Thursday, 9 January 2025

1. मुबश्शिरा — 2. मुबश्शिरा

 01.

"क्या दूसरी शादी कर लेने के बारे में नहीं सोच रही हो?" सुई भी गिरती तो शोर गूँज जाता। जैसे आग लगने पर अलार्म बज जाता है। पहली भेंट और ऐसा प्रश्न ! महिलाओं की गोष्ठी थी। दूर से आने के कारण रत्ना अपनी बेटी के साथ, समय से थोड़ा पहले आ गई थी। परिचय होने के दौरान पता चला कि बेटी विधवा है। और उसके दो बच्चे भी हैं। और इसी से मिला मेज़बान का बाउंसर प्रश्न !

     "नहीं आंटी ! सुख लिखा होता तो एक का साथ लम्बा चलता।" रत्ना की बेटी की आवाज कहीं गहरे कुएँ से आती लग रही थी।

      "दो बच्चों के साथ अपनाने के लिए कोई मिले भी तो…?" रत्ना ने कहा।

      "ज़माना बहुत बदल गया है। आजकल बहुत आसानी से बच्चों के साथ अपना लेने वाले पुरुष बहुत मिल जाते हैं!" मेज़बान काउंसलर की भूमिका अपना रही थी।

      "फरिश्ते हर ज़माने में मिला करते थे। आज भी मिला करते हैं। लेकिन फ़रिश्तों की संख्या हर ज़माने में दूज के चाँद-सी ही होती है।" रत्ना की सहेली ने कहा।

      "अगर शादी के बाद फ़रिश्ता ना निकला तो ताड़ से गिरकर खजूर में अटक जाने वाली बात हो जाएगी।...और कहीं की नहीं रहेगी मेरी बेटी…!" रत्ना का स्वर बेहद मर्माहत था।

      "और नहीं तो क्या…! आजकल तो कुँवारियों की संख्या बढ़ रही है। शादी के बाद के हज़ार झंझटों से बचने के लिए?" रत्ना की सहेली ने कहा।

      "और अगर मैं आप लोगों की सारी आशंकाओं को दूर करने का प्रयास करूँ और अपनी माँ की कही बातों को सच साबित करने का वादा करूँ तो क्या आप मुझे एक मौक़ा देंगी?" चाय की ट्रे लाते हुए मेज़बान के बेटे ने पूछा। 

      पुनः सन्नाटे के साम्राज्य ने जड़ जमा ली।

02.

"जोमाटो से विष्णु को धोखा मिला। उस दिन से मैंने भी जोमाटो से कुछ मँगवाना छोड़ ही दिया था। आज पहाड़-सी मजबूरी थी।शंकित मन से मुझे जोमाटो को ही ऑर्डर करना पड़ा।"

      "विष्णु के साथ तुमने जो धोखा किया, उसमें कितने का घाटा लगा था विष्णु को? जिसके विरोध में विष्णु ने तुम्हें जो घाटा लगाने के मौके देखे?" मैंने जोमाटो वाले से पूछ ही लिया। 

       जोमाटो वाले को मानो साँप सूँघ गया वाह कुछ देर तो बोला ही नहीं! फिर जोर देकर पूछा तो बताने लगा--"धोखा तो धोखा होता है। चाहे एक रुपये का हो या एक लाख का? जाड़े के दिन थे। विष्णु से खाने का ऑर्डर मिला। रात का बचा हुआ बासी खाना था। उसे मैंने तड़का लगाया और भिजवा दिया। पैसा देने के दौरान, विष्णु के अकाउंट में जितना रुपया था, सारा का सारा मेरे अकाउंट में चला गया। विष्णु मचल कर रह गया।"

       "तुम्हारे दाँत खट्टी करने के बदले, ऐसे हालात में, मैंने पुनः तुम्हें ऑर्डर किया। जो कि मुझे नहीं करना चाहिए था। इसी को कहते हैं, कुल्हाड़ी पर पैर डाल देना? लेकिन मैंने कुल्हाड़ी पर पैर डाला, क्योंकि मैं समझना चाहती थी, कि तुम-में-कुछ परिवर्तन हुआ है, कि नहीं।"

       अब आत्म-संदेह में फँसा जोमाटो वाला असहज मालूम पड़ रहा था। और मैं अपनी साँसें रोके, गरम ईंटों पर बिल्ली की तरह डिलीवरी बॉय जब तक नहीं आया था घर-बाहर चहलक़दमी कर रही थी..!डिलीवरी बॉय आया तो उसे देख मैंने सब-कुछ भुला दिया। मेरी आँखें फटी की फटी रह गई। जब देखा, डिलीवरी बॉय एक विकलांग था…! अच्छा हुआ जो जोमाटो से सामान मँगवाई, क्यों खेत खाये गदहा, मार खाए जुलाहा!


1 comment:

  1. नयी परिकल्पना लिए अलग तरह की विचारणीय लघुकथाएं दी।
    सस्नेह प्रणाम।
    सादर।
    -----

    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १० जनवरी २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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1. मुबश्शिरा — 2. मुबश्शिरा

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