "ऐसी क्या बात हो गई कि राखी के ठीक दो दिन पहले हमें छोड़ कर जा रही हो?
 खैर! हमलोग रक्षाबंधन के तीन दिन पहले हजारों किलोमीटर दूर अपने बेटे के घर में आ गए, उसी शहर में ननद का भी घर है। रक्षाबंधन के दो दिन पहले मेरी ननद फोन कर बोली कि हमलोग पहाड़ों पर घूमने जा रहे हैं , सुबह ग्यारह बजे जाना है आपलोग एक दिन पहले ही शाम में आ जाइये कि सुबह राखी बाँधना जल्दी हो जाये (दोनों के घर की दूरी 2 ढ़ाई घण्टे का है)... औपचारिक रिश्ता..., मैं आने से इंकार कर दी।"
"यानी स्वाभिमान पर ज्यादा चोट हो तो अभिमानी बना देता है!" मेनका का स्वर दुख प्रकट कर रहा था।
"आप आने से इंकार की तो हम अपना पहाड़ों के सैर को स्थगित कर आपको लेने आये हैं! बिन भाभी कैसे फैले घर में उजियारा...!" दोनों सखियों को अचंभित करता ना जाने कब से आई ननद का स्वर खुशियाँ बिखेर गया।

Sunday, 11 August 2019

अनुत्तरित


दिवसाद्यन्त सवाल बेधता है
चुप्पी उकबुलाहट सालता है
तू तड़ाक तड़ाग करता नहीं
कोई निदान नहीं मिलता है
मिट्टी ज्यादा सहती है या चाक?
भट्टी में कलश को
होना चाहिए दर्प ज्यादा
रंग दिए जाने का प्रकल्प ज्यादा
नासूर मत पलने तो गहरा इतना
तम गहन होता दर्द सहरा इतना

परस्पर प्यार इश्क मोहब्बत विश्वास
सबमें का कोई-न-कोई आधा वर्ण
एहसास कराता है मुकम्मल नहीं है

क्या पहचान लेना इतना आसान है
हर पल तो सब बदल जाता है
बदल जाती है इच्छाएं परिस्थति बदलते
तब तक साथ कौन निभाता है
जब तक स्वार्थ नहीं सधता है
बस सोच में अटकता है

Wednesday, 7 August 2019

"भूल सुधार"



 दिल्ली निवासी कद्दावर नेता को शेख उल आलम(श्रीनगर) एयरपोर्ट पर पत्रकारों की मंडली घेरकर खड़ी थी.. किसी पत्रकार ने पूछा,-"आप यहाँ जमीन खरीदने आये थे क्या मामला (डील) तय हो गया?"
"जो पड़ोसी होने वाला था वह क्या सोच रहा यह भी तो पता कर लूँ.. इस इरादे से उससे बात करने गया...,"
"फिर क्या हुआ?" सबकी उत्सुकता चरम सीमा पर, सब चौकन्ने हो गए।
"बात-चीत के क्रम में, अपना शहर तो रास नहीं आया... उस समाज के लिए कभी कुछ किया नहीं... जो अपनों के बीच नहीं रहना चाहता, वह अजनबियों के बीच रहेगा..  उनके मुख से सुन और भाषा-बोली, खान-पान, चरित्र- व्यक्तित्व से डरे-सहमे के बगल में रहने का इरादा बदल दिया।" हवाई जहाज के उड़ने की घोषणा हो रही थी नेता जी के घर वापसी  के लिए और सामने न्यूज चैनल पर जन-जन प्रिय प्रत्येक दिलवासी नेत्री के मोक्ष की खबरें आ रही थी..


