Monday 14 October 2019

लोकार्पण-परिचर्चा

वाजा (राइटर्स एंड जनर्लिस्ट एशोसियेशन) के बैनर तले बैंगलुरू में  " यादों का कारवाँ " लोकार्पित।

 _मलयाली भाषी लेखिका ने सृजित की तीसरी हिन्दी कृति_ 

आज वाजा बैंगलुरू इकाई की ओर से "यादों का कारवाँ" नामक पुस्तक का विमोचन व परिचर्चा का कार्यक्रम करूणाय हाल जीवन बीमा नगर बैंगलुरू में सम्पन्न हुआ। कार्यक्रम में दक्षिण भारत के विभिन्न भाषाओं के सैकड़ों लेखक - पत्रकार मौजूद रहे।
प्रातः 11 बजे से शुरू हुये इस कार्यक्रम का संचालन करते हुये वाजा बैंगलुरू के संगठन सचिव अजय यादव ने पुस्तक परिचर्चा के समीक्षकों का मंच पर आवाहन किया , बताते चलें कि बैंगलुरू में यह प्रथम अवसर था जब किसी पुस्तक समीक्षा व परिचर्चा हेतु मंच पर एक साथ बड़ी संख्या में लोग मौजूद थे । 
समीक्षा की विशेषता थी कि चार समीक्षक को 15-15 रचनाओं की और पाँचवें समीक्षक को सात रचनाओं की समीक्षा करनी थी... यह सार्थक सराहनीय अनुकरणीय प्रयोग था.. समीक्षकों में मधुकर लारोकर,उपाध्यक्ष वाजा बैंगलुरू डा.सुनील तरूण जैन वरिष्ठ मंचीय कवि, डा.शशि मंगल वरिष्ठ साहित्यकार जयपुर, विभा रानी श्रीवास्तव पटना श्री गजे सिंह सहित कई लोग मौजूद थे। 
इस अवसर पर उक्त पुस्तक की रचयिता केरल की मूल निवासी व मलयालम भाषा की प्रतिष्ठित लेखिका रेखा पी मेनन को वाजा संगठन की ओर से बैंगलुरू महासचिव प्रोफेसर लता चौहान ने अंग वस्त्र , माल्यार्पण व स्मृति चिन्ह प्रदान कर स्वागत किया। मंच पर उपस्थित अतिथियों का स्वागत वाजा बैंगलुरू की कोषाध्यक्ष श्री लता ने किया तथा संचालन सहयोग वाजा बैंगलुरू की सचिव चिलुका पुष्पलता द्वारा किया गया।
बताते चलें कि कविता संग्रह यादों का कारवाँ में कुल सरसठ(67) कवितायें हैं। इस पुस्तक के लेखिका की मातृभाषा मलयालम है फिर भी उन्होने हिन्दी भाषा में यह तीसरी कृति सृजित की है।
कार्यक्रम के आखिरी चरण में एक काव्य गोष्ठी भी आयोजित की गई जिसमें राशदादा राश, राजेन्द्र राही जी, सुशील जी शांति कोकिला,प्रियंका श्रीवास्तव पटना,अनीता तोमर , डॉ.सुनील तरूण इत्यादि ने कविता पाठ कर श्रोताओं की तालियाँ बटोरी।©डॉ. लता चौहान
यात्रा "यादों के कारवाँ" के संग
*विभा रानी श्रीवास्तव*

 पटना/बिहार में जून 2013

ज्येष्ठ के ताप से दीवानगी मिली
रेत पर नंगे पाँव दौड़ लगाती गई

रास्ते में राह रोके
बाधा में रोड़ा नहीं,
चट्टानों से सामना हुआ
ठोकर खाई ठोकर लगाई
झाड़ी नहीं,
विशाल वन मिले
शूल यादें निकालती गई
फूल यादें संजोते गई।
सुता बहना भार्या जननी बनी
स्त्री जीत गई जी गई जीती गई

