Tuesday 11 September 2018

छलावा



हाँथ में बंधीं घड़ी पर सरकता समय
और कामों को निपटाते गृहधुरी से बंधी स्त्री तेज़ी से चलाती हाँथ
धड़कनों को धीमी गति से चलने को देती आदेश
और सुनती तेज़ कठोर आवाज में आदेश
"अंधेरा होने के पहले लौट आना"

दोनों तरफ से खड़ी बस
बस अपहरण की हो जैसे योजना
साँस लेना दूभर
गोधूलि के मृदुल झंकार की जगह
महसूस करते उन्नति के यांत्रिक शोर
आधे घन्टे की दूरी को डेढ़ घन्टे में तय करता ऑटो

घर से निकलते समय वक़्त का हिसाब रखती
घर लौटते समय अनुत्तीर्ण होती जोड़-घटाव में
पल-पल का रखवाला साथ नहीं होता
वो ऊपर बैठा एक पक्षीय
फैसला करने में व्यस्त होता

नवजात से ही उसे बड़े, बूढ़ों
परिवार/समाज के
सुनाते रहते हैं ,
"झुकी रहना..."

औरत के
झुके रहने से ही
बनी रहती है गृहस्थी
ड्योढ़ी के अंदर...

बने रहते हैं संबंध
पिता/भाई के नाक ऊँची रहते

समझदारी किस लिंग में ज्यादा है
समझदारी
यानी
दर्द सहन कर हँस सकने की कलाकारी
याद करती ड्योढ़ी के अंदर का
जलियांवाला कांड
और बुदबुदाती
ना जाने हमारे लिए
देश कब आज़ाद होगा

जब तक वह खुद से चाहती है
वरना झटके से हर जंजीर तोड़ उठती है

पर वक्त को कैसे बाँधे आदेश पै
अंधेरा होने से पहले लौट आना

5 comments:

  1. परिवार की धुरी है वह,,, घूमती रहती है, खटती रहती है फिर भी ऊँगली उठाने वाले उधार में मिल जाते हैं
    बहुत अच्छी रचना

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  2. अन्याय इस युग की बात नहीं है
    जो ग्रन्थ हमारी पूजा घर के अमूल्य रत्न बन गए वो भी स्त्री अत्याचार के घोतक हैं। (महाभारत,रामायण)
    जो रीति रिवाज हमारी संस्कृति के मनके हैं और समाज के नियम बन गए वो भी स्त्री जाति पर अत्याचार है।(बेटी के होने पर कोई रस्म नहीं और बेटे के होने पर थाली बजाई जाए,गीत गाये जाए, या पर्दा प्रथा या फिर दहेज ये सब स्त्री जाति का पुरजोर विरोध है)
    हमारी मानसिकता अलग से सोचती ही नहीँ इस बारे में।
    क्यों नहीं सोचते क्योंकि इन गर्न्थो को या इन रीति रिवाजों को हम भगवान ही मान बैठे हैं। और भगवान से किसको डर नहीं लगता।

    सोचने पर मजबूर कर देने वाली रचना

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  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 13.9.18 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3093 में दिया जाएगा

    धन्यवाद

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  4. This comment has been removed by the author.

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