"उठो और देखो इतनी भोर में कौन आ गया?" दरवाजे पर पड़ रहे थपथपाने की आवाज से जगी माँ ने गिन्नी से कहा।
दरवाजे में जंजीर को फँसाये हुए ही खोलते हुए गिन्नी ने पूछा , "कौन हैं?"
दरवाजे पर खड़े व्यक्ति को देखकर तेजी से दरवाजा खोलते तेज आवाज में रो पड़ी गिन्नी । गिन्नी को पकड़कर घर के अन्दर आते हुए गिन्नी की माँ पर नज़र पड़ी जो दरवाजे के करीब आ चुकी थीं और पुनः -पुनः पूछ रही थीं, "कौन आया है गिन्नी, तुम क्यों रो रही हो?"
"मैं हूँ..!" उसके स्पर्श से माँ लड़खड़ा गयी और मेज को थामते हुए स्पर्श करते हाथ को बड़ी तेजी से झटक दिया, "अब क्या लेने आये हो?"
"पिता के अनन्त यात्रा में सहयोग करने और तुम्हें अम्मा!"
”तुम्हारे पिता तुम्हें देखने, तुम्हारी आवाज को सुनने का तरसते हुए चले गए। तुम फोन नहीं उठाते थे। इतने सालों में हम कहाँ रहें, कैसे रहे, यह जानना तो बहुत दूर की बात रही।"
”मेरे पिता मुझे मिले प्राकृतिक रूप में तब तक अपनाने के लिए तैयार नहीं हुए थे जब तक मैं समाज में जंग लड़ रहा था..। जीत के बाद विजय-तिलक लगाने पहुँचना भी क्या पहुँचना? मुझे पालने वाली किन्नर माँ मुझे भी किन्नर कार्यक्रम में शामिल रखती तो?"
निरुत्तर माँ आगुन्तक को अँकवार में भर ली।
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार २ जुलाई २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
ओह, कैसी कैसी ज़िन्दगी और कैसा कैसा प्रतिशोध ।
ReplyDeleteसुंदर लघुकथा
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी कथा...ये जीवन भी अजीब है जिसे अपने ही नहीं अपनाते...,सादर नमन दी
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी सृजन,मन में उतर गयी आपकी लघुकथा ।
ReplyDeleteआदरणीया मैम, अत्यंत सुंदर और सशक्त लघुकथा। हृदय से आभार इस अत्यंत सशक्त और संदेश परक रचना के लिए व आपको प्रणाम।
ReplyDeleteओह!!!
ReplyDeleteबहुत ही हृदयस्पर्शी लघुकथा।
वाह
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