शब्दों से उलझते-सुलझते हुए को समय ने संकेत भी नहीं दिया था कि छ: साल के बाद भविष्य के गर्भ में छुपी हुई जून 2019 में प्रकाशित कृति "यादों का कारवाँ" उसके हाथों में होगा। 1989 यानी तीस सालों से दक्षिण भारत की यात्रा कर रही हूँ। हिन्दी भाषा/बोली को लेकर सदा मैं मायूस होती थी कि आखिर हिन्द का हिस्सा होकर भी यह प्रान्त हिन्दी को क्यों नहीं अपना बना पाता है । तमिल, तेलुगु, कन्नड़, या मलयालम है तो क्षेत्रीय भाषा ही जैसे बिहार में उर्दू के संग भोजपुरी, मैथली, मगही, अवधी, पाली, वज्जिका या/व अंगिका।

लेकिन! हाँ, हम आँगन में बैठे-बैठे नभ को नापने का अंदाज़ा नहीं लगा सकते हैं। सागर के तह में जाकर ही मोती को पा सकते हैं। नियति ने 2019 का समय निर्धारित कर रखा था मेरे स्तब्धता के लिए। अभी हाल में13 सितम्बर 2019 को एम.ओ.पी वैष्णव महिला महाविद्यालय चेन्नई में हिन्दी विभाग की साहित्य समिति "मंजरी" द्वारा हिन्दी दिवस के अवसर पर एक कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया था, जिसमें कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहीं श्रीमती निर्मल भसीन (निदेशिका, समाज कल्याण, पंजाब एसोसिएशन चेन्नई) ने महाविद्यालय की प्राचार्या डाॅ. ललिता बालकृष्णन को वैष्णव गौरव सम्मान प्रदान करने की घोषणा कीं और शाॅल ओढ़ाकर उनका बहुमान किया। और उसी कार्यक्रम में मैं विशिष्ठ अतिथि के रूप में आमंत्रित उन्हें वैष्णव गौरव सम्मान चिह्न शील्ड प्रदान किया। डाॅ ललिता बालकृष्णन को वैष्णव गौरव सम्मान देने की घोषणा करते हुए श्रीमती निर्मल भसीन ने डॉ. कृष्णन के द्वारा हिन्दी को प्रचारित एवं प्रसारित करने की दिशा में किए गए कार्याें का उल्लेख करते हुए उनके द्वारा एम. ओ. पी. का ऐंथम हिन्दी में रचे जाने और लागू करने की भूरि- भूरि प्रशंसा की। मैंने अपने उद्बोधन में कहा कि पिछले तीन दशकों से चेन्नई आ रही हूँ , परन्तु आज चेन्नई शहर के इस महाविद्यालय में जैसा हिन्दीमय वातावरण देखने को मिला वैसा पहले कभी नहीं मिला था। मेरी आँखें जुड़ा गईं और राहत की सांसें मिली। मेरी चिर संचित अभिलाषा पूरी हुई कि दक्षिण भारत में भी हिन्दी का सम्मान है। वही भावानुभूति हो रही है आज 13 अक्टूबर 2019 को "यादों का कारवाँ" के संग-संग यात्रा करते हुए। 112 पृष्ठों में 67 विषयों को समेटे कवयित्री रेखा पी मेनोन जी की यह अद्धभुत सृजन है। मैं स्तब्ध हूँ इनकी सरल भावाभिव्यक्ति पर। कहाँ सहजता से हो पाता है सरल होना।

