पूरी तरह से उषा का सम्राज्य कायम नहीं हुआ था लेकिन अपनों की भीड़ अरुण देव के घर में उपस्थित थी। मानों निशीथकाल में शहद के छत्ते से छेड़खानी हो गयी हो...।
"आपने ऐसा सोचा तो सोचा कैसे..?"
"सोचा तो सोचा! हमसे साझा क्यों नहीं किया...?"
भीड़ के प्रश्नों के बौछार से अरुण देव की आँखें गीली होकर धुंधली हो रही थी।
वहाँ रहने के इच्छुक वृद्धजन को अपने अतीत और वर्तमान जीवन की स्थिति एवं परिस्थिति के बारे में उल्लेख कर, एक आवेदन देना था। उसमें अपने पुत्र, पुत्री, पति, पत्नी यानी अन्त समय में संस्कारादि करने वालों के नाम, संपर्क में रहने वाले दो विश्वसनीय रिश्तेदारों के नाम, पता तथा मोबाइल नम्बर आदि विशेष रूप से दर्शाना था। वृद्धजनों को साथ लाने वाले उनके परिजनों को अपने परिचय –पत्र , आधार –कार्ड के साथ वृद्धजन की चिकित्सा–सम्बन्धित रिकॉर्ड भी लाना था।
जिसके कारण वृद्धाश्रम जाना अरुण देव का निर्णय गुप्त नहीं रह गया। रक्त के संबंधी और समाज से कमाएं रिश्तेदार उनके सामने खड़े थे।
"तुमलोग चिन्ता ना करो तुम्हारे बरगद की देखभाल अच्छे से होगी एक चिकित्सक हर तीन दिन में एक बार प्रत्येक वृद्धजन का रक्तचाप, शुगर –लेवल निरीक्षण कर आवश्यक परामर्श देता रहेगा। विशेष आवश्यकता पड़ने पर वृद्ध महिला के लिए महिला–सेविका/नर्स अथवा महिला–चिकित्सक की सामयिक व्यवस्था भी की जा सकती है।"
"हम आपको वृद्धाश्रम नहीं जाने देंगे। नहीं ही जाने देंगे..," अनेकानेक स्वर गूँज उठे।
"हवा कुछ और बह रही है और हमें दिखलाई कुछ और दे रहा। ऐसा क्यों आप बताइए महाराज विक्रम।"
"बिना फल वाला और उसकी लकड़ी का भी कोई उपयोग नहीं, भले ही पेड़ पुराना और बुड्ढा हो गया हो लेकिन तपती धूप में लोगो को छाँव देता हो, यदि ऐसा पेड़ आस -पास हो तो प्रदूषण और गर्मी से बेहाल नहीं हो सकते। पेड़ों को बचाना उसके प्रति दया दिखाना नहीं है, बल्कि अपने मानव जीवन के प्रति दया दिखाते हैं।
पीपल ,बरगद ,तुलसी ,आवंला ,अशोक आदि अनेक पूजनीय वृक्ष माना जाता है, वैसे ही दादा-दादी, नाना-नानी, माता-पिता, मामा,ताऊ, मौसी, बुआ पूजनीय रिश्ते हैं।" महाराज विक्रम ने कहा।
और फिर बैताल...