Thursday, 30 September 2021

'त्रासदी'

01. मैं बक संग

अनिर्णीत दौड़ में

सन्धिप्रकाश

02. स्त्री के हाथों में

हारिल की लकड़ी

फौजी की चिट्ठी

03. खेमा में आये

शरणार्थी का रेला

श्वान का रोना

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ठाढ़ा सिंह चरावै गाई का

ना ऐसा हाल था

चींटी मुख में हाथी

समा जाए का काल था

गार्गी सूर्या मैत्रयी सुलभा के बाद आयी

सावित्री बाई अरुणा सुचेता दुर्गा बाई

उत्‍तमोत्‍तम ओजोन थीं

ओजोन में छेद होते ही

खूँटे के बल पर उछलने वाली

व्यथा व्यक्त करने में हो गयी असमर्थ

पल लहरों के संग ही तो बहा है सपना

योजन में कद बढ़ न सका है अपना

मीन वाले जाल में टूटे पँख कैसे मिले

उड़ने की चाह में समझौते के कैसे गिले

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कल किसी से मेरी बात हो रही थी कि उसकी स्थिति उसे बेटी होने से दोयम दर्जे की है तो उसकी सहेली को बेटी हुई तो उसके तथाकथित अपने उससे मिलने अस्पताल नहीं आये

हम इकीसवीं सदी में पहुँच गए और आज भी बेटी बचाने बेटी पढ़ाने के लिए गुहार लगा रहे हैं 

मन मछलता है तो हम लेखन कर सन्तुष्टि पा लेते हैं... समाज की दशा बदलने हेतु एक दिशा देने का प्रयास करते हैं लेकिन सुधार कितना दिखलाई दे रहा है

जब मैं सारे प्रान्त से आयी महिलाओं से मिलती हूँ और व्यथा की कथा सुनती हूँ कि आज भी बेटी जन्म लेने पर परिवार वाले कैसा व्यवहार करते हैं तो विश्वास करने का जी नहीं करता है क्योंकि हम बदली दुनिया में जी रहे हैं..

 शादी के एक महीना बीतने के बाद ही या तो बहू जला दी जाती है या कन्या तलाक की मांग कर लेती है

और दहेज लाने के लिए प्रताड़ित की जाती है या वर पक्ष को प्रताड़ित करने के लिए झूठा आरोप लगाया जाता है

बार-बार बयान बदलने वाले समाज में हम जी रहे हैं किसका पक्ष लें... आज का जब इतिहास लिखा जाएगा तो लिखने वाले का भूगोल बदल जायेगा

9 comments:

  1. सही बात| सोच बनानी है अब समय सोच बदलने का रहा ही नहीं|

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन  में" आज गुरुवार 30 सितम्बर   2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है....  "सांध्य दैनिक मुखरित मौन  में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (01-10-2021) को चर्चा मंच         "जैसी दृष्टि होगी यह जगत वैसा ही दिखेगा"    (चर्चा अंक-4204)     पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'   

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  4. सही कहा आज भी समाज की सोच वहीं की वहीं है...समझ नहीं आता कि कभी बदलेगी भघ हमारे समाज की सोच।
    बहुत सुन्दर सृजन।

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  5. इस समाज की मानसिकता न बदली है न बदलने के आसार दिख रहे ख़ासतौर से लड़कियों और स्त्रियों के मामले में।बहुत सटीक चिंतन।

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  6. मन मछलता है तो हम लेखन कर सन्तुष्टि पा लेते हैं... समाज की दशा बदलने हेतु एक दिशा देने का प्रयास करते हैं
    एकदम सही बात की है आपने पर बहुत दुख होता है जब हमारी बातों का किसी पर कोई असर ही नहीं पड़ता है!
    मैंने ऐसी भी मां को देखा है जो पुत्र मोह में कुछ इस तरह होती हैं कि नन्ही सी कली को खिलने से पहले कुचल देतीं हैं जबकि उन कोई दबाव नहीं होता है!ऐसा वे सिर्फ पुत्रमोह में अंधि होने के कारण करती हैं!

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  7. समाज की सोच वहीं की वहीं है

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