फाहे, रुई का ढ़ेर, श्वेत कबूतर सा से बादल की तुलना अनेक रचनाकारों के सृजन में सबको मिला होगा। बादल की तुलना तितलियों से करना अनोखा है ।तितली जिसके पंखों में सतरंगी छटा, तड़ित की सी फुर्ती, कोमलांगी का पुष्पों से अनुराग,ओह्ह! अनुपम है। हवाई यात्रा में मैंने भी कोशिश किया कवयित्री के भावों को अपने अनुभव में समेट लेने का। लेकिन मौलिक तो मौलिक है...! उदासी के पलों में मुस्कान उपहार होगी , 78 वें पृष्ठ पर रची 46 वें विषय की "यह बदरिया बावरी" रचना पर मुझे अचंभा हो रहा है कि दक्षिण भारतीय रचनाकार का सृजन है। आगे लिखती हैं, ओ मोरी बदरिया री, जरा मुझसे आके मिल री, रस्ता देख-देख तोरे, थक तो गयी अखियाँ री।इतनी गहरी प्रतीक्षा, इतना मनमोहक आमंत्रण.. कौन ना वशीभूत होकर आ जाये। उम्मीद है , अरे नहीं विश्वास है कि बादल से नायिका की भेंट अवश्य हुई तभी तो पृष्ठ सत्तासी पर विषय इक्यावन में "हे बादल" पुनः विराजमान है–मुस्काई मैं भी बादलों को देखकर, धुँधली सी मुस्कान-शायद कोई सोच भी हावी है! हाँ! है ना! दीप बनने का, न करती हूँ कोई वादा किसी से, मगर जुगनू बनने की, कोशिश जरूर करती हूँ। और बादल से अनुरोध कर रही हैं कि सारे भुवन में इस बात को वो फैला दे। भला बादल से बेहतर जग के कोने-कोने में विस्तार करने वाला दूसरा कौन हो सकता है। प्रचार-प्रसार का उचित माध्यम चुना नायिका ने। नायिका का सन्देश मिले और उसका अनुकरण कर विश्व का एक-एक मनुष्य जुगनू ही बन जाये । पथ-प्रदर्शक बन जाये। संसार का तम, ये युद्ध , ये विध्वंस, ये अराजकता, ये आतंकवाद, ये कालाबाज़ारी का नाश, यूँ! यूँ चुटकियों में हो जाये। अंतरात्मा में उजाले की कमी से ही तो यह हाहाकार मचा हुआ है। पूरी रचना का भाव अद्वितीय है। नमन कवयित्री को सामयिक सार्थक सृजन के लिए। 

हर रोज निकलता है जनाजे खुशी के, मगर गाती हूँ मैं नगमें खुशी के। पाठक के लिए हौसले का आधार बनेगी 47 वें शीर्षक "गुलिस्तान" की ये पँक्तियाँ । धरा-धारा-स्त्रियाँ कब ठहर गम मनाने का मौका पा सकी हैं। कब अम्बर टूटे तारों पर शोक मनाता है। कहते हैं न चिंता चिता तक की राह निष्कंटक बनाती है। ईश सदा इन्हें यूँ ही मस्त रखे।

   रातरानी भी, नागफनी भी, कनेर भी, पलाश भी, चंपा भी, रजनीगंधा भी, गुलाब भी होने चाहिए किसी सदाबहार बागीचे में । तम-ताप, शूल-फूल, विष-मध अमृत अनेक विभिन्नताओं को समेटे सुंदर-संतुलित आधार मिलता है जीवन जीने के लिए। आसान जिंदगी नहीं मिलती किसी को । किसी को जमी नहीं मिलती किसी को...। वक्त की ताकत, वक्त की नजाकत बड़ी खूबसूरती से समझाने में सफल रही है कवयित्री। कल्पना-विचार सराहनीय है। दुनिया वाले चाहे खूब सितम, अपने आपको संभालना होगा, अफ़कार को चाहे फाड़े बेरहमी से, बेझिझक अपने पे एतबार करना होगा, पृष्ठ अन्ठानवे के विषय साठ "मुकद्दर में क्या लिखा है" हिम्मत-हौसला-आस जगाती ही रचना है। खुदी को कर बुलंद इतना कि ख़ुदा तक़दीर बनाने के पहले तेरी रज़ा पूछे के स्तर की रचना बन गई है। परंतु थोड़ी हताश भी लगी है लेखनी या थक गई थी। दूर लहरों में, हिलती डुलती कश्तियाँ कई, मगर पकड़ने का कोई चारा नहीं, काश! टूटा हुआ ही सही कोई कश्ती होती "किनारे पे खड़ी हूँ" पृष्ठ 97 के उनसठवें विषय की नायिका में घबराहट है जिससे मनोचित गुण झलक रहा है। इंसान व ईश के बीच के अंतर का स्वाभाविक चित्रण । कवयित्री को साधुवाद!

