"उफ्फ!ये शनिवार कितना जल्दी आ जाता है..."
"सच में माँ! पलक झपकते दिन गुजर जा रहे हैं..। लेकिन आपको किस बात की चिंता है माँ?"
"ब्लॉग पर पोस्ट नहीं बना पायी हूँ और इस समय कोई शब्द सूझ नहीं रहा है.., बिना शीर्षक के शब्द चयन के लिंक्स चयन कैसे और क्या करूँ...,"
"ओ हाँ! 'अस्तित्व' लीजिये माँ!"
"ऑफिस में कुछ हुआ क्या माया?"
"म्ममाँआ! आप एक बात से दूसरे बात का जोड़ कैसे मिला लेती हैं? वो क्या कहते हैं दो जोड़ दो बराबर पाँच कैसे?"
"यानी कुछ हुआ है.. इसलिए तुम्हारे चेहरे पर तनाव के जंगल उभर आये हैं?"
"जब परिस्थिति इच्छानुसार न हो और हमें उसमें बने रहना मजबूरी हो तो क्या करना चाहिए?
"मजबूरी को तौलना पहले जरूरी होता है ... सिवाय पति के संग बने रहने के स्त्री के लिए कोई और मजबूरी नहीं हो सकती। स्त्री को छत छोड़ने का सलाह मैं कभी नहीं देती हूँ। एक का नकेल नहीं कस सकी तो पूरे जग से जंग नहीं लड़ सकती है।"
"जी माँ! और किसी का मन न दुखे हमारी वजह से यह सोचना कितना उचित और उसका क्या उपाय हो ?"
"अपना स्वाभिमान देखना पहले जरूरी है..., अपने ज़मीर की जबाबदारी, जबाबदेही जिम्मेदारी अपनी होती है... आँख उसी से मिलानी होती है..,"
"जी माँ! अतिशयता अत्यधिक अप्रिय लगता है और विरोध करने पर सुनवाई न हो तो...,"
"बाकी तो.. किसी को खुश करने चलो तो उसकी खुशी का दायरा बढ़ता जाता है। और कोई चीज इकतरफा नहीं चलता है।बस दुःखी होना छोड़ दो... बाकी कबीरा ने कहा ही है... 'भाँति-भाँति के लोग...,' जिंदगी यात्रा में यात्री तो मिलेंगे ही.. लोमड़ी से शातिराना, भेड़ियों से क्रूरता से सीख, शेर से चालाकी...,"
"हुर्रे, मार्ग मिल गया माँ..! मैं थोड़ी देर में मिलती हूँ।"
थोड़ी देर के बाद मिलने पर पुनः माँ बात करती है..
"नहीं जानती कि तुम्हें किस लिए मार्ग चाहिए था... मैंने वही बताया था, जो मेरे अनुभव में रहा..,"
"आपका अनुभव ही मेरा मार्गदर्शन है माँ। दुनियादारी मेरी अभी परिपक्व नहीं है। हमेशा बेवकूफ ही बन जाती हूँ। मुझे लोगों की चालाकियाँ समझ में नहीं आती है। हमेशा इमोशनल फूल बन जाते हैं और दुखी होते हैं..,"
"ऐसा नहीं है... समय से अनुभव आ जाता है... ज्ञान और शिक्षा में यही तो अंतर पता चलता है। वैसे अब बताओ हुआ क्या था..?"
"जी माँ! सहकर्मियों की एक मंडली है मुझे उस मंडली के प्रधान से कार्य विवरण की जानकारी लेनी रहती है...। प्रतिदिन मैं उससे पूछती थी कि कैसा चल रहा है वह बोलती सब अच्छा चल रहा है। आज जब मैं मंडली के अन्य सदस्यों से जानकारी ली तो वे सुस्ता रहे थे। प्रधान बोली कि केवल वो अपने कामों को पूरा करने में जुटी थी..। अभी मैं सभी को रात-दिन एक कर काम पूरा करने के लिए चेतावनी देकर आयी हूँ। वरना सबकी शिकायतें करूँगी...।"
"जब पतवार थामना हो , नौका के पाल पर नजर गड़ाये रखनी चाहिए।"
"सच में माँ! पलक झपकते दिन गुजर जा रहे हैं..। लेकिन आपको किस बात की चिंता है माँ?"
