"क्षोभमण्डल गुरु-शिष्य की अतुलनीय जोड़ी मंच पर शोभायमान हो रही है।" सञ्चालक महोदय ने घोषणा की
"दोनों शब्दों के जादूगर साहित्य जगत के सिरमौर। बेबाकी से आलोचना करने में सिद्धस्त। दोनों एक दूसरे के घटाटोप प्रशंसक।"
"दोनों कूटनीतिज्ञ अन्य के तिजोरी से हाथ सफाई दिखलाकर अपने सृजन का सिक्का जमाने में सफल।"
"समरथ को नहीं..." हर बार दर्शक दीर्घा में अण्डा और टमाटर गप्प करते तथा मायूस रह जाते..।
ऐसी बातें यथार्थ नहीं है लेकिन सत्य है। ऐसा सत्य जो अनेक सृजक को अवसाद में जाने के लिए विवश करता। और हम कन्धें को उचकाते हुए मौन रह जाते हैं।
'हमें क्या फर्क पड़ता है..,' –क्या वास्तव में हमें फर्क नहीं पड़ता है?
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जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(१८-१२ -२०२१) को
'नवजागरण'(चर्चा अंक-४२८२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
हार्दिक आभार आपका
Deleteलगता तो यही है फ़र्क नहीं पडता है।
ReplyDeleteफर्क पड़े भी तो कन्धे उचकाने के सिवा कर क्या सकते हैं...। कवच जो है।
ReplyDeleteफर्क पड़ना तो चाहिए पर शायद फर्क पड़ने वाला अब दौर नहीं है।
ReplyDeleteआपकी रचनाएँ सदैव दैनिक जीवन के सत्य उद्घाटित करती है।
प्रणाम दी
सादर।