"इतनी सब्जियाँ ! क्या सिंह साहब की पत्नी बाहर से लौट आईं ? प्रात: के सैर और योगासन के बाद पार्क में बैठे वर्मा जी अचम्भित थे... सिंह साहब भांति-भांति के सब्जियाँ खरीद कर झोला भर उठा रहे थे... सुबह के समय पार्क के बाहर सब्जी-जूस बेचने वालों की भीड़ जमा होती थी...
"अरे वर्मा जी, सिंह साहब की पत्नी को गुजरे वर्षों हो गए!" शर्मा जी बोले
"तो क्या सिंह साहब खुद से खाना पकाते हैं?"
"नहीं न! दाई(मेड) रखते हैं ।"
"ओह अच्छा!"
"दाई को २० हज़ार रुपया देता हूँ वर्मा जी! इस उम्र में दूसरी शादी करता तो दस तरह की किच-किच होता... पत्नी होती भी तो उसके साथ भी कई समस्याएँ होती...! मन का पकाने के लिए बोलता तो दस बहाने होते...
मेड रखता हूँ आज़ाद पक्षी की तरह जीवन जी रहा हूँ...!" सिंह साहब की ख़ुशी छिपाए नहीं छिप रही थी...
"भाभी जी नमस्कार... घर आए कई लोग बोल जाते हैं...!" शर्मा जी फुसफुसाए...