"ब्लॉग पर पोस्ट नहीं बना पायी हूँ और इस समय कोई शब्द सूझ नहीं रहा है.., बिना शीर्षक के शब्द चयन के लिंक्स चयन कैसे और क्या करूँ...,"
"ओ हाँ! 'अस्तित्व' लीजिये माँ!"
"ऑफिस में कुछ हुआ क्या माया?"
"म्ममाँआ! आप एक बात से दूसरे बात का जोड़ कैसे मिला लेती हैं? वो क्या कहते हैं दो जोड़ दो बराबर पाँच कैसे?"
"यानी कुछ हुआ है.. इसलिए तुम्हारे चेहरे पर तनाव के जंगल उभर आये हैं?"
"जब परिस्थिति इच्छानुसार न हो और हमें उसमें बने रहना मजबूरी हो तो क्या करना चाहिए?
"मजबूरी को तौलना पहले जरूरी होता है ... सिवाय पति के संग बने रहने के स्त्री के लिए कोई और मजबूरी नहीं हो सकती। स्त्री को छत छोड़ने का सलाह मैं कभी नहीं देती हूँ। एक का नकेल नहीं कस सकी तो पूरे जग से जंग नहीं लड़ सकती है।"
"जी माँ! और किसी का मन न दुखे हमारी वजह से यह सोचना कितना उचित और उसका क्या उपाय हो ?"
"अपना स्वाभिमान देखना पहले जरूरी है..., अपने ज़मीर की जबाबदारी, जबाबदेही जिम्मेदारी अपनी होती है... आँख उसी से मिलानी होती है..,"
"जी माँ! अतिशयता अत्यधिक अप्रिय लगता है और विरोध करने पर सुनवाई न हो तो...,"
"बाकी तो.. किसी को खुश करने चलो तो उसकी खुशी का दायरा बढ़ता जाता है। और कोई चीज इकतरफा नहीं चलता है।बस दुःखी होना छोड़ दो... बाकी कबीरा ने कहा ही है... 'भाँति-भाँति के लोग...,' जिंदगी यात्रा में यात्री तो मिलेंगे ही.. लोमड़ी से शातिराना, भेड़ियों से क्रूरता से सीख, शेर से चालाकी...,"
"हुर्रे, मार्ग मिल गया माँ..! मैं थोड़ी देर में मिलती हूँ।"
थोड़ी देर के बाद मिलने पर पुनः माँ बात करती है..
"नहीं जानती कि तुम्हें किस लिए मार्ग चाहिए था... मैंने वही बताया था, जो मेरे अनुभव में रहा..,"
"आपका अनुभव ही मेरा मार्गदर्शन है माँ। दुनियादारी मेरी अभी परिपक्व नहीं है। हमेशा बेवकूफ ही बन जाती हूँ। मुझे लोगों की चालाकियाँ समझ में नहीं आती है। हमेशा इमोशनल फूल बन जाते हैं और दुखी होते हैं..,"
"ऐसा नहीं है... समय से अनुभव आ जाता है... ज्ञान और शिक्षा में यही तो अंतर पता चलता है। वैसे अब बताओ हुआ क्या था..?"
"जी माँ! सहकर्मियों की एक मंडली है मुझे उस मंडली के प्रधान से कार्य विवरण की जानकारी लेनी रहती है...। प्रतिदिन मैं उससे पूछती थी कि कैसा चल रहा है वह बोलती सब अच्छा चल रहा है। आज जब मैं मंडली के अन्य सदस्यों से जानकारी ली तो वे सुस्ता रहे थे। प्रधान बोली कि केवल वो अपने कामों को पूरा करने में जुटी थी..। अभी मैं सभी को रात-दिन एक कर काम पूरा करने के लिए चेतावनी देकर आयी हूँ। वरना सबकी शिकायतें करूँगी...।"
"जब पतवार थामना हो , नौका के पाल पर नजर गड़ाये रखनी चाहिए।"
हार्दिक आभार आपका आदरणीय
ReplyDeleteसचेत करती कहानी
ReplyDeleteबधाई
बहुत बढ़िया
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