“आज अनेक दिनों के बाद क़ैद से सूरज निकला था! तुम छत पर बैठे धूप का आनन्द ले रहे थे! कमान से छूटे तीर की तरह अचानक तेजी से दौड़ते हुए कहाँ चले गए थे?"
"पड़ोस के छात्रावास के हाते से आते शोर के कारण देखने चला गया था! कैसा शोर है…?”
"कैसा शोर था?"
"लड़कियों का दो दल आपस में ही सर-फुटव्वल करने में भीषण घायल हो रही थीं…! एक ही लड़का, अनेक लड़कियों को अपने प्रेम-बिसात का मोहरा बनाए हुए है…! कितनी मूर्ख-अंधी होती हैं लड़कियाँ…!"
"सच कहा! मूर्ख-अंधी लड़कियाँ ही होती हैं। इसलिए तो दलदल में डूब जाती हैं!"
"और जिगोलो उसकी भी छोड़ो, नेक्रोफ़ीलिया के बारे में तुम दोनों की क्या राय है?"
"विमर्श लैंगिक विभेद पर बात नहीं होनी चाहिए…!" दोनों ने नजरें चुराते हुए बेहद धीमी आवाज में फुसफुसाया।
"ओ! अच्छा! तो तुमदोनों विमर्श कर रहे थे…! लगता है तुमदोनों के पास मनुष्यता संबंधित विषयों की कमी हो गयी है!"
उसकी बातें सुनकर उनदोनों की खिलखिलाहट वाली हँसी शोर मचा गई। एक ने कहा, "तुम्हारी बातें सुनकर मुझे लगता है कि तुम्हारे पास मनुष्यता के बारे में बहुत कुछ कहने को है!"
उस तीसरे ने मुस्कराते हुए कहा, "हाँ, हमारे पास बहुत कुछ है जो हम कहना चाहते हैं! न! न! सिर्फ कहना नहीं हमें करना होगा, जिससे यह लिंग-पक्षपाती रूढ़ियों और पूर्वाग्रही विचारों से समाज मुक्त हो सके…!”
एक और
खाली घोंसला—
वैध स्थायी निवासी (ग्रीन कार्ड होल्डर) माँ की भौं टेढ़ी।
माँ ग्रीन कार्ड होल्डर हो गई है
प्रगतिशील और प्रेरक सोच से आत्मा शुद्ध होती है और यही विचार जब कर्म के रूप में समाज को हम देते है तो सामाजिक बदलाव।
ReplyDeleteप्रेरक लघुकथा।
प्रणाम दी।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार ७ जनवरी २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
हार्दिक आभार छुटकी
Deleteमंगलकामना m
सटीक मौका परास्त (परस्त नहीं ) करना :)
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
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