"लगता है मेरे दिमाग का नस फट जाएगा। जब मुझसे पलटवार करना कठिन हो जाता है तो मेरी स्थिति ऐसी ही हो जाती है।"
"अरे ऐसा क्या हो गया जो तू इतने तनाव में है ! किसी ने कुछ कह दिया क्या। मुझे बताओ कि क्या बात हो गयी ?"
"आज दूसरी बार हमें कहा गया कि हमारे गुरु/अभिभावक/बाबा पंजाब के जड़ थे। वट बिहार को मिल गया।"
"इसमें गलत क्या कहा गया है ? सच्चाई को स्वीकार कर लेना सीख लें।"
"क्या हम इन्सानों के हाथ में कुछ हो पाता है..? सबकुछ वक्त और नियति तय करते हैं..। कहने वाले अपने को बहुत ऊँची चीज साबित करना चाह रहे हैं। यदि हम यह कहें कि उनका नसीब बिहार ले लाया। उस दौरान सभी बातों का सूक्ष्म निरीक्षण किया जाए तो सत्य विध्वंस दिखलायी देगा।"
"अरे छोड़ो न ! जिसका दाना-पानी जहाँ का लिखा होता है..।"
गुरु/बाबा/अभिभावक का महाप्रयाण हुए तेरह दिन गुजर चुके थे। बेटे-बेटियाँ, शिष्य सभी पितृ-शोक से उबरने के लिए प्रयासरत थे। दो सत्र में शब्दांजली-कार्यक्रम रखा गया था। स्थानीय सशरीर उपस्थिति देने वाले थे तो अस्थानीय गूगल मिट से वर्चुअल। सभी अपने-अपने संस्मरण के संग उनकी ही लिखी रचनाओं का पाठकर श्रद्धांजली दे रहे थे। एक विभा ही थी जो दोनों सत्र में अपनी उपस्थिति निर्धारित की हुई थी। दोनों कार्यक्रमों में और रोती बेटियों को एक ही बात समझाने का प्रयास कर रही थी कि "बाबा/गुरु/अभिभावक कहीं नहीं गए हैं बाहर वालों समझों कि वे बिहार में हैं और बिहार वाले समझें कि वे दिल्ली में हैं। आज टेक्नोलॉजी के उन्नति होने से पल झपकते हम किसी से बात कर लेते हैं। किसी को वीडियो कॉल में देख लेते हैं। जब हमारी शादी हुई थी तो हफ्तों/महीनों एक पत्र की प्रतीक्षा में गुजर जाते थे तो चन्द शब्द पढ़ने को मिलते थे। हम उसी पुराने ज़माने को मान कर चलते हैं।
कविता, ग़ज़ल, हाइकु, तांका, कहानियाँ, उपन्यास के साथ-साथ असंख्य लघुकथाओं के संग आलेख-समीक्षाओं में हमारे सारे प्रश्नों के हल मौजूद हैं। हमारी पीढ़ी तो उसमें ही डूबते-उतराते बाबा/गुरु/अभिभावक की उपस्थिति का अनुभव करते गुजर जाएगी। हमारा अनवरत पढ़ना-लिखना चलता रहे। इसके अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं। हमारे बाद की पीढ़ी जो चाहेगा वह भी पा लेगा। बस! सँजोना ही तो है।"
"आप भुलावे में हैं। आपलोगों के गुरु/बाबा सशरीर जा चुके हैं। आपलोग अब अपने लिखे पर उनसे सुझाव नहीं मांग सकते! उनसे कहा नहीं जा सकता कि आप हमारी त्रुटि बता दें। बाऊ जी जब तक थे आपलोगों ने श्रम कम किया।" बाबा/गुरु के पुत्तर जी ने कहा।
"थोड़ी देर पहले आपने ही कहा था, आपके विचार और बाऊ जी के विचार में बहुत समानता है। लत्तर/बेल सी हम बेटियाँ हमें चिन्ता नहीं । उनकी पगड़ी आपके सिर पर.. ! मैं तो यही कह रही थी कि,"बाबा/गुरु कहीं गए नहीं हैं ! उनकी उपस्थिति को महसूस करना है।"
आदरणीया विभा दी, अपने अपने विचार हैं। गुरुदेव को नमन व श्रद्धांजलि।
ReplyDeleteपिछले दिनों मेरे परिवार में ऐसा ही वाकया हुआ।
मेरे भाई के गुरूजी राजस्थान, झूँझनू में थे। वैरागी थे। स्थान भी बना हुआ है उनका। वे कुछ समय से बीमार चल रहे थे। उस समय यहाँ लॉकडाउन होने की वजह से भाई ना जा पाया। संयोग कुछ ऐसा कि शरीर त्यागने के अंतिम महीने में भाई से उनकी बात ना हो पाई। वे फोन करें तो भाई ऑफिस में, भाई फोन करे तो वे विश्राम कर रहे हैं। एक दिन उनके सिधारने की खबर मिली। भाई को बड़ा सदमा लगा, मलाल भी रहा कि गुरुजी ना जाने क्या कहना चाहते थे मुझसे।
गुरु शिष्य का रिश्ता भी कोई पिता और बच्चों के रिश्ते से कम नहीं होता। सच्चे गुरु तो संसार छोड़ने के बाद भी शिष्य का मार्गदर्शन करते हैं। हमारा भी यही अनुभव है।
भाई को कहियेगा कि किसी तरह का मलाल ना करें। गुरुजी जो भी कुछ कहना चाहते थे, धीरे-धीरे एहसास से अवगत होता जाएगा।
Deleteआपने सत्य कहा.. सच्चे गुरु तो संसार छोड़ने के बाद भी शिष्य का मार्गदर्शन करते हैं।
सच्चे गुरु किसी क्षेत्र विशेष के नहीं होते वरन हृदय के होते हैं.
ReplyDeleteनमन. RIP
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अच्छा गुरु मिलना सौभाग्य की बात है,गुरुदेव को शत शत नमन।
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 15-07-2021को चर्चा – 4,126 में दिया गया है।
ReplyDeleteआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
हार्दिक आभार आपका
Deleteसम्प्रति युग में सच्चा गुरु मिलना भाग्य की बात है - - फिर भी गुरु जनों को सम्मान देना ज़रूरी है, वैसे माता पिता से बढ़ कर कोई गुरु नहीं।
ReplyDeleteसब आस्था की बात है । ऐसे लोग कभी भी अपने से अलग या दूर जाते नहीं लगते । नमन
ReplyDeleteनमन।
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