मुखबिरों को टाँके लगते हैं {स्निचेस गेट स्टिचेस}
“कचरा का मीनार सज गया।”
“सभी के घरों से इतना-इतना निकलता है, इसलिए तो सागर भरता जा रहा है!”
“बरस भर पर तो आप सफ़ाई भी करवाती हैं।” गोदाम की सफाई करने के बाद सहायक ने कहा।
“तुम हर महीने सफाई क्यों नहीं कर देते हो! साल भर पर भी तुम्हारे पीछे लगना पड़ता है तो होती है यह भी सफाई। मैं अकेली कैसे करूँ! बेटी-बहू होती तो बीच-बीच में होता रहता।”
“आप जैसे भी हैं, बहुत अच्छे से हैं! है न एक और घर जहाँ काम करता हूँ। उनकी बहू के आँखों में जरा पानी नहीं है। सिर्फ़ अपने लिए खाना बनाती है। सास, पति और उसकी बेटी के लिए मैं बनाता हूँ। आपके घर में बेटी-बहू नहीं है तो एक दुःख है! जिनके घरों में बेटी-बहू हैं, भाँति-भाँति की समस्याएँ हैं!”
“सुन! किसी दिन मौक़ा देखकर बहू से कहना कि उसका पति और सास मकान को ठिकाने लगाने वाले हैं…,”
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डॉ. सतीशराज पुष्करणा की ७९ वीं जयन्ती के महोत्सव में उन्हें शब्दांजलि




आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में सोमवार, 6 अक्टूबर , 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
ReplyDeleteशुभकामनाओं के संग आत्मीय आभार आपका
Deleteहा हा | बहू को हिंट ?
ReplyDeleteबढ़िया 😊😊😊
ReplyDeletevyangya ka sundar aabhas - shubhkamnayein!
ReplyDeleteआज लोगों को संतान मोह से निकलने की जरुरत है, कृतघन को आईना दिखाना बेहतर! अधिकार केसाथ कर्तव्य भी मिलते हैं! लेकिन बहुयें या फिर कई जगह बेटे -बेटियां भी लालच कर्तव्य विमुख सिर्फ लेने पर मन रखते हैं देने के नाम पर कुछ नहीं! कम शब्दों में बडा धमाका! बधाई और शुभकामनायें दीदी 🙏
ReplyDeleteघर की सफ़ाई तो बस बहाना है, असली सफाई रिश्तों और उम्मीदों की है। मैंने भी ऐसे ही घर देखे हैं जहाँ लोग दूसरे के हिस्से को अपनी जिम्मेदारी मान लेते हैं और फिर उसी में उलझनें पनपती रहती हैं। सहायक की बात दिल को चुभती है, क्योंकि सच में हर घर के दुख अलग हैं। कोई बेटी-बहू न होने का दुख उठाता है, तो किसी को उनके होने के बाद भी चैन नहीं मिलता।
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