ज़माना कहता है योगी है, निगुरे कहते ढ़ोंगी है। और गाँव के लौंडे कभी-कभी, दाढ़ी को खींचा करते हैं, 'पागल-पागल' कह-कह के उनको छेड़ा करते हैं।

हैरान थी मैं सोच-सोच के , ऐसा भी कोई होता है। नफरत की चिंगारी भी, न छू पाया उस मुख-मंडल को

बदला बर्बाद करती है स्व की जिंदगी। स्वानुभव से जाना-समझा-माना और मैंने अनुमोदन कर डाला कवयित्री के चित्रण से। सत्य का नहीं कर सकते अनुमोदन, व्यक्तित्व का नहीं हो सकता शोधन। शांति पाने का राज है पृष्ठ 82-83 के विषय 48 वें 'शांति' के चित्रण में। शांति के खोज के लिए हम प्रयत्नशील होते हैं, जगत में भटकते हुए और शांति होती है हमारे आत्मा/ज़मीर में लिप्त। हमारे अशांत होने का कारण हमारे स्व का व्यवहार ही होता है। सब समझें कि हमें शांत होने में कैसे सहायता मिल सकती है। किसी के नकारात्मक बातों में, क्रिया-कलापों में हिस्सेदारी ना निभायें। लोग कहते हैं फलाने ने फलाने का अपमान कर दिया! क्यों भाई कैसे? मैं तो कहती हूँ , फलाने ने फलाने के सामने अपने संस्कार-परवरिश का प्रदर्शन किया और उस फलाने ने क्या लिया? यह तो पता कर लो। मैं तुम्हें कोई वस्तु पकड़ाई और तुमने उसे नहीं लिया तो वह मेरे पास ही रह गई न? सरलता-सहजता से लेखन सराहनीय है। कोमल दिल की हैं कवयित्री अति संवेदनशील। तभी तो इतनी सुंदर-सुंदर कविताएं सृजित है। तितली, भौरें, कली प्रकृति से अतिशय प्रेम दर्शाता है। सरल सी धारा प्रवाह है इनके लेखन में। सभी रचनाओं के संग "ओ मेरी कली" में भी एक सार्थक सन्देश है। अपने अस्तित्व के बचाव का। अपने सारे दायित्व पूरे करो, परन्तु अपनी सुरक्षा करते हुए। पृष्ठ 84 विषय 49 में कवयित्री कली के माध्यम से बताना चाहा है । स्त्री स्वाभिमान की रक्षा कर ले तो ही वह पूरक हो सकती है समाज में उदाहरण बनकर। वह आधा सेव नहीं है वह इंसान है। अतः पुरुष से प्रतियोगिता नहीं , उसकी सहगामनी बने। किसी गाड़ी का दो चक्का, क्या दोनों में कोई अंतर? हम सबको प्रयास करना चाहिए यह सन्देश दूर तक फैले। स्त्री के साथ-साथ तितली, भौरें, कली पक्षी प्रकृति का भी अस्तित्व खतरे में है। जिसतरह विकास के नाम पर वृक्ष काटे जा रहे हैं तथा न्यायालय मौन रह जाए जो रहा है। भविष्य में भयंकर परिणाम आने वाला है। 