Thursday, 1 August 2019

सजग हम


"आयाम" – साहित्य का स्त्री स्वर
आयाम = अधिकतम सीमा/विस्तीर्णता

"लेख्य-मंजूषा"~लेख्य=लेखन योग्य
ऐसी पेटी जिसमें अनर्थक कुछ भी नहीं

लगभग 145-146 प्रेमचंद की कहानियों में से कुछ न कुछ कहानियाँ सबके_जीवन को प्रभावित करती रही है... हर मौके पर, दैनिक कार्यकलापों पर उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत कर दी जाती है.. बड़े घर की बेटी सच लिख दे–समुन्दर में आग लग जाये

ना यह मुश्किल है ना मुश्किल वह है।
त्यागना अहम-वहम व होना प्रसह है।
गर्दन अपनी सर अपना पूरा हर सपना,
जीना चाहूँ मरने के बाद कर्म का गह है।

प्रसह= नीलकंठ
गह = हथियार

कल 31 जुलाई 2019 कथा-सम्राट प्रेमचंद की जयंती के अवसर पर साहित्य का स्त्री स्वर 'आयाम' द्वारा 'लेख्य-मंजूषा' के सहयोग से पद्मश्री डॉ. उषा किरण खान की अध्यक्षता में हुए एक महती आयोजन में लखनऊ से आईं हिंदी की सुप्रसिद्ध उपन्यासकार और कथाकार रजनी गुप्त ने अपनी कहानी 'पगडंडियों पर साथ साथ' का पाठ किया। शहरी, विशेषकर कामकाजी स्त्रियों की स्वातंत्र्यचेतना, उनके सपनों और संघर्षों को बेहतरीन अभिव्यक्ति देने वाली रजनी गुप्त का शुमार स्त्री विमर्श की प्रमुख लेखिकाओं में होता है। कहानी-पाठ के बाद उस पर चर्चा का लंबा सिलसिला चला जिसमें पटना के कई प्रमुख लेखकों और लेखिकाओं ने अपने विचार व्यक्त किए।

पहली बार बिहार आई सम्पादक उपन्यासकार कथाकार रजनी गुप्त जी (गोमतीनगर/लखनऊ) का हार्दिक स्वागत और अभिनंदन !

साहित्य और समाज हित में जो उचित हो, हमारा वो कर्म हो
आवाज दो–हम एक हैं

बलात्कार के खिलाफ कड़ी सजा की मांग करने भी हम कल शाम में जुटे
समाज कब बदलेगा समझ के बाहर

Wednesday, 31 July 2019

बेबसी

01.
चढ़ता वेग ऊँची पेंग ढ़लता पेग सब सावन में सपना।
टिटिहारोर कजरी प्रघोर छागल शोर सावन में सपना।
व्हाट्सएप्प सन्देश वीडियो चैट छीने जुगल किलोल,
वो झुंझलाहट कब हटेगा मेघ है अब सावन में सपना।
02.
सावन-भादो के आते ही
याद आती है
मायके की
माँ के संग-संग ही रहती
भाई-बहनों की
हरी चूड़ियों की
मेहंदी की
सजी हथेलियों में
कुछ दिनों की कहानी
सजाने वाले की कोर
सजी रहती बारहमासी रवानी
राखी की सतरंगी कनक_भवानी
बेहद खूबसूरत लगती है दुनिया
बात बस महसूस करने की
परन्तु महसूस करने नहीं देती
रोग की परेशानी आर वाली
लाइलाज रोग भ्रष्टाचार बलात्कार
तिरस्कार तमोविकार भोगाधिकार

Friday, 26 July 2019

*"किस विधि मिलना होय"*

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, मुस्कुराते हुए, पाठप्रकाशक का कहना है 
किताब नहीं है बे, ज़हर है 

सत्य कथन ... इस पुस्तक की सारी कथाएं जहर है स्त्रीत्व के लिए

लेखिका : न्यास योग ऊर्जा उपचारक डॉ. रीता सिंह/सहायक प्राध्यापिका
कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय दरभंगा
   
