"नमस्ते आँटी जी!"
मैं बुटीक में अपने कपड़े पसन्द कर रही थी कि लगा किसी ने मुझे ही सम्बोधित किया है। आवाज की दिशा में देखा तो एक प्यारी सी युवती मुझे देखकर दोनों हाथ जोड़कर मुस्कुरा रही थी। लेकिन उसकी मुस्कान और आँखें निश्चेत लगीं।
"खुश रहो सुमन! कैसी हो और क्या कर रही हो आजकल?" मैंने पूछा।
"ठीक हूँ आँटी जी। अभी कुछ नहीं कर रही हूँ।" सुमन ने कहा। उसकी आँखें नम हो रही थीं।
"अब अपने माता पिता को रजामंदी दे दो कि वे तुम्हारी शादी कर दें।"
".....!" सुमन की चुप्पी 'कोई रहस्य है' उगल रही थी।
"आपके सिखाये कटाई और सिलाई और बैंक से आपके ही मदद से मिल गए कर्ज से सुमन ने अपना दूकान खोल ली थी...।"
कुछ वर्ष पहले मैं मुफ्त में कढ़ाई, सिलाई , स्टोन से ज्वेलरी बनाना सिखाया करती थी। उसी दौरान अपने कुछ सहेलियों के संग सुमन मेरे पास सीखने आया करती थी... ।
अचानक एक दिन वह मुझसे बोली कि "आँटी जी! मेरी शादी तय हो गयी है। कल से मैं नहीं आऊँगी।"
"शादी! तुम्हारी शादी.. अभी तो तुम सातवीं में पढ़ रही हो। कोई कैसे कर सकता है तुम्हारी शादी? 18 साल से कम उम्र की कन्या की शादी करना गलत है। सबको सज़ा हो जाएगी।"
"आँटी जी! इस राज्य में शराब बन्दी है..। मेरे गाँव में चलकर देखिए हर दूसरे घर में शराब बनता है।" सुमन ने कहा।
दूसरे दिन सुमन नहीं आयी। मैं उसकी सहेली के संग उसके घर जाकर उसके माता-पिता को समझाने की कोशिश की तो पता चला कि उसके दादा अपनी पोती की शादी करना चाहते हैं ।
मैं दादा को समझाने का प्रयास की कि "कच्ची उम्र में विवाह के कारण लड़कियों को हिंसा, दुर्व्यवहार और उत्पीड़न का अधिक सामना करना पड़ता है। लड़के और लड़कियों दोनों पर शारीरिक, बौद्धिक, मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक प्रभाव पड़ता है...।
वैदिक काल में बाल विवाह का कोई संकेत नहीं मिलता हैं... मध्यकाल के आते-आते जब भारत बाहरी आक्रमणों को झेल रहा था तब बेटियों को विदेशी शासक भोग की वस्तु समझकर अपहरण कर ले जाते तथा उनके साथ सम्बन्ध बना लेते थे... इसी दौर में रोटी-बेटी की कुप्रथा का प्रचलन हो गया..। छोटी उम्र में विवाह हो जाने के कारण दहेज भी कम देना पड़ता था... , आपके साथ तो ऐसी कोई समस्या नहीं। मेरी बात नहीं मानेंगे तो मैं केस दर्ज कर गवाह बनूँगी...।" उस समय शादी टल गयी... ।
"पिछले साल सुमन की शादी हुई और शादी के कुछ दिनों के बाद ही विधवा हो गयी। ससुराल से अपशगुनी बना बेदखल कर दी गयी..," सुमन की सहेली बता रही थी।
मैं अमेरिका छः महीने के लिए गयी थी लेकिन वैश्विक युद्ध के कारण पटना वापिस आने में पन्द्रह महीने गुजर गए ...। यहाँ मेरी जिम्मेदारी प्रतीक्षा कर रही थी। मैं सुमन के साथ उसके घर गयी उसके माता-पिता से मिलने। इस बार दादा की जगह पिता अड़ियल लग रहे थे। मैं उनको समझाने का प्रयास किया कि, "विद्यासागर को ग़रीब और आम विधवाओं की व्यथाओं ने प्रभावित किया और उन्होंने इस कुरीति के खिलाफ़ जंग छेड़ दी। इसके लिए उन्होंने संस्कृत कॉलेज के अपने दफ़्तर में न जाने कितने दिन-रात बिना सोये निकाले ताकि वे शास्त्रों में विधवा-विवाह के समर्थन में कुछ ढूंढ सके।
आख़िरकार उन्हें ‘पराशर संहिता’ में वह तर्क मिला जो कहता था कि ‘विधवा-विवाह धर्मवैधानिक है’! इसी तर्क के आधार पर उन्होंने हिन्दू विधवा-पुनर्विवाह एक्ट की नींव रखी। 19 जुलाई 1856 को यह कानून पास हुआ और 7 दिसंबर 1856 को देश का पहला कानूनन और विधिवत विधवा-विवाह हुआ। कहा जाता है कि जिन भी विधवा लड़कियों की शादी वे करवाते थे, फेरों की साड़ी भी वही उपहार स्वरुप देते थे।
बताया जाता है कि शांतिपुर के साड़ी बुनकरों ने विद्यासागर के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करने के लिए साड़ियों पर बंगाली में कविता बुनना शुरू किया था,
“बेचे थाको विद्यासागर चिरजीबी होए”
(जीते रहो विद्यासागर, चिरंजीवी हो! )
भले ही, इतिहास इस विधवा-पुनर्विवाह पर मौन रहा लेकिन यह शादी पूरे भारत की महिलाओं के उत्थान के लिए एक क्रांतिकारी कदम था। उन क्रांतिकारी कदम के पदचिन्हों पर आप अपने कदम बढ़ाएं और सुमन की पुर्नविवाह करने का प्रयास करें...।"
"सुमन के किस्मत में विवाह का सुख लिखा होता तो यह विधवा ही नहीं होती...," सुमन के माता-पिता एक ही बात तोता की तरह रट रहे थे...।
मैं भी ठान ली कि सुमन को मुरझाने नहीं देना है...और मैं भी लगातार तरह-तरह की दलीलें देती रही और किरण फूटने के साथ सुमन के पुर्नविवाह का निर्णय नया उजाला फैला गया।
पत्थर भले आखरी चोट से टूटता है... परन्तु पहली चोट कभी व्यर्थ नहीं जाती है...।