पहाड़ों पर जैसी होती है सड़कें, वैसी ही है जिन्दगी...। कभी एक तरफ खाई,कभी दूजी ओर खाई..। पलक झपकते कभी चौंक जाना ,कभी सहम जाना तो कभी दहल जाना। दिल की निरिक्षण करने वाली मशीन में दिखती आड़ी-तिरछी लकीरें ,बताती हैं न कि जीवन है...। उसी तरह जिन्दगी में हैरान करने वाली बातें हमें इन्सान बने रहने में मदद करती हैं। कवयित्री रेखा जी भी हैरान हैं, पृष्ठ 85-86 में ,पहले भी बातें हुई हैं उनसे ही मिलता हुआ भाव लिए विषय 50 वें “हैरान हूँ” में। हँसना-रोना-गाना-मिलना-बिछुड़ना यूँ ही हैं जैसे बदलते ऋतू। लयबद्ध कविता सुखद अनुभव। जिन्दगी को छोड़ें उनकी उलझनों के दर पर, सम्भाले शब्दों की बिसात बहुत अपने दम पर। इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम में लकीरें सीधी दिखने लगे तो क्या हो। जब बहुत कुछ कहने का हो मन, ख़ामोशी को थम लेती हूँ.. तलाश.. शब्द-सौन्दर्य कि , तलाश.. शब्द-शक्ति की। वाह: सहज निकलेगा पाठक मुख से । बहुत ही पवित्र भावना, अगरबत्ती की सुगंध फैलाती हुई। गर्तों से शिखरों तक की यात्रा, रिश्तों को जोड़ने से तोड़ने का आधार शब्द ही तो है, जिसे बहुत ही सुन्दरता से कवयित्री ने पृष्ठ संख्या 89 विषय 52 में समझा दिया है। साथ में मैंने भी मान लिया कि अपनी रचनाओं में जिस तरह भावनाओं का संतुलन बनाये रखी हैं वो किसी साधारण के वश की बात नहीं है कोई शहजादी ही रख सकती है-सबके दिलों में राज करेंगी अपनी कविताओं से भी शहजादी रेखा पी मेनोन। पृष्ठ संख्या 55 पर जैसे हैं। गाये जाओ साथियों, खुशियों के गीत, बिदाई के नगमें गूँजेंगी उनकी आवाज जब पाठकों को मिल जायेगी कविता, लेकिन पाठक कुरेदना नहीं छोड़ेंगे। शायद यह इच्छा कवयित्री की पूरी ना हो। जितना पता आसानी से चल जाता है उतने में संतोष कहाँ हो पाता है। मगर ना दुबलता नजर आ रही है और ना कोई समझ लेने की भूल करेगा। कवयित्री की दो रचना एक ही रचना का विस्तार लग रहा है मुझे। विषय भी लगभग समान है। प्रवाह बहुत सुंदर है। सबकी हो जायेगी “कविता मेरी कविता” । कुछ टंकन त्रुटी है या तो अहिन्दी भाषी प्रदेश की होने के कारण सही-सही जानकारी नहीं होने की आशंका है। अत: उसपर ज्यादा ध्यान नहीं देते हुए यह कहना चाहूँगी कि कवयित्री ने अपने लेखन में पूरा न्याय किया है और समाज को एक दिशा देने में कामयाब होंगी। कुछ रचनाएँ जैसे “शहजादी”,”वजह चाहिए”,”किनारे पे खड़ी हूँ” को पढ़ने के बाद एक उम्मीद जगी है कि वे “हाइकु” बढियाँ लेखन कर सकती हैं। इन रचनाओं में वे सागर को गागर में भरने की कोशिश की हैं। जीने के लिए लेखन से उत्तम क्या आधार हो सकता है। कभी-कभी किसी बड़े शहर का दृश्य टेलीविजन पर उभरता है , तेजी से आती-जाती भीड़ का। किसी चेहरे को पढ़ पाना बेहद मुश्किल हो जाता है। तो कभी-कभी एअरपोर्ट पर-रेलवे स्टेशन पर आते-जाती भीड़ से सामना हो जाता है।उस भीड़ को भी देखकर पता नहीं चलता है कि किसके अंदर कैसा बवंडररहा है। लेकिन उसी तरह की भीड़ की हिस्सा बनी “धूल भरी राह के किनारे..” की नायिका लक्ष्यविहीन है यह आश्चर्य का विषय लग रहा है। ना जाने उस समय किस आशंका से ग्रसित होंगी। लेखन का उद्देश्य स्पष्ट नहीं हो रहा है। कशमकश थी जिन्दगी ठोकर लगी बार-बार , अजीब सी मुकामों से गुजरकर उलझनों में फँसती रही बार-बार – यह बार-बार पृष्ठ संख्या 94 पिछली कही गई मेरी बात को काटती है अपने चित्रांकित जिन्दगी के कटू-मीठे अनुभवों का , उबड-खाबड़ राहों के हलचलों से। बेहद सुखद यात्रा रही मेरी, “यादों के कारवाँ” के संग! कवयित्री रेखा पी मेनन जी को असीम शुभकामनाओं के संग हार्दिक बधाई देती हूँ, इस अनुपम कृति के लिए भी और आनेवाली अनेकानेक पुस्तकों के लिए भी। मुझे गर्व के पल और अत्यधिक प्रसन्नता देने के लिए तथा मुझपर विश्वास करने के लिए सदा आभारी रहूँगी... 



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