          समय रहते समयानुसार ही उतारते चलना, खुद के सेहत और लंबी उम्र के लिए जरूरत है ,चाहे बोझ किसी भी तरह का हो.. बोझ के घर्षण से दाग व दर्द ही मिलता है... रचनाकार से दो-चार बार आमने-सामने का मिलन था हमारा... उनकी आध्यात्मिक और संत वाणी सुनकर वो सदा सम्मानित लगी... स्नेहमयी तो कुछ ज्यादा...  आध्यात्मिक यानी आत्म-उत्कर्ष , जीवन सिद्धि का मार्ग.. रामायण-गीता-महाभारत के अजीबोगरीब    किस्से, जिसके उदाहरण हिस्से से वे कल्पना और सपना में जीते हैं, मुझे ऐसा लगता है।
                   जब रचनाकार ने अपनी पुस्तक "किस विधि मिलना होय" की चर्चा की तो मुझे लगा कि पूरी तरह आध्यात्मिक पुस्तक होगी तो मेरी रुचि की नहीं होगी... क्यों कि मुझे रामायण-महाभारत-गीता से उदाहरण लेकर बात करने वाले आज की दुनिया की समस्याओं को समझने की कोशिश में नहीं लगे, महसूस होते हैं...। परन्तु जब लेखिका ने पुस्तक मुझे दिया तो पढ़ने के लिए उत्सुकतावश पन्ने पलट लिए... पन्ना पलटते मैं भौचक्की रह गई और पढ़ती रही और स्तब्ध होती रही। एक चीज जो बहुत ज्यादा आकर्षित किया वह था डॉ. उषा किरण खान जी की लिखी भूमिका... क्या लेखन है? अरे! जब आप पुस्तक पढ़ेंगे/पढेंगी तभी समझ में आ सकेगा...!
   मैं ईश विषय से भागने वाली, प्रेम विषय पर पुस्तक पढ़ रही थी..। इस विषय से भी भागती हूँ कुछ भी बोलना और लिखना अपने वश में नहीं समझती हूँ...। जितने भी सफल प्रेम के उदाहरणों को दिया जाता है वे सब जुदाई की अति सफल कहानी है.. यानी जो सच्चा प्रेम करता है वह शादी नहीं कर सकता है... प्रेम कहानी पुरातन युग से चलती जा रही है... जटिलता और जुझारूपन लिए।
      बहुत पुरानी कहावत है "पाँच डेग पर पानी बदले पाँच कोस पर वाणी" इतने बदलाव में रहने के लिए समझ और समझौते की बेहद जरूरत पड़ती है। पहले जब शादी तय होती थी तो एक गाँव का दोनों परिवार नहीं होता था... विभिन्न परिवेश - विभिन्न संस्कृति.. कितना निभाये! कितना ना निभाये...!! एक तरफ कुंआ तो दूजी ओर खाई... कभी रिश्ते में तो कभी जिंदगी में... यही तो लेखिका ने पुस्तक के सारी कहानियों में बताने की कोशिश की है... प्रत्येक कथा में व्याप्त व्यथा पाठक/समाज के समक्ष एक सवाल छोड़ता है... पाठक के लिए कठिन है जबाब देना... अगर जबाब होता ही तो लेखिका जबाब के साथ कथा लेखन करती...
     जब मेरी शादी 1982 में हुई थी तो मेरे करीबी रिश्तेदार के पास काफी किस्से थे देवर-भाभी के बीच पनपे प्यार के... मुझे वो अविश्वसनीय सत्यकथाएं सुनने में बहुत अटपटा लगता था । तब सीता-लक्ष्मण मेरे दिमाग में स्थायी रूप से निवास कर रहे थे... इतने वर्षों के बाद उसी विषय पर आधारित इस पुस्तक की पहली कथा पढ़कर समाज के यथार्थ पर विश्वास हो आया... (नवेली विधवा प्रेमिका/पृष्ठ संख्या 11)...
