"अपने सृजन का कबाड़ा करती ही हो। अन्य लेखक की रचनाओं में अपनी ओर से अन्तिम पँक्ति जोड़कर रचना को कमजोर कर दिया.., वरना कलम तोड़ थी!"
"तुम क्या जानों, रचना की आत्मा कहाँ बसती है..!"
"थोथा चना...! तुम जैसे सम्पादक-प्रकाशक की नज़रों में पाठक-समीक्षक तो गाजर मूली होते हैं!"
"क्या मैंने लेखक गाँव है, जिसको गोद लिया है?"
"मित्रता के आड़ में आँखों में धूल झोंक देना आसान होता है। अरे! मैं मित्रता की बात कहाँ से उठा लायी। वो तो अनजान था जो तुम्हारा चक जमा सुनकर आ गया था।"
"ऊंह्हह्ह! क्या मैंने उसे न्योता भेजवाया था?"
"गाँठ के पूरे, आँख के अंधे! उसके गिड़गिड़ाने का लिहाज़ कर, दो-तीन हजार कम कर देने से..,"
"क्या मैं तुम्हें मन्दिर की दानकर्त्री नजर आ रही हूँ। अपने और अपनों के पेट पर गमछा बाँध कर रहती।"
"समुन्दर पाटकर पुल-मकान बन जायेगा। तुम जैसों का पेट भर जाए तो कोई आत्महत्या ही ना करे।"
"घोड़ा घास से यारी..,"
"अरे! उतना ही होता तो तुम पुस्तकों के कुतुबमीनार पर सिंहासन नहीं लगा पाती...,"
"सभी गर्दन ऊँचीकर बात करते..,"
"अंधे के हाथ बटेर लगा। काश! उनके बातों में सम्मान भी होता..,"
बात पूरी होने के पहले पुस्तकों का कुतुबमीनार हिल गया और मैं धड़ाम से पुस्तकों के नीचे दब गयी। साँसों का साथ छूटने के पहले मेरी आँखें खुल गयीं। कमरे के चौसीमा में नजरें दौड़ाई तो जीवन रक्षक यंत्रो की भीड़ दिखी। परिचारिका की बातों से लगा कि मुझे नयी जिन्दगी मिली है।
वाह
ReplyDeleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (31-10-21) को "गीत-ग़ज़लों का तराना, गा रही दीपावली" (चर्चा अंक4233) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
हार्दिक आभार आपका
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 01 नवम्बर 2021 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
सुंदर प्रस्तुति.
ReplyDeleteवाह गजब विभा जी, हमेशा कुछ अलग अंदाज।
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