रक्षाबंधन, 1976
"यों तो तुम चिकना घड़ा हो गयी हो! जरा बताना, यह कहाँ का न्याय है? एक भाई के मोक्ष के कारण अन्य सारे भाइयों की कलाई सूनी रह जाए। अक्सर ऐसा हो जाता है, हमारा जो खो गया उसके विलाप में जो हमारे पास है उसको हम अनदेखा करने लग जाते हैं।" अन्तर्देशीय पर छपे शब्दों को आँसू धुंधले कर रहे थे।
रक्षाबंधन, 1977
"जिस पर पाँच रुपया या दस रुपया टाँका गया हो वही राखी मेरे लिए मंगवाना..,"
"यह तो अन्याय है। आप अभी अध्येता हैं। जो रुपया नेग में देने के लिए मिलता है, उसे भी आप अपने पास रख लेते हैं और ऊपर से..,"
"सुग्गिया! गाँठ बाँधकर रख ले.. ! जब तू बड़ी होगी और तेरी शादी होगी तो मैं ही तुझे बुलाने भेजने की जिम्मेदारी मेरी होगी। मैं पिता के संग ही रहूँगा... तब सब गाँठ खुल जायेगा।"
रक्षाबन्धन, 1982
शादी के बाद की पहली राखी.. कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं..! बहुत
रक्षाबंधन, 1995
सुग्गिया और उसके कुछ भाई अब एक ही शहर में रहते हैं तो राखी में गुलजार रहता है।
रक्षाबंधन, 2015
सुग्गिया दूसरे राज्य में रहती है। ऐसा पहली बार हुआ है कि आज राखी के दिन ही सुग्गिया का जन्मदिन पड़ा। सुग्गिया सारे भाइयों को न्योता दिया गया था। सुग्गिया उल्लासित प्रतीक्षा करती रह गयी।
रक्षाबंधन, 2018
बहुत सालों पहले चिकना घड़ा कहने वाले सारे भाई सुग्गिया को अब पत्थर कहते हैं...।
रक्षाबंधन, 2021
पौधे वृक्ष बनने के कगार पर पहुँच गए हैं। सुग्गिया पत्थर से मीठा स्त्रोता फूट गया है। थाली में अक्षत रोली राखी के खाली पैकेट और बुझे दीप संग पाँच-पाँच सौ के रुपये गवाही दे रहे हैं
बहुत कुछ है ४५ साल के इस सफर में
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(११-११-२०२१) को
'अंतर्ध्वनि'(चर्चा अंक-४२४५) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
हार्दिक आभार आपका
Deleteसुंदर कहानी
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत ही भावनात्मक लघुकथा
ReplyDeleteहृदय स्पर्शी कथा।
ReplyDeleteवाह!सुंदर सृजन।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और मार्मिक कथा !
ReplyDeleteजाने वाले का मलाल दिल में जो हैं चनका अभिनंदन बुरा तो नहीं पर दुनिया मन से मलाल करे न करे दिखावे बहुत करती है और चाहती भी है...दिखावा नहीं तो हो गये पत्थरदिल।
ReplyDeleteसारगर्भित लघुकथा।
प्रश्न उठ रहे हैं कि ऐसा क्या और क्यूंकर हुआ ?
ReplyDeleteउत्तर लेखन में ही है आदरणीया
Deleteसादर