    बहन की जचगी के लिए आई और बहनोई से प्रेम कर शादी कर ली... मेरे अनुभव में भी दो कहानी है... एक कहानी के पात्र पर तो कभी सवाल नहीं की क्यों कि अन्य कोई पात्र मेरे करीब नहीं था... पत्नी घर त्याग दी थी... सौत बनी बहन के साथ रहना स्वीकार नहीं की... लेकिन दूसरी कहानी के पात्र जब हमारे सामने आए तो वे दिन रात दिखते थे और पत्नी से जो बेटी थी वह शादी के योग्य थी और साली पत्नी बनी से एक बेटा था जो उम्र में बहुत छोटा था... प्रतिदिन गाड़ी निकलता पत्नी दोनों बच्चों संग पीछे की सीट पर और साली बनी पत्नी आगे की सीट पर... बहुत खुश दिखाने की कोशिश करते... मेरी मकानमालकिन अक्सर मुझसे पूछती कि तीनों की रात में कैसे सामंजस्य बैठता होगा... कौन कितनी खुश रहती होगी... । लेकिन लेखिका के कथा में छोटी सौत बनी बहन को दूध में पड़े मक्खी की तरह निकाल फेंक दिया गया है (फोन की घंटी/पृष्ठ संख्या 47) एक छेद पर कशीदाकारी की जा सकती है, लंबे चीर लगे को दो टुकड़ा करना मजबूरी हो जाती...
पूरी किताब पढ़ते समय किसी कथा पर खुद कुछ ना कर पाने की बेबसी पर खुद से नफरत होने लगेगा... किसी कथा से रोंगटे खड़े हो जाएंगे.. कभी घृणा होगी समाज में ऐसे भी परिवार है जहाँ हम जी रहे हैं पिता शादी कर लाता है और बेटा अपने दोस्तों के साथ सौतेली माँ को... (किस प्रेम की करे उपासना/ पृष्ठ संख्या 55)...
बच्ची की माँ से शादी करता है धन का लालच दिखाकर लेकिन बच्ची जब बड़ी होती है तो उसे पिता का नाम नहीं देता है उस बच्ची को प्रेमिका बनाने के लिए धन का आदि बनाता है... बच्ची के असली पिता से ही बचाव का गुहार लगाती है..(सन्तोष/पृष्ठ संख्या 63) हल्की दरार को समय पर पाट लिया जाए तो सैलाब आने से रोका जा सकता है...
     डॉ. रूही चाहती है कि बच्चे जागरूक बने। स्त्री-पुरुष सम्बन्धों से ऊपर उठें और राष्ट्र निर्माण में अपनी भागीदारी निभाएं। काउंसिलिंग के लिए आये हर युवा उन्हें यह उम्मीद देकर जाते हैं। यह उम्मीद ही जीवन है।(कम्फर्टेबल नहीं हूँ/पृष्ठ संख्या 90)
लघु-मध्यम-दीर्घ कुल मिलाकर चौवालीस कथा-कहानी और 131 पृष्ठ की रश्मि प्रकाशन,(अशुद्धियों से विरक्ति है) लखनऊ से छपी "किस विधि मिलना होय" नामक पुस्तक प्रत्येक हाथों तक जरूर पहुँचनी चाहिए और आप-हम आंकलन करे अपने आस-पास के परछाईयों का.. घर के अंदर से बाहर तक के रिश्तेदार, विद्यालय , होस्टल, धर्म, जाति सबसे समाधान ढूँढ़ कर समाज की बालाओं-कन्याओं-स्त्रियों को सुरक्षित करने में सहायक हों। लेखिका को असीम शुभकामनाएं ... उम्मीद करती हूँ या छली जा रही या छलने वाले की सहायिकाओं की चेतना जगे... औरत , औरत का साथ दे और बन्द हो यह आपदा... औरत हूँ , अतः सारी कथा की व्यथा अपनी लगी... तलाश में हूँ  "किस विधि मिलना होय"...की जरूरत ही ना पड़े... किसी को भी... वार्डन के मन में सूर्य की प्रथम रश्मि के सौंदर्य का भाव प्रवाहित हुआ, जब तक प्रकृति में यह प्रकाशमय सौंदर्य व्याप्त रहेगा, तबतक संस्कार की बेल सूखेगी नहीं। कुछ अँधेरे जकड़ने की कोशिश करेंगे, पर प्रकाश का ताप उस अँधेरे को निश्चित समाप्त कर देगा।(प्रेम या जाल/पृष्ठ संख्या 115)

पहली "किस विधि मिलना होय" समीक्षा पर नीलू ने रश्मि प्रकाशन की एक पुस्तक लेखिका से भेंट स्वरूप हासिल की।

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विभा रानी श्रीवास्तव 'दंतमुक्ता'
सम्पादक

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