अनेकानेक सृजक जुगनुओं को तैयार कर चुके वरिष्ठ साहित्यकार की अचानक अन्तिम यात्रा शुरू हो गयी...। साहित्य जगत अनहद तम घिर जाने की कल्पना से भयभीत हो उठा। सन्ध्या में सूर्यास्त एक पक्षीय दृष्टिकोण है। मोक्ष जीवन सन्ध्या का सत्य सदैव स्वीकार नहीं हो पाता है। श्रद्धांजली-शब्दांजली का दौर शुरू हो गया। एक संस्था ने श्रद्धांजली सभा एक अन्य के जयंती सभा के संग रखी। पुष्पांजली के लिए तस्वीर और बैनर केवल जयंती वाले का रहा। एक अन्य गोष्ठी में किसी ने कहा, -"मैं उनसे लगभग चालीस-पैतालीस सालों से जुड़ा हुआ था। अपने सारे दुःख उनसे साझा करता था और उसका निदान पा भी लेता था।" ये वो महाशय थे जो गुरू के नाम को कैश करते रहे... । अन्तर होता है अपने दुःख साझा कर लेना और सामने वाले के दुःख को समझ लेना.. । हमारी साँसों तक सूर्य का अस्त होना सम्भव नहीं होगा ख़ुद से वादा तो कर लें... । मैं से मैं
"गुरु जी ! क्या आप अपना निवास स्थान बदल रहे हैं ?
"निवास स्थान बदल नहीं रहा हूँ स्थायी रूप से अब यह शहर ही छोड़ कर जा रहा हूँ..!"
"उस बच्ची का क्या होगा जिसे आप निःशुल्क शिक्षा दे रहे हैं ?"
"वो बच्ची प्रतियोगिता जीत कर पुलिस बन गयी और दूसरे शहर में नियुक्त हो गयी..!"
"किलकारी के बच्चों-बच्चियों का साहित्यिक भविष्य अंधकारमय दिखलाई पड़ रहा है मुझे..,"
"उनकी मुझे बिलकुल चिन्ता नहीं, क्योंकि मेरा योग्य शागिर्द वादा किया है कि उनका साहित्यिक लेखन निर्बाध्य रूप से प्रगति करता रहे इसकी जिम्मेदारी निभाएगा।
"आप कई संस्थाओं के अध्यक्ष-अभिभावक हैं उनका तो निश्चिंत बेड़ा गर्क हो जाएगा !"
"उन संस्थाओं में अध्यक्ष से ज्यादा मजबूत कन्धे और इरादों वाले सदस्य और सचिव हैं... सैलाब नहीं आने देंगे.."
यूँ तो गुरु जी प्रत्येक पर्व-त्योहार में अपने बच्चों के पास चले जाते थे। फोन पर बात करते समय उनके आस-पास वो शान्ति समझ में नहीं आती थी जिनकी वे चाहत प्रकट करते थे।
गुरु जी अक्सर कहा करते थे कि उनका जी अब केवल लिखने-पढ़ने में लगता है। बगल में रेडियो बजता रहे और कुछ टॉफियाँ पास में हो तथा बीच-बीच में चाय मिलती रहे। अब स्थायी रूप से शहर छोड़ने की बात सुनकर एकता विचलित थी। गुरु जी को रोकने का असफल प्रयास कर रही थी क्यों कि उन्होंने कहा कि अब बच्चे चाहते है कि डैडी उनके साथ रहें। आखिर आत्मज और खून का रिश्ते का पलड़ा भारी होता दिखलाई दे रहा था। अभी तक जिन्हें केवल पैसों से मतलब रहा और शिकवा कि हमारे लिए किया ही क्या है। सारी जिन्दगी तो समाज हेतु साहित्य में डूबे रहे। अब तो सेवा की जरूरत है तो
कर्मस्थली ने एक ही लेखनी को शिक्षक, लेखक, समीक्षक, प्रकाशक, सम्पादक, पथ प्रदर्शक बना डाला। लघुकथा नगर, महेन्द्रू पटना यह पता रहा एक लम्बे अर्से तक। कोई मकान नम्बर नहीं , कोई गली नम्बर नहीं, बस लघुकथा नगर। यह एक ऐसे आदमी का पता रहा है , जो लघुकथा में ही जागता, लघुकथा में ही स्वप्न देखता। ओढ़ना बिछाना लघुकथा ही रह। यह लघुकथा का वह सूत्रधार रहा , जिससे भारत भर के लघुकथाकार, समीक्षक, समर्थक, स्थापित साहित्यकार, नवोदित रचनाकार, राजनेता, पत्रकार, सभी जुड़े हुए रहे। आजीवन लेखन का जज़्बा एक ही रफ्तार से कायम रहा। जन्मस्थली देश बँटवारा के कारण छूट गया और कर्मस्थली उम्र ढ़लने के बाद अस्वस्थ्यता के कारण। हजारों लेखक उनका सानिध्य चाहते थे। लेकिन सात बेटियों के संग पला इकलौता बेटा अपने पिता से आजीवन विरक्त रहा। कर्मस्थली पर कभी नहीं ही दिखलाई दिया। कर्मस्थली छोड़ने के बाद मात्र आठ महीने के जीवन काल में यानि बरगद के ध्वस्त होते समय भी झलक पाने नहीं आया। पिता को प्रतिपल अपने पुत्र की प्रतीक्षा रह गयी। नाती मुखाग्नि दिया..। बेटियाँ सेवा से लेकर श्राद्धकर्म की तैयारी कीं। धीरे-धीरे पुत्र की अभिलाषा खत्म हो जाएगी।
यूँ तो वर्षों से अपने पुत्र और पोते को हर बात में याद करते थे लेकिन जबसे रामरतन बीमार पड़े तबसे नाती और बेटी से बार-बार फोन कर बुलाने के लिए कहते। बेटी फोन करती लेकिन उसका फोन कोई उठाता ही नहीं। रटते-रटते रामरतन अन्तिम यात्रा पर निकल गए। सात बहनों का इकलौता भाई ना तो बहनों के गले लग दिलासा देने आया और ना अन्धी माँ का सहारा देने आया। जब बेटा ही नहीं आया तो बुआ-चाचा-मामा क्या आते..! एक दूसरे को दिलासा देती बहनें खुद को ज्यादा समझाती, –"चार दिन बाद उसकी बेटी की शादी है भला कैसे आ पाता..!"
–"हाँ! तुम ठीक कह रही हो। लड़की की शादी दस तरह का डर लगा रहता है।"
–"दिन बढ़ाने पर कहीं लड़के वाले किसी तरह का बहाना बनाकर इन्कार कर देते तो...,"
–"मरनी पर सात पुश्तों को हड्डी का छूत लगता है दीदी..! भला लड़के वाले ऐसे घर में पानी कैसे पीने आयेंगे?" घर की सहायिका से बर्दाश्त नहीं हो सका तो वह उबल ही पड़ी।
–"तुमको इससे क्या लेना-देना? तुम अपने काम से मतलब रखो। घर के मामले में मत बोलो। तुम क्या जानों समय बदल गया है। अब ऐसी रूढ़ि परम्परा की बातों को आधुनिक लोग नहीं मानते हैं..! " कई बहनें एक साथ बोल पड़ीं।
–सच में मुझे क्या मतलब दीदी। लेकिन कह देते हैं कहीं आगे पछताना ना पड़े। अभी कहीं यह बात लड़के वालों से छुपा लिया हो। समाज कितना भी आधुनिक हो जाये। मरनी में पूजा-पाठ नहीं होता तो शादी-ब्याह... तौबा-तौबा...!"
जंग के कितने रंग । मन हुआ भंग ।
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 26-08-2021को चर्चा – 4,168 में दिया गया है।
ReplyDeleteआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
असीम शुभकामनाओं के संग हार्दिक आभार आपका
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 26 अगस्त 2021 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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असीम शुभकामनाओं के संग हार्दिक आभार आपका
Deleteअजब सी हूक उठीं.. पता नहीं कहा चूक हो जाती है।
ReplyDeleteसच लिखा आपने।
शुभकामनाएँ।
बहुत सुन्दर और सार्थक आलेख, विभिन्न पहलुओं को उजागर किया आप ने , विचारणीय बिंदु उभरे, राधे राधे।
ReplyDeleteकर लघुकथा चिर हरित चमन,
ReplyDeleteकिये कथावीर अब चिर शयन।
सहमा, शांत, सूना उपवन,
अर्पण श्रद्धा नम नयन नमन!
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
सुन्दर
ReplyDeleteलघुकथाओं की कड़ी में एक और सुंदर लघुकथा । बहुत शुभकामनाएं आदरणीय दीदी 🙏🙏
ReplyDeleteबहुत सुंदर लघुकथा
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