Saturday, 12 October 2019

क्षोभ


मैं अपने निवास स्थल(घर स्त्रियों का नहीं होता) का पता
पहले बिहार दलित विकास समिति के पहले बताती
या चेल्सी(मिठाई की दुकान) के समीप
कभी कमन्युटी हॉल का होल्डिंग बता देता पता
फिर एक लंबे होण्डा का शो रूम बताने लगी
वर्तमान में सर्वदृष्टि आँखों के
अस्पताल के दाएं परिचय है।

अट्टालिकाओं का, कंक्रीटों का शहर है
हमारे आधुनिकता का परिचायक है।
चुप्पी-सन्नाटों से मरा
अपरिचित अपनों से भरा।
गाँव का घर नहीं
जहाँ केवल नीम का पेड़ होता है पता
युवा बुजुर्गों से गुलजार
अतिथि भी पड़ोसी के अपने होते
कई बार सबको गुजरना पड़ता है न इस दर्द से
बेटियों का क्या.. कहीं रोपी कहीं उगाई जाती हैं
फूलती फलती वंशो को सहेजती जी लेती हैं।

2 comments:

  1. एक दुःख
    एक टिस जी में भर आया. पहली ही लाइन में आपने सारा दर्द खिंच लिया.
    काश बेटियों की ये हालात ये समाज सुधार पाए.
    फिर आधुनिकरण की वजह से स्थाई पते कैसे बदल जा रहे हैं.
    उम्दा रचना.

    मेरी नई पोस्ट पर स्वागत है आपका 👉🏼 ख़ुदा से आगे 

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 01 जनवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    ReplyDelete

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