माता-पिता की खुशियों के उच्छल पर अंकुश लग ही नहीं रहा था। उन्हें अपनी इकलौती पुत्री के लिए मनचाहा भारतीय प्रशासनिक सेवक, घर-जमाई मिल गया था। बारात का स्वागत हो चुका था। वरमाला के बाद वर-वधू गाड़ी में बैठ चुके थे। शादी के लिए मंडप घर के छत पर बना था। लेकिन वर-बधू वाली गाड़ी घर की तरफ ना जाकर दूसरी तरफ मुड़ गयी। बेबस होकर सभी गाड़ियाँ वर-बधू वाली गाड़ी का अनुसरण करते हुए शहर से बाहर बने वृद्धाश्रम के सामने पहुँच गयीं।
वृद्धाश्रम के प्रांगण में मंडप सजा हुआ था और एक वृद्ध पीली धोती और सिल्क का नया कुर्ता पहने आगवानी में खड़े थे। बधू के माता-पिता भौंचक होकर पत्थर की मूर्ति सा जड़ खड़े थे।
"क्या आप अपने पिता को पहचान रहे हैं ? वर ने पूछा।
"यहाँ तुमलोगाें को आना था तो हमें पहले क्यों नहीं बताया? वधू की माता ने पूछा। उनकी जड़ता टूटी।
"दादा को आप वृद्धाश्रम में छोड़ने जा रहे हैं क्या आपने बताया था?" वर ने कहा।
"हुंह्ह्ह, बताया जाता! कैसे बताया जाता..! जब तक बुआ भारत में रहीं दादा उनके साथ ज्यादा रहते। मेरी हमउम्र फुफेरी बहन के साथ खुश रहते। मुझे तो दादा से बहुत दूर हॉस्टल में रखा जाता।" वधू ने कहा।
"सत्ता का उन्माद बिना महावत का रहा। क्या इनका स्थानांतरण कर दें?" वर ने पूछा।
"नहीं। गलतियों के इतिहास को दोहराया नहीं जाता है।" वधू ने कहा।
आश्रम हर पडाव मे जरूरी है |
ReplyDeleteशुक्र है कि वधु बनी पोती ने गलती को स्वीकार किया । लेकिन अपने माता - पिता को वृद्धाश्रम से बचा भी लिया । सोचने पर मजबूर करती पोस्ट ।
ReplyDeleteविभा जी , शब्द क्षिप्रका है या क्षिप्रका एक बार देखिएगा .
ReplyDelete🙏
Deleteक्षिप्रिका
Deleteक्षिप्रिका सही है 🙏
Deleteमाता पिता के लिए वृद्धाश्रम का विकल्प तो जैसे आम होता जा रहा है, चिंतनपूर्ण विषय पर सारगर्भित लघुकथा ।
ReplyDeleteकैसा वक्त बदल रहा है। सोचने लायक लघुकथा
ReplyDeleteबहुत ही सोचनीय... चलो वर एवं वधू (आने वाली पीढ़ी) ये बात समझे।
ReplyDeleteबहुत ही लाजवाब एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा ।
विचारणीय लघुकथा दी।
ReplyDeleteअपने दायित्वों से मुक्त होने के लिए संतान का ऐसा व्यवहार आघात पहुँचाने वाला